गुरुवार, 24 नवंबर 2011

हजारों से बेहतर, लाखों में कमतर

कभी आप सब्जी मंडी में टमाटर खरीदने गए है. अगर नहीं गए तो मंडी जाकर टमाटर खरीद लेना बस. बात बहुत छोटी सी है, पर यही छोटी सी बात हमारी बहुत बड़ी सोच को संतुष्ट कर सकती है. अब क्योंकि हम नौकरीपेशा लोग है. हमको अपने संस्थान या मालिक वर्ग से हमेशा सिर्फ एक ही शिकायत रहती है, काम की कोई कद्र नहीं, सैलरी का कोई हिसाब नहीं. यही सोच हमारी तरक्की में सबसे बड़ी बाधक है. इस सोच को खत्म करने के लिए एक बार सब्जी मंडी में जाकर टमाटर खरीदने की जहमत उठानी पड़ेगी. सोचिए जब हम पिलपिले और पके हुए टमाटर नहीं खरीदते है, जो बहुत ही सस्ते दामों पर हमको मिल जाएगे. अब क्योंकि हम अपने खानापान से समझौता नहीं कर सकते, आगबबूले होकर अगली ठेली की ओर अपना रूख कर लेते है. तब आज के बेहद कठिन प्रतिस्पर्धी माहौल में हम कैसे दावा कर सकते है कि हम सबसे बेहतर है. और हमारे नियोक्ता हमको मुंहमांगा वेतन उपलब्ध कराए. कभी हम हजारों में बेहतर थे, आज लाखों हमसे बेहतर है. हर पल हर दिन नई टेक्नोलॉजी और कार्य की संस्कृति बदल रही है, ऐसे में स्वयं को परिवर्तन के अनुरूप ढालना जरूरी हो जाता है. मैंने कभी पढ़ा था कि सबसे बड़ा देशभक्त वह है, जो किसी को रोजगार उपलब्ध कराए. ऐसे में अपने नियोक्ता की नियत पर शक करने का सवाल ही पैदा नहीं होता. क्योंकि उसने ही हमको रोजगार उपलब्ध कराया है. यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपना बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपने संस्थान को तरक्की के रास्ते पर ले जाए. अगर हम ऐसा कर पाने में सफल हो जाते है, तो हमको अपने साथ रखना और मुंहमांगा वेतन उपलब्ध कराना संस्थान या मालिक वर्ग की मजबूरी बन जाएगा, ठीक वैसे ही जैसे बहुत अच्छे टमाटर देख हमारे मुंह में पानी आ जाता है और हम महंगे दामों पर भी उनको खरीदने को तैयार रहते है.

