गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

स्थायित्व प्रदान करती है कर्म पूजा

काल करे सो आज, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करोगे कब।।
वर्तमान में मीडिया क्षेत्र में इस दोहे को चरित्रार्थ होता देखा जा सकता है। जहां पर आज तो आज की नीति पर अमल होता है। हां, प्रलय जैसी बात तो नहीं होगी, लेकिन स्पर्धा के दौर में दूसरे के आगे निकल जाने का डर हमेशा मन में समाया रहता है। मीडिया क्षेत्र की सबसे बड़ी और अच्छी बात यह है कि यहां पर किसी भी काम को अगले दिन पर नहीं छोड़ा जा सकता है। मतलब काम कितना भी हो, आज ही खत्म होना है। कभी-कभी झुंझलाहट भी बहुत होती है। यह कैसी नौकरी है, जहां पर एक दिन की छुट्टी भी आराम से नहीं मिलती। बहुत से लोगों को यह कहते सुना जा सकता है, अरे तुम छुट्टी की बात करते हो, मुझे अपनी शादी के समय सिर्फ दो या तीन का अवकाश बामुश्किल मिला था। उस समय मन करता है अभी इस नौकरी को छोड़ कर दूसरी नौकरी के लिए बात की जाए। लेकिन जैसे ही दिन का काम खत्म होता है या अवकाश मंजूर हो जाता है, वैसे ही झुंझलाहट भी दूर हो जाती है। यह जो झुंझलाहट है, ईमानदार व कर्मठ व्यक्ति के स्वभाव में नहीं है, पर क्या किया जा सकता है, यह आती उन लापरवाह व्यक्तियों की ओर से, जिनको शौक होता है, मीडिया में जॉब करने का, लापरवाह व अयोग्य व्यक्ति जोड़-तोड व सिफारिश के बल पर मीडिया में जॉब हासिल कर लेते है। लेकिन काम न करने की आदत के चलते न तो खुद ही काम करते है और न ही दूसरों को करने देते है। इन लोगों के पास इतना समय होता है कि देखकर ताज्जुब होता है। रही बात काम करने की, तो काम तो आता ही नहीं करे भी कैसे। बॉस परिक्रमा करने की आदत के चलते उनको कुछ कहा भी नहीं जा सकता। उनकी यह आदत जब रूटीन काम में दखल डालती है, तो सारा काम ही रूका जाता है, तब झुंझलाहट स्वयं आती है दिमाग खराब करने। लगभग हर ऑफिस में दिखने वाले इन लापरवाह सहयोगियों के कारण काम पर कितना असर पडे़गा, कोई भी आसानी से समझ सकता। बॉस भी ऐसे की, आवाज मार कर बुला लेते है उनको अपने पास और जमा लेते है महफिल। इसकी वजह भी साफ समझ में आती है कि राजाओं को चंगू-मंगू रखने का शौक होता है, जो उनकी हर बात में हां मिलाते रहे। बॉस इज आलवेज राइट। पर जरूरी नहीं बॉस हमेशा सही हो, बॉस गलत भी हो सकते है, वह कोई भगवान तो है नहीं, आखिर वह भी इंसान ही है, गलती हो सकती है, उनको समझाया जा सकता है। अब क्योंकि मीडिया में समय कम होता है, काम ज्यादा। तब ऐसे में काम करने वाले काम में ही उलझे रहते है। बॉस को समझाने का समय तक भी नहीं मिल पाता, जब समय मिलता है, तब तक चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए क्या होत वाली कहावत हकीकत में बदल जाती है। फिर शुरू होता है आरोप-प्रत्यारोप का दौर, जो आजकल कम्प्यूटर टू कम्प्यूटर वाया इंटरनेट पर चलता है। साथ ही सबसे ज्यादा नफरत उन सहयोगियों से होती है, जो खुद तो कभी कुछ करते नहीं, उल्टे काम करने वालों के साथ कंपनी और बॉस की बुराई करते-फिरते रहते है। अरे भाई हमारी तो कोई कद्र ही नहीं, काम करते, रहो, तनख्वाह का नाम न लो। मेरी समझ में नहीं आता । जब काम की योग्यता नहीं होती, तो क्यों मीडिया में घुसे चले आते है। क्यों अपना समय खराब करते है, कहीं पर भी पान की दुकान खोली जा सकती है, जिसके दो फायदे होगे, एक तो पैसा आता रहेगा, दूसरे लोग आपके चक्कर लगाने लगेंगे। सोचिए कितना अच्छा होगा, जहां अभी तक आप बॉस परिक्रमा करते थे, वही लोग आपकी परिक्रमा करने लगेंगे। फिर किसी डाक्टर ने तो कहा नहीं कि बगैर तनख्वाह के मीडिया में जबरदस्ती घुसे रहो। एक बात अच्छी तरह समझ आ गई कि काम की हमेशा कद्र होती है। जब तक जिस कंपनी में रहो, ईमानदारी से काम करो। भले ही व्यक्ति पूजा आपको काम दिलवाने में मददगार साबित हो जाए, लेकिन कर्म-पूजा आपको स्थायित्व प्रदान करती है। साथ ही कंपनी को हमेशा काम करने वालों की जरूरत रहती है। क्योंकि जब करने वाले ही नहीं होगे तो कंपनी कैसे चलेगी। भले ही देर से सही ईमानदार व कर्मठ कर्मचारियों की कद्र होती है। अब मीडिया क्षेत्र में जितना समय है उतने समय में एक ही काम को महत्व दिया जा सकता है व्यक्ति पूजा या कर्म पूजा। अब यह हमारे पर निर्भर करता है आखिर किसको महत्व देना है। व्यक्ति पूजा के चलते प्रलय तो नहीं आती है, दिमाग जरूर हिल जाता है, जब अगले दिन रिजल्ट खराब आता है। इन लापरवाह लोगों की वजह से कबीर दास जी
का यह दोहा पूरी तरह बदल गया है-
अब करे सो आज, आज करे सो काल। पल में प्रलय होएगी, मौज करेगा कब।।

