रविवार, 29 अगस्त 2010

जरूरत सोच बदलऩे की

ऐसा क्या लिख सकता हूं, जो आपको नया सा लगे। पढक़र लगे, आज जो पढ़ा है, वैसा पहले कभी पढऩे को नहीं मिला। हर सोच, हर कल्पना, हर विचार पर हजारों पन्ने लिखे जा चुके है. मैंने जो कुछ आज तक पढ़ा है, उसमें कुछ बातें साफतौर पर समझ आती है, कुछ लोगों की दुष्ट मानसिकता की बदौलत आज तक भी हम गुलामी की मानसिकता से पूरी तरह नहीं उबर पाए है. समय के साथसाथ गुलामी की परिभाषा भी बदल गई. पहले विदेशियों का कब्जा होने से हम गुलाम थे. उनको खदेड़ा, तो अब यहां धार्मिक, राजनैतिक ताकतों के गुलाम हो गए. जो इनकी सीमाओं से बाहर रहने का साहस दिखाए, वह समाज के अयोग्य नागरिकों में शामिल कर दिया जाता है. बहरहाल बात यह है कि कुछ लोग अपने जीवनकाल में वह मुकाम हासिल करते है, जिनके आचरण को आदर्श मानकर पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाया जाता है. हमारी गुलाम मानसिकता में एक नाम का जिक्र हमेशा हो सकता है जयचंद. इसी सोच का परिणाम था कि सोने की चिडिय़ां के नाम से विश्व पटल पर अंकित भारतवर्ष को करीब दो सौ वर्षों तक गुलामी का दंश झेलना पड़ा. लड़ भिडक़र आजादी हासिल की, तो अब वंशवाद की गुलामी करना शान समझने लगे. यह ठीक बात है, जिस समाज का नेतृत्व नहीं होता, वह समाज बिखर जाता है. जब हमारी जीवनचर्या के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया लागू है. तो फिर वंशवाद की बात समझ से परे है। राजा का बेटा राजा होगा, यह बात समझ में आती है, क्योंकि वह राजतंत्र का हिस्सा है। पर जहां लोकतंत्र की बात की जाती है, वहां नेता का बेटा, नेता क्यों। अगर ऐसा है, तो यही तो गुलामी है. भले ही भौतिक रूप से आजाद है, पर मानसिकता तो गुलामी की है. और जब तक मानसिक गुलामी की जंजीरों को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक हम पूर्ण आजाद नहीं हो सकते है.
यह बात समझ में आती है, जब मानसिकता गुलामी वाली हो तो हम किसी भी क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकते है. क्योंकि हर इंसान अपने आप में कुछ विशेष योग्यता रखता है. पर उसको कुछ करने की आजादी हो तो तब न. बचपन से ही उसके दिलोदिमाग पर धर्म, समाज संबंधित विचार भरते चले जाते है. अपनी युवास्था पर पहुंचतेपहुंचते वह भी अपने पूर्ववर्तियों की भांति काम करता है. नई सोच, नई शुरूआत के लिए जरूरी है हम अपनी मानसिकता को बदले. ऐसा कोई हमको नहीं कहने वाला और न ही हमको कोई ऐसा करने देगा. क्योंकि हम ऐसा करते है तो सामने वाले को दर्द होगा, उसको अधिकारों पर चोट हो सकती है. पर हमको कुछ नया करने के लिए अपने भीतर एक नई सोच विकसित करनी होगी. अगर एडीसन ने हर रोज प्रयोग न करे होते तो आज हम अंधेरे में अपना जीवन बिता रहे है. मेरे विचार से सोच ही अविष्कारों की जननी होती है और जब तक यह सोच आजाद नहीं होगी, तब तक कुछ भी नया होने की बात करना बेमानी है. इसलिए जरूरत इस बात की है कि इस सोच को बदल दिया जाए. ताकि हम भी कुछ नया कर सके.

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