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

स्थायित्व प्रदान करती है कर्म पूजा

काल करे सो आज, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करोगे कब।।
वर्तमान में मीडिया क्षेत्र में इस दोहे को चरित्रार्थ होता देखा जा सकता है। जहां पर आज तो आज की नीति पर अमल होता है। हां, प्रलय जैसी बात तो नहीं होगी, लेकिन स्पर्धा के दौर में दूसरे के आगे निकल जाने का डर हमेशा मन में समाया रहता है। मीडिया क्षेत्र की सबसे बड़ी और अच्छी बात यह है कि यहां पर किसी भी काम को अगले दिन पर नहीं छोड़ा जा सकता है। मतलब काम कितना भी हो, आज ही खत्म होना है। कभी-कभी झुंझलाहट भी बहुत होती है। यह कैसी नौकरी है, जहां पर एक दिन की छुट्टी भी आराम से नहीं मिलती। बहुत से लोगों को यह कहते सुना जा सकता है, अरे तुम छुट्टी की बात करते हो, मुझे अपनी शादी के समय सिर्फ दो या तीन का अवकाश बामुश्किल मिला था। उस समय मन करता है अभी इस नौकरी को छोड़ कर दूसरी नौकरी के लिए बात की जाए। लेकिन जैसे ही दिन का काम खत्म होता है या अवकाश मंजूर हो जाता है, वैसे ही झुंझलाहट भी दूर हो जाती है। यह जो झुंझलाहट है, ईमानदार व कर्मठ व्यक्ति के स्वभाव में नहीं है, पर क्या किया जा सकता है, यह आती उन लापरवाह व्यक्तियों की ओर से, जिनको शौक होता है, मीडिया में जॉब करने का, लापरवाह व अयोग्य व्यक्ति जोड़-तोड व सिफारिश के बल पर मीडिया में जॉब हासिल कर लेते है। लेकिन काम न करने की आदत के चलते न तो खुद ही काम करते है और न ही दूसरों को करने देते है। इन लोगों के पास इतना समय होता है कि देखकर ताज्जुब होता है। रही बात काम करने की, तो काम तो आता ही नहीं करे भी कैसे। बॉस परिक्रमा करने की आदत के चलते उनको कुछ कहा भी नहीं जा सकता। उनकी यह आदत जब रूटीन काम में दखल डालती है, तो सारा काम ही रूका जाता है, तब झुंझलाहट स्वयं आती है दिमाग खराब करने। लगभग हर ऑफिस में दिखने वाले इन लापरवाह सहयोगियों के कारण काम पर कितना असर पडे़गा, कोई भी आसानी से समझ सकता। बॉस भी ऐसे की, आवाज मार कर बुला लेते है उनको अपने पास और जमा लेते है महफिल। इसकी वजह भी साफ समझ में आती है कि राजाओं को चंगू-मंगू रखने का शौक होता है, जो उनकी हर बात में हां मिलाते रहे। बॉस इज आलवेज राइट। पर जरूरी नहीं बॉस हमेशा सही हो, बॉस गलत भी हो सकते है, वह कोई भगवान तो है नहीं, आखिर वह भी इंसान ही है, गलती हो सकती है, उनको समझाया जा सकता है। अब क्योंकि मीडिया में समय कम होता है, काम ज्यादा। तब ऐसे में काम करने वाले काम में ही उलझे रहते है। बॉस को समझाने का समय तक भी नहीं मिल पाता, जब समय मिलता है, तब तक चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए क्या होत वाली कहावत हकीकत में बदल जाती है। फिर शुरू होता है आरोप-प्रत्यारोप का दौर, जो आजकल कम्प्यूटर टू कम्प्यूटर वाया इंटरनेट पर चलता है। साथ ही सबसे ज्यादा नफरत उन सहयोगियों से होती है, जो खुद तो कभी कुछ करते नहीं, उल्टे काम करने वालों के साथ कंपनी और बॉस की बुराई करते-फिरते रहते है। अरे भाई हमारी तो कोई कद्र ही नहीं, काम करते, रहो, तनख्वाह का नाम न लो। मेरी समझ में नहीं आता । जब काम की योग्यता नहीं होती, तो क्यों मीडिया में घुसे चले आते है। क्यों अपना समय खराब करते है, कहीं पर भी पान की दुकान खोली जा सकती है, जिसके दो फायदे होगे, एक तो पैसा आता रहेगा, दूसरे लोग आपके चक्कर लगाने लगेंगे। सोचिए कितना अच्छा होगा, जहां अभी तक आप बॉस परिक्रमा करते थे, वही लोग आपकी परिक्रमा करने लगेंगे। फिर किसी डाक्टर ने तो कहा नहीं कि बगैर तनख्वाह के मीडिया में जबरदस्ती घुसे रहो। एक बात अच्छी तरह समझ आ गई कि काम की हमेशा कद्र होती है। जब तक जिस कंपनी में रहो, ईमानदारी से काम करो। भले ही व्यक्ति पूजा आपको काम दिलवाने में मददगार साबित हो जाए, लेकिन कर्म-पूजा आपको स्थायित्व प्रदान करती है। साथ ही कंपनी को हमेशा काम करने वालों की जरूरत रहती है। क्योंकि जब करने वाले ही नहीं होगे तो कंपनी कैसे चलेगी। भले ही देर से सही ईमानदार व कर्मठ कर्मचारियों की कद्र होती है। अब मीडिया क्षेत्र में जितना समय है उतने समय में एक ही काम को महत्व दिया जा सकता है व्यक्ति पूजा या कर्म पूजा। अब यह हमारे पर निर्भर करता है आखिर किसको महत्व देना है। व्यक्ति पूजा के चलते प्रलय तो नहीं आती है, दिमाग जरूर हिल जाता है, जब अगले दिन रिजल्ट खराब आता है। इन लापरवाह लोगों की वजह से कबीर दास जी
का यह दोहा पूरी तरह बदल गया है-
अब करे सो आज, आज करे सो काल। पल में प्रलय होएगी, मौज करेगा कब।।

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

प्लीज अन्ना, भ्रमित न करें

‘अन्ना’ आज किसी पहचान के मोहताज नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल
बिल लाने की दिशा में अन्ना ने जिस आंदोलन की शुरूआत की थी. वह आज
सार्वजनिक हितों से दूर व्यक्तिगत हितों की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है.
अन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उभर कर सामने आ रही है. यह ठीक बात है
कि देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है. हो भी क्यों
न आजादी के बाद से आज तक अधिकतर समय सत्ता कांग्रेस के हाथ में ही थी.
इसलिए सभी अच्छीबुरी बातों के लिए कांग्रेस की ही जिम्मेदारी बनती है.
अगर कांग्रेस ने देश के विकास में अग्रणी भूमिका निभाई तो देश पर क्या
अहसान किया, देशवासियों ने कांग्रेस पर भरोसा किया तभी वह लगभग अधिकतर
समय तक सत्ता में रहे. यहां पर भाजपा व अन्य दलों की जिम्मेदारी थोड़ी कम
बनती है. क्योंकि वह बहुत कम समय तक सत्ता में रहे. इसलिए कांग्रेस की
अपेक्षा भाजपा व अन्य पार्टियां भ्रष्टाचार बढ़ाने के लिए कम दोषी मानी
जा सकती हैं. लेकिन इस बात से भाजपा व अन्य पार्टियों को निर्दोष नहीं
ठहराया जा सकता. गैर कांग्रेसी पार्टियां अगर सत्ता में नहीं थी, तो क्या
वह मुख्य विपक्षी पार्टी तो थी. उन्होंने कांग्रेस के गलत कामों को रोकने
का प्रयास ईमानदारी से क्यों नहीं किया? क्यों आज तक देशवासियों का भरोसा
नहीं जीत सकी? राजनीति के दांवपेंच से अजीज आ चुके देशवासियों ने अन्ना
की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में खुद को शामिल कर लिया. लेकिन आज देशवासी
खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. इसकी वजह साफ नजर आती है कि अन्ना व
उनकी टीम आखिर चाहती क्या हैं? जनलोकपाल बिल पास न करने के लिए अगर
कांग्रेस को दोषी ठहराया जा रहा है तो भाजपा व अन्य पार्टियों को भी तो
दोषी ठहराया जाना चाहिए. देशवासियों के समर्थन से गदगद अन्ना व उनकी टीम
चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है. उनका कहना है कि
जनलोकपाल बिल की बात न करने वालों को चुनाव में हराना है. सबसे बड़ा सवाल
यहां पर यह उठता है कि अगर सभी को चुनाव में हराना है तो जिताना किसको
है. (अन्ना व उनकी टीम को, जो चुनाव ही नहीं लड़ रही है.) अन्ना अगर
राजनीतिक पार्टियों को हराने की बात कह रहे हैं तो इसका विकल्प क्यों
नहीं बताते, फलां पार्टी के व्यक्ति को चुनाव जिताना है. वैसे भी अपना
देश इतना बड़ा है कि एक कोने के विचार दूसरे कोने विचारों से मेल नहीं
खाते. तब ऐसे में निर्दलीय प्रत्याशियों के जीत कर आने की संभावना बढ़
जाएगी. फिर सरकार का क्या होगा, कौन बनेगा प्रधानमंत्री और कौन करेगा बिल
पास. हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि संसद में बहुमत वाली पार्टी ही
सरकार बनाएगी. आखिर अन्ना अपना रूख साफ क्यों नहीं करते कि वह किंग बनना
चाहते हैं या किंगमेकर. अगर किंगमेकर बनने की तमन्ना है तो उनका किंग कौन
होगा. अगर वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों देशवासियों को भ्रमित कर
रहे हैं. यह हमारी मजबूरी है कि हर पांच साल में हमको अपनी सरकार के लिए
नेताओं का चुनाव करना होता है. हम मतदान में भाग लें या न लें, इस बात से
कोई फर्क नहीं पड़ता है. क्योंकि हम अपना मत नहीं देंगे तब भी हमारा नेता
चुना जाना तय है. उसके बाद सरकार भी बनेगी. यह कटु सत्य है. इसलिए यह
बहुत जरूरी हो जाता है कि अन्ना व उनकी टीम इस मुद्दे पर अपना रूख साफ
करे.