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

प्लीज अन्ना, भ्रमित न करें

‘अन्ना’ आज किसी पहचान के मोहताज नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल
बिल लाने की दिशा में अन्ना ने जिस आंदोलन की शुरूआत की थी. वह आज
सार्वजनिक हितों से दूर व्यक्तिगत हितों की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है.
अन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उभर कर सामने आ रही है. यह ठीक बात है
कि देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है. हो भी क्यों
न आजादी के बाद से आज तक अधिकतर समय सत्ता कांग्रेस के हाथ में ही थी.
इसलिए सभी अच्छीबुरी बातों के लिए कांग्रेस की ही जिम्मेदारी बनती है.
अगर कांग्रेस ने देश के विकास में अग्रणी भूमिका निभाई तो देश पर क्या
अहसान किया, देशवासियों ने कांग्रेस पर भरोसा किया तभी वह लगभग अधिकतर
समय तक सत्ता में रहे. यहां पर भाजपा व अन्य दलों की जिम्मेदारी थोड़ी कम
बनती है. क्योंकि वह बहुत कम समय तक सत्ता में रहे. इसलिए कांग्रेस की
अपेक्षा भाजपा व अन्य पार्टियां भ्रष्टाचार बढ़ाने के लिए कम दोषी मानी
जा सकती हैं. लेकिन इस बात से भाजपा व अन्य पार्टियों को निर्दोष नहीं
ठहराया जा सकता. गैर कांग्रेसी पार्टियां अगर सत्ता में नहीं थी, तो क्या
वह मुख्य विपक्षी पार्टी तो थी. उन्होंने कांग्रेस के गलत कामों को रोकने
का प्रयास ईमानदारी से क्यों नहीं किया? क्यों आज तक देशवासियों का भरोसा
नहीं जीत सकी? राजनीति के दांवपेंच से अजीज आ चुके देशवासियों ने अन्ना
की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में खुद को शामिल कर लिया. लेकिन आज देशवासी
खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. इसकी वजह साफ नजर आती है कि अन्ना व
उनकी टीम आखिर चाहती क्या हैं? जनलोकपाल बिल पास न करने के लिए अगर
कांग्रेस को दोषी ठहराया जा रहा है तो भाजपा व अन्य पार्टियों को भी तो
दोषी ठहराया जाना चाहिए. देशवासियों के समर्थन से गदगद अन्ना व उनकी टीम
चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है. उनका कहना है कि
जनलोकपाल बिल की बात न करने वालों को चुनाव में हराना है. सबसे बड़ा सवाल
यहां पर यह उठता है कि अगर सभी को चुनाव में हराना है तो जिताना किसको
है. (अन्ना व उनकी टीम को, जो चुनाव ही नहीं लड़ रही है.) अन्ना अगर
राजनीतिक पार्टियों को हराने की बात कह रहे हैं तो इसका विकल्प क्यों
नहीं बताते, फलां पार्टी के व्यक्ति को चुनाव जिताना है. वैसे भी अपना
देश इतना बड़ा है कि एक कोने के विचार दूसरे कोने विचारों से मेल नहीं
खाते. तब ऐसे में निर्दलीय प्रत्याशियों के जीत कर आने की संभावना बढ़
जाएगी. फिर सरकार का क्या होगा, कौन बनेगा प्रधानमंत्री और कौन करेगा बिल
पास. हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि संसद में बहुमत वाली पार्टी ही
सरकार बनाएगी. आखिर अन्ना अपना रूख साफ क्यों नहीं करते कि वह किंग बनना
चाहते हैं या किंगमेकर. अगर किंगमेकर बनने की तमन्ना है तो उनका किंग कौन
होगा. अगर वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों देशवासियों को भ्रमित कर
रहे हैं. यह हमारी मजबूरी है कि हर पांच साल में हमको अपनी सरकार के लिए
नेताओं का चुनाव करना होता है. हम मतदान में भाग लें या न लें, इस बात से
कोई फर्क नहीं पड़ता है. क्योंकि हम अपना मत नहीं देंगे तब भी हमारा नेता
चुना जाना तय है. उसके बाद सरकार भी बनेगी. यह कटु सत्य है. इसलिए यह
बहुत जरूरी हो जाता है कि अन्ना व उनकी टीम इस मुद्दे पर अपना रूख साफ
करे.