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

पढ़कर कोई कलेक्टर तो बनना नहीं

कम्प्यूटर के दौर में हम जितनी तेजी से आगे बढ़ते जा रहे है, उतनी ही तेजी से हमारी शिक्षा के पारंपरिक तौर-तरीके व साधन हमसे दूर होते जा रहे है. बचपन में सरकंडे या बांस की एक पोर के लिए दिन भर भटकने या लाला की दुकान से 10 पैसे की एक पोर और 5 पैसे में स्याही की टिकिया खरीद लाने के बाद पहले कलम बनाने और स्याही की टिकिया को घोल कर कुछ नया करने की लालसा मन में जागती थी, वह आजकल कम्प्यूटर के कीबोर्ड पर कहां. पहले पेंसिल-कॉपी, स्लेट-बत्ती पर लिखते-लिखते जरूरी हो जाता था कि तख्ती पर लिखना, ताकि लेखन में सुधार हो, क्योंकि आपके लेखन से आपका व्यक्तित्व झलकता है. तख्ती पर लिखना और फिर उसको मिटाने के लिए चिकनी मिट्टी की जरूरत से अहसास होता था कि जिंदगी में कुछ कर गुजरने के लिए मेहनत बहुत जरूरी हो जाती है. लेकिन आजकल ऐसी चीजों की आवश्यकता ही नहीं होती, फिर लिखने के लिए आपके पास पेन के अलावा कम्प्यूटर जो उपलब्ध होता है और जब अपनी इच्छा पलक झपकते ही पूरी हो, तो मेहनत की क्या जरूरत. स्कूल के समय की एक और बात याद आती है, पहाड़े याद करना, जो आजकल शायद ही किसी बच्चे को सिखाए जाते हो. पहले गुणा-भाग करना हो, जोड़-घटाव, बगैर पहाड़े याद किए बिना गणित का कोई सवाल हल करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा था. जिसने पहाड़े याद किए मान लीजिए, वह खुद कम्प्यूटर हो गया. लेकिन आजकल बच्चों के दिमाग पर पहाड़ों की जगह कैलकुलेटर ने अपना कब्जा जमा लिया है, जरा भी गणितीय सवालों को हल करना हो, तो कैलकुलैटर हाजिर है, जो कम्प्यूटर के साथ-साथ मोबाइल में भी मौजूद रहता है. अब खुद ही सोचिए हमने क्या किया, सभी कामों को करने के लिए जब हमारे सामने हर संसाधन उपलब्ध है, तो हम आलसी क्यों नहीं होंगे. अब न किसी को सरकंडे की पोर की जरूरत है और न ही स्याही टिकिया घोलने में समय लगाना पड़ता है. इसके साथ ही पहाड़ों को याद करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. इन सबके परिणामस्वरूप दिमागी कसरत की तो बात ही भूल जाइए. जब दिमाग के पास कुछ करने के लिए बचा ही नहीं तो वह कही तो अपना समय लगाएगा ही, फिर चाहे खुराफत ही सही. और अब तो शिक्षा प्रणाली को इतना आसान बनाया जा रहा है कि फेल होने की गुजांइश ही नहीं बचती. पहले कम से कम फेल होने के डर से बच्चों में थोड़ा बहुत पढऩे की मजबूरी तो होती ही थी, लेकिन अब जब फेल ही नहीं होना तो क्या करना अपना दिमाग खराब करके. वैसे भी पढ़कर कोई कलेक्टर तो बनना नहीं है. अब तो सब कुछ पता है, इस देश में कैसे बहुत कम पढ़े-लिखे ज्यादा पढ़े-लिखों पर राज करते है. फिर हमको तो राज करना है, ना की किसी की चाकरी. कुल बात यह है कि हम अपनी पुरानी शिक्षा प्रणाली को दरकिनार करते हुए कैसे दावा करते है कि हम सबसे बेहतर होने की दिशा में प्रयास कर रहे है. नए अविष्कारों को महत्व मिलना चाहिए, लेकिन इतना भी नहीं कि उसको अपनाने की धुन में अपनी परम्पराएं और अपना अस्तित्व ही गुम हो जाएं.

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

संघर्ष हम करेंगे, अन्ना तुम आराम करो,

अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ है का नारा बुलंद करने वालों अब जागते रहना, क्योंकि अन्ना की आवाज ने जब जगा ही दिया है, तो अब क्या सोना? देख लिया सोने का नतीजा. जनता ने कभी अपने नेताओं की नीयत को टटोला नहीं, उन पर भरोसा करके क्या मिला, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आर्थिक तंगी के सिवाय. वह तो भला हो अन्ना का जिन्होंने इस देश की वर्षों से सोई जनता को जगा दिया, और ऐसा जगाया कि नेताओं को नानीदादी सब याद आ गई. देश की धडक़न दिल्ली में जो आसन जमाया, वहां से जनलोकपाल बिल पास होने का रास्ता साफ़ करवा ही उठे. आखिर सांसदों को संसद में बिल से जुडी तीन महत्वपूर्ण बातो को मानना ही पड़ा. यह ख़ुशी की बात हो सकती है पर अभी आधी जीत हुई है. अन्ना ने अनशन तोड़ने का निर्णय कर लिया. लेकिन अभी खुशियां मनाने का वक्त नहीं आया है, अभी तो यह शुरूआत है, आगे और लड़ाई है, अब बारी जनता की है. अब अन्ना आराम करेंगे और जनता संघर्ष करेगी, अपने प्रदेश में, अपने जिले में, अपने नगर-गांव में, क्योंकि भ्रष्टाचार नस-नस में समाया हुआ, अब नस-नस की सफाई करनी होगी. अब ढूंढने होंगे, अपने दांये-बायें भ्रष्ट अधिकारी कर्मचारी, और अपने भ्रष्ट जनप्रतिनिधि. वह तभी होगा, जब जनता चौकन्नी होकर भ्रष्ट होते हुए सिस्टम पर अपनी पैनी निगाहें रखेंगी. जनलोकपाल बिल के रूप में भ्रष्टाचार से लडऩे का जो हथियार अन्ना ने जनता को उपलब्ध करवाया है, उसका प्रयोग अब जनता को ही करना होगा. अब नेताओं के भुलावे में कभी मत आना, क्योंकि अब बारी नेताओं की है, कांग्रेस हो भाजपा या कोई और दल इस बिल को पास करवाने की दुहाई देते हुए जनता के दरवाजे पर पहुंचने वाले है. लेकिन ध्यान रखना अगर अन्ना और उनकी टीम के साथ-साथ मीडिया और जनता का दबाव न होता, तो यह बिल कभी पास नहीं होता. इन नेताओं के भरसक प्रयास जब अन्ना के हौसले को नहीं डिगा पाए, तब मजबूरी में अन्ना की तीन बातो पर सहमती जताई. वरना उनकी तो पूरी तैयारी थी, कि किसी भी तरह अन्ना अनशन तोड़ दे और बिल भी पास न करना पडे़. लेकिन अन्ना के बुलंद इरादे और जनता के अपार समर्थन के चलते ऐसा न हो सका और अन्ना ने भ्रष्टाचार से लडऩे का अचूक हथियार जनता को उपलब्ध करवा ही दिया. अब अन्ना तुम आराम करो, संघर्ष हम करेंगे.

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

आखिर किस बात का इंतजार है?

अन्ना की आवाज को मिले जबरदस्त जन समर्थन के चलते जहां ने सरकार घुटने टेक दिए है, वहीं विपक्ष पूरी तौर पर अन्ना के साथ आ खड़ा हुआ है। तब यह बात समझ नहीं आ रही है कि अब जनलोकपाल बिल पर बहस की जरूरत क्यों? पहले माना जा रहा था कि सरकार को बिल पास कराने में परेशानी हो रही है। क्योंकि उसको संदेह था कि विपक्ष इस बिल को पास करने की राह में रोड़े अटका जा सकता है। लेकिन अब तो विपक्ष भी अन्ना के साथ आ खड़ा हुआ है। अब सरकार को क्या दिक्कत है। फिर सबसे बड़ी बात जब इस देश का हर नागरिक चाहता है कि जनलोकपाल बिल बनें, तो फिर सरकार क्यों आना-कानी कर रही है। आज हर कोई चाहे गरीब हो या अमीर अपनी खुशी से अन्ना की आवाज से आवाज मिला रहा है। आजादी के बाद से लेकर अब तक किसी भी शख्स को इतना समर्थन नहीं मिला। यह तो जगजाहिर है कि भ्रष्टाचार से हर कोई आहत है। फर्क है तो सिर्फ इतना कि कोई 20 रुपए की रिश्वत देकर दुःखी है तो कोई करोड़ों का घोटाला करके भी खुश नहीं है। अभी कुछ दिन पहले बाबा रामदेव भी रामलीला मैदान पहुंचे थे भ्रष्टाचार के खिलाफ महाभारत का आगाज करने, लेकिन वह खुद ही विवादों में घिरे थे, तो सरकार ने भी रातों-रात उनको वापस आश्रम में भिजवा दिया। लेकिन कहा जाता है कि हर शख्स एक जैसा नहीं होता। जैसे हर कोई गांधी नहीं बन सकता, वैसे ही हर कोई अन्ना नहीं बन सकता। इसलिए अन्ना, अन्ना है। बुलंद भारत की, बुलंद शख्सियत – अन्ना हजारे। अन्ना को हल्के में लेने वाली सरकार के नुमांइदे अब अपनी झेंप मिटाने में लगे है, अन्ना पर दहाड़ने वाले अब माफी मांगते फिर रहे है। आज अन्ना ने देशवासियों को अपने हक के लिए लड़ना सीखा दिया है, उन्होंने बता है कि अपने हक के लिए कैसे लड़ा जाता है। हर पांच साल में घर की चौखट पर हाथ जोड़े नेता जी कैसे मुंह फेर लेते है, इस बात का अहसास भी होने लगा है। यहां पर एक ओर बात है कि लोकतंत्र में चौथा खम्भा माने वाला मीडिया अपनी भूमिका पर खरा उतरता है, रातों-रात अन्ना की आवाज को घर-घर पहुंचा कर उसने जो सराहनीय कार्य किया है, उसकी तो कभी तुलना ही नहीं की जा सकती हैं। यहां पर एक बात समझ नहीं आ रही है कि अन्ना के साथ-साथ देश की जनता चाहती है कि जन लोकपाल बिल पास हो जाए, विपक्ष भी कहता है कि वह अन्ना के साथ है, इस देश से भ्रष्टाचार मिटाना चाहता है, दूसरी ओर कांग्रेस कहती है कि देश को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने के लिए वह कटिबद्ध है। जब सभी जन लोकपाल बिल के साथ-साथ देश को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना चाहते है तो फिर क्यों समय खराब किया जा रहा है, आखिर देश हमारा है, हमको ही बचाना है तो फिर क्यों दिन पर दिन खराब किए जा रहे है, आखिर किस बात का इंतजार है?

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

गांधी के देश में अन्ना की आंधी

अब तक सिर्फ सुना या पढ़ा था कि गांधी जी थे, जिन्होंने अहिंसा के बल पर देश को स्वतंत्र कराया था और आज अन्ना हजारे ने अहिंसा की ताकत के दर्शन भी करवा दिए. पिछले कई दिनों से दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे अन्ना को जो समर्थन मिला, उसकी कल्पना गांधी जी के अनुयायियों ने कभी नहीं की थी. अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने में माहिर कांग्रेस ने आजादी से लेकर आज तक न जाने कितनी बार सत्ता का इस्तेमाल करते हुए लोकतंत्र का गला घोंट दिया. लेकिन आज अन्ना ने कांग्रेस को अहिंसा के बल पर ही घुटने टेकने को मजबूर कर दिया. आज बच्चा-बच्चा जान गया है अहिंसा की ताकत को, वरना उसको तो आज तक यही सिखाया गया कि झंडा उठाओ और निकल पड़ो नारे लगाते हुए और नतीजा सिफर. भले ही आजादी के बाद शुरूआती दौर में कांग्रेस ईमानदार रही हो, पर समय-समय के साथ-साथ उसके नेताओं की नीयत बदलती गई और देश भ्रष्टाचार के गर्त में डूबता चला गया. कहा जाता है कि एक न एक दिन तो पाप का घड़ा भर ही जाता है, ठीक वैसा ही आज हो रहा है. अन्ना की आवाज को आनन-फानन में दबाने के प्रयास में अन्ना को जेल में डालकर कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली. अन्ना की हिम्मत से देशवासियों का जमीर जाग गया. आज हालात यह है कि देश के कोने-कोने से अन्ना के समर्थन में आवाज निकलने लगी है. यह आवाजें आवाज नहीं हुंकार बन गई है. एक सच यह भी है कि भले ही किसी को पता न हो लोकपाल बिल क्या है, उसके कानून बन जाने पर क्या फायदे-नुकसान होंगे. भ्रष्टाचार कितना दूर होगा, नहीं मालूम. लेकिन भारतवासियों की उम्मीद बन चुके अन्ना पर उसका पूरा भरोसा है, वह जान रहा है कि अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जो कर रहे है, वह बिलकुल सही है, इसलिए वह अपने व्यस्त समय में समय निकाल कर अन्ना की आवाज को बुलंद बनाने के लिए सडक़ों पर उतर रहा है. हर कोई अपनी हैसियत के अनुसार आंदोलन में भागीदारी कर रहा है, बच्चे पूरे दिन क्लास में पढऩे के बाद रैलियां निकाल रहे है तो बड़े शाम के समय कैंडिल मार्च, कोई गांधी टोपी लगाए ही घूम रहा है तो कोई अपना सिर मुंडवाए बैठा है. हर ओर विश्व विजयी प्यारा तिरंगा दिखाई दे रहा है, जो आज तक सिर्फ २६ जनवरी या १५ अगस्त को ही बक्सों से बाहर निकल पाता है, वह आज सबकी शान बन चुका है. इस सबके बीच एक ही बात सबसे महत्वपूर्ण है कि न कोई हिंसा, न कोई फिजूल की मारमारी, लेकिन फिर भी क्रांति की शुरूआत हो गई. यही तो है अहिंसा की ताकत. कितना अच्छा सा लग रहा है कि वक्त ने ली करवट और धीरे से आ गई गांधी के देश में अन्ना की आंधी.

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

आप सुधरे तो जग सुधरे

आखिर कोई इंसान लापरवाह कैसे हो सकता है, लगभग आठ घंटे के वर्किंग कॉन्सेप्ट वाले फारमेट में काम करने के आदी हो चुके आदमी के पास अपने व्यक्तिगत कामों के लिए लगभग 16 घंटे का पर्याप्त समय होता है. इन 16 घंटे का उपयोग अपनी मर्जी से करने के लिए वह पूरी तरह से आजाद होता है. इसके अलावा नौकरी पेशा लोगों के लिए सप्ताहिक अवकाश के अलावा साल भर में 30-40 छुटि्टयों का प्रावधान भी होता ही है. लेकिन उसके बाद भी वह आदमी अपने वर्किंग पैलेस में लापरवाही के वह उदाहरण प्रस्तुत करता रहता है, जो समझ से बाहर होते है. हां यहां पर एक बात हो सकती है, आप चाहे अपने आफिस के आठ घंटे के वर्किंग टाईम को अपनी ईमानदारी और मेहनत से कुछ कम कर सकते है, पर न जाने क्यों लोग इन आठ घंटों में भी ईमानदारी से काम नहीं करते है. और फिर कहते फिरते है कि इस देश में समस्याओं का भंडार भरा पड़ा है, जबकि वह खुद नहीं जानते कि इन समस्याओं की जड़ में आपकी स्वयं की लापरवाही ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. खुद ही सोचिए अगर आप आठ घंटे ईमानदारी से काम कर लेंगे तो मुझे नहीं लगता कि कोई भी काम पेंडिंग हो सकता है या कोई भी समस्या पैदा हो सकती है. लेकिन दुनिया व समाज को बदलने का जज्बा दिल में लिए दिन-रात दुनिया-जहां को कोसने वाले खुद को ही क्यों नहीं बदलते, ताकि आप सुधरे तो जग सुधरे. कहीं भी देख लीजिए मेरी बात गलत नहीं हो सकती है- लापरवाह किस्म के इंसानों से हमारे बैंक, स्कूल, डाकघर, हॉस्पिटल आदि सरकारी ऑफिस भरे पड़े हुए है. जहां पर भारी-भरकम तनख्वाह लेने वाले कर्मियों की काम करने में नानी मर जाती है. इन कर्मियों की कार्यशैली का असर अब प्राइवेट ऑफिसों में आने लगा है. जब तक इस देश का हरेक इंसान ईमानदार नहीं होगा, तब तक इस देश से भ्रष्टचार कभी खत्म नहीं हो सकता है, चाहे कितना भी हो-हल्ला कर लीजिए, कितने भी आंदोलन चला लीजिए, कितने भी कानून बना लीजिए, लेकिन यह सत्य है कि भ्रष्टाचार के समूल नाश के लिए हर इंसान का ईमानदार होना जरूरी है, क्योंकि जब ईमानदार जनता ईमानदारी से अपने नेताओं का चुनाव करेंगी तो ईमानदारी से सरकार चलाना उन नेताओं की मजबूरी होगी. और इसकी शुरूआत हमको खुद से करनी होगी, सबसे पहले हमको खुद अपने प्रति ईमनदार होना होगा, एक बात बचपन से सुनता आ रहा हूं कि समस्याओं के भंवर में फंसे देश में भगत सिंह तो पैदा हो, पर पड़ोसी के घर में. ऐसा कुछ नहीं है, बस आप खुद ईमानदार हो जाइये, सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा फिर किसी भगत सिंह या महात्मा गांधी या बाबा की जरूरत नहीं है, वैसे भी भ्रष्टाचार के हमाम में सभी नंगे है, बस कोई थोड़ा ज्यादा या थोड़ा कम. हमको अपने दिलों-दिमाग से सरकारी- गैर सरकारी नौकरी की बात हमेशा के लिए निकाल देनी चाहिए, क्योंकि वक्त से पहले से और किस्मत से ज्यादा कभी किसी को नहीं मिला है, ईमानदारी से अपना काम करते चलिए, सब कुछ अपने आप सुधरता जाएगा.

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

जिसकी लाठी उसकी भैंस

यही तो बात है कि जब तक किसी ने अपने सुर में सुर मिलाया, तब तक उससे अच्छा दुनिया में और कोई नहीं लगता, बस जैसे ही उसके सुर आपके सुरों से अलग हुए, तन बदन में आग लग जाती है। फिर अपना आपा खो बैठते है, अनाप- शनाप जो मुंह में आया बक देते है, फिर तो अपनी जिंदगी का एक ही लक्ष्य होता है कैसे इसको चुप कराया जाए। फिर जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत ऐसे ही थोडे बुर्जुगों ने बनाई होगी। जब लाठी हमारे पास है तो भैंस को कोई दूसरा कैसे अपना कह सकता है। गांधी जी में दम था तभी तो उन्होंने अंग्रेजों से भैंस रूपी देश को छीन लिया था, पर उसको कौन अपने खूंटे में बांधेगा, इस बात को लेकर नेहरू और जिन्ना में पंगा भी हुआ था। नेहरू चाहते थे वह मलाई खाएंगे, पर जिन्ना भी कम नहीं थे, लेकिन अब गांधी जी तो ठहरे अहिंसावादी, वह सब कुछ कर सकते थे, पर हिंसा नहीं। बेचारे गांधी जी को क्या पता था कि जिस भैंस को उन्होंने अंग्रेजों से मुक्त करवाया है उसको लेकर आपस में इतनी बड़ी जंग छिड जाएगी। थोडी ना-नुकूर के बाद उन्होंने भी जिन्ना को भी मलाई खाने लायक हिस्सा दे ही दिया। बस यही एक छोटी सी भूल सदियों की सजा बन गई। आज भारत हो या पाक दोनों ही संकट के दौर से गुजर रहे है। पाक आतंकी घटनाओं को लेकर विश्व समुदाय में निशाना बना हुआ है, तो भारत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को लेकर। दुर्भाग्य की बात है कि वर्षो से मलाई खाने वालों से जैसे ही इस देश की जनता ने हिसाब मांगा, वो आग-बबूला हो गए। बात अन्ना हजारे या बाबा रामदेव की नहीं है, वह तो केवल इस जनता की आवाज भर है। यहां पर पूरी तरह से जनता ही दोषी है, क्योंकि उसने आज तक इस बारे में कभी हिसाब नहीं मांगा। मांगती भी कैसे उसको मालूम ही नहीं था। पर जैसे-जैसे समझ बढ़ती गई, वैसे मलाई खाने वालों की करतूतें समझ आने लगी, पर क्योंकि लाठी रूपी सरकार नेहरू जी के वारिसों के पास ही है तो भैंस भी उनकी ही होगी। इस बात को उन्होंने साबित भी कर दिया। गांधी जी के बताए रास्ते पर चलते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन करने वाले अन्ना हजारे से कोई परहेज नहीं है, पर जब बाबा रामदेव ने सत्याग्रह शुरू किया तो रात के अंधेरे में पूरी दुनिया को दिखा दिया कि लाठी में कितनी ताकत होती है। मेरी नजर में अन्ना हजारे हो या बाबा रामदेव दोनों में से कोई भी दोषी नहीं है, क्योंकि इन दोनों ने जिस आंदोलन की शुरूआत की है, उसकी सफलता से इनको किसी भी तरह का व्यक्तिगत लाभ नहीं होने वाला है। हां अगर लाभ की बात आती है तो वह होगा आने वाली पीढ़ी को। यह लडाई बहुत लंबे समय तक चलने वाली है, क्योंकि जब नस-नस बीमार हो चुकी हो, तो इलाज भी लंबा ही चलेगा। जहां तक बात है व्यक्तिगत लाभ की तो आज अन्ना हो या बाबा दोनों ही उस स्थिति में पहुंच चुके है, जहां पर वह आराम से अपना शेष जीवन व्यतीत कर सकते है। इन दिनों कुछ सवाल बहुत तेजी से आ रहे है, जब तक बाबा रामदेव ने आंदोलन शुरू नहीं किया था तब तक वह बहुत ही अच्छे नागरिक थे, दुनिया में भारत का गौरव थे। पर जैसे ही उन्होंने सरकार से इस बात का हिसाब मांगा कि बताइए कितने की मलाई खाई है, उसका हिसाब चाहिए, तो वह सरकार के नंबर वन दुश्मन हो गए, उनका दाहिना हाथ बालकिशन विदेशी मूल का निकल गया। यह तो सबसे अच्छी बात है कि जब तक अपने पक्ष में बातचीत हो तो अच्छा, नहीं तो लाठी का इस्तेमाल करते हुए उसको दुश्मन नंबर वन घोषित कर दो। लेकिन कांग्रेस यह भूल रही है, इस देश की जनता अब जाग चुकी है, इस देश का मीडिया सुधर चुका है, वह जानता है कि आखिर जनता चाहती क्या है, क्योंकि मीडिया समाज का आइना होता है, जब आइना साफ हो तो समाज की धुंधली तस्वीरें भी बहुत साफ नजर आती हैं। यहां पर कांग्रेस यह सकती है कि उसने आजादी के बाद से लेकर आज तक देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दुनिया के सामने भारत को मजबूत स्थिति में लाकर खड़ा किया हैं। लेकिन कौन होगा जो उनको याद दिलाए कि बाकी की छोडि ए संसद पर हमला हो या मुंबई में ताज पर हमले के दोषियों को आज तक क्यों मेहमान बना कर रखा हुआ है। क्या वह अन्ना हजारे या बाबा से ज्यादा प्यारे है। अगर देश का समुचित विकास कांग्रेस ने ही किया है तो आज बेरोजगारी क्यों अपने चरम पर पहुंच गई, महंगाई दिनो-दिन क्यों बढती जा रही है। हिंसात्मक घटनाओं में तेजी आती जा रही है। किसी भी जनहित की योजना या विश्व स्तरीय आयोजन में भ्रष्टाचार की बू क्यों जाती है। जब सारे अच्छे कामों का श्रेय कांग्रेस लेना जानती है तो इन बातों का जवाब देना भी कांग्रेस की जिम्मेदारी बनती है। लेकिन अभी तक के हालात तो यही कहते है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। आज लाठी कांग्रेस के पास है, वह जो चाहेगी वह होगा। लेकिन 2014 में जब लाठी जनता के हाथ में आएगी, वह खुद ही तय करेगी अगली बार लाठी किसके हाथ में देनी हैं। कुल बात यह है कि इस देश जनता को ही तय करना है कि कौन गलत है और कौन सही। फिलहाल अन्ना हजारे और बाबा सही रास्ते पर है, तो कांग्रेस भी सही कदम उठा रही हैं क्योंकि सरकार बचाना और चलाना उसकी जिम्मेदारी बनती है, क्योंकि अभी लाठी उसके पास है

सोमवार, 18 जुलाई 2011

खामोश निगाहें

खामोश निगाहें,
सिले हुए होंठ,
न जाने
क्या ढूंढ़ते है
इस जमीं पर
हर रात को
चांद को देख
मन में जागती
एक आस
अपना भी हो
कोई चांद जैसा
शांत-चंचल चित्तचोर
जो चुरा ले मेरे सीने से
मेरा क्रोध, मेरी नफरत
जिसने छीन ली
मुझसे मेरी इंसानियत
अब तो बस
चांद से करते है गुहार
कोई मिल जाए
और मुझे भी बना दे
चांद जैसा
शांत- शीतल
और ले आए
इस तपती
झुलसती जिंदगी में
प्यार की शीतल बहार

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

अगर मैं एडिटर होता तो'

ऐसे ही खाली बैठे-बैठे बचपन में पढ़ाई के दौरान एक निबंध का शीर्षक याद गया ‘अगर मैं भारत का प्रधानमंत्री होता तो'. जैसे ही यह शीर्षक याद आया, तुरंत दिमाग ने सचेत किया, अरे भाई आज ब्लॉग लिखने का विषय मिल गया ‘अगर मैं एडिटर होता तो'. अब यही शीर्षक मेरे दिमाग में क्यों आया, इसकी वजह साफ है कि मैं मीडिया से जुड़ा हुआ हूं.

वर्तमान में मेरी जिंदगी का अधिकांश समय मीडिया के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है, फिर मुझे राजनीति के बदलते स्वरूप से परहेज है, साथ ही आज समस्याओं के भंवर में फंसे हुए राष्‍ट्र को बाहर निकालने के लिए राजनीतिज्ञों की नहीं, बल्कि मीडिया की सकारात्मक भूमिका की आवश्यकता है, क्योंकि सिर्फ मीडिया ही समस्याओं के विरूद्घ आम आदमी को मजबूती से खड़ा करने में सक्षम है. अब आम आदमी को खड़ा करने की जरूरत यहां पर इसलिए हो जाती है कि हमारा देश लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत चलता है और वहां पर सरकार का चुनाव आम आदमी करता है, इसलिए आम आदमी को जगाना जरूरी हो गया है.

यह क्या, मैं विषय से ही भटक गया, मैं लिख रहा था कि ‘अगर मैं एडिटर होता तो... किसी भी मीडिया हाउस में एडिटर बनते ही मेरा सबसे पहला काम होता, अपने सहकर्मियों को सुबह की मीटिंग से मुक्त करना. ताकि वह हर सुबह तरोताजा होकर जब घर से निकले तो उनके दिलो-दिमाग में मीटिंग का भय न हो. मीडिया क्षेत्र में काम करने और जनसमस्याओं को सोचने और समझने का सबसे बेहतरीन समय दोपहर तक ही होता है, जब उस बेहतरीन समय का दुरूपयोग हम निरर्थक की बातों में ही कर देंगे तो जनसमस्याओं को समझना तो दूर उनके बारे में सोच भी नहीं सकते.

मैं अपनी टीम में सिर्फ जोश-जज्बे और कर्मठ और योग्य व्यक्ति को ही जगह देता. इसके लिए उनको 20-25 दिन का समय जरूर देता, उसके बाद उनके साथ किसी भी प्रकार की रियायत नहीं करता. क्योंकि हम जिस फील्ड में है, उसी फील्ड की कार्यशैली से समाज की दशा व दिशा तय होती है. यह कोई हंसी-मजाक का खेल नहीं है. इस फील्ड में आज तो आज पर अमल होता है, कल कुछ नहीं. दूसरी सबसे बड़ी बात काम के समय में सिर्फ काम की नीति पर अमल करना और करवाना. जो इस नीति पर असहमत होते, उनके लिए और भी दूसरे काम है करने के लिए, उनकी मेरी टीम में कोई जगह नहीं होती. साथ ही दूसरा हर बड़ी समस्या का मुकाबला खुद सामने खड़े होकर करता न कि दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना लगाता.

बड़ी अजीब सी बात है कि मीडिया ही नेता बनाता है और बाद में नेता ही मीडिया को चलाता है. राजनेताओं को मीडिया की अहमियत का अहसास कराने के लिए, उनके उन खबरों पर पूर्ण रूप से रोक लगाना, जिन्हें राजनेताओं द्वारा अपने फायदे के लिए प्रकाशित किया जाता है या मीडिया को माध्यम बनाकर आम आदमी को बेवकूफ बनाया जाता है. वरना एक इंसान की इतनी हैसियत नहीं है कि बगैर मीडिया के सहयोग वह लाखों-करोड़ों में चर्चित हो जाए. एक साधारण व्यक्ति को जब मीडिया घर-घर के आम आदमी तक पहुंचाने की औकात रखता है तो उसको धूल चटाने का जज्बा भी मीडिया के पास ही सुरक्षित है. और वर्तमान में इस जज्बे का इस्तेमाल जरूर करता और करवाता. आज समस्याओं के भंवर में फंसे हुए समाज को बाहर निकालने के लिए इसी जज्बे की जरूरत है.

सोमवार, 11 जुलाई 2011

बस यूं ही

बस यूं ही चलता जा रहा हूं
अनजाने रास्तों पर
न जाने किस मोड़ पर
जिंदगी की शाम हो जाए
एक खुशी की तलाश में
गम को गले लगाता जा रहा
एक सुबह के इंतजार में
काली स्याह रातों से लड़ता जा रहा
जिधर भी दिखती उम्मीद की किरण
उधर ही मुड़ जाते कदम मेरे
तेजी से उठते कदम अचानक थम जाते
संभल जाता मैं, जब दिखाई देता इंसान
मैंने पूछा, क्या तलाश कर रहे हो
वह बोला, इंसानियत को ढूंढ रहा हूं
न जाने कहां खो गई, या मर गई
नहीं पता चल रहा है, कुछ मदद करो
मैंने कहा, अपने दिल से पूछो
मैं क्या बता सकता हूं और फिर
मैं चल पड़ता उन अनजाने रास्तों पर
जहां से शायद ही कभी वापस लौट सकूं
बस यूं ही चलता जा रहा हूं
एक खुशी की तलाश में
गम को गले लगाता जा रहा हूं.

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

क्या मिलेगा शराब पर प्रतिबंध लगाकर

समझ नहीं आता शराब पर प्रतिबंध लगाकर क्या मिल जाएगा. शराब ही तो वह माध्यम है जो समाज के हर वर्ग में समानता का अहसास कराती है. बस फर्क है तो शब्दों का, अमीर ने पी तो ड्रिंक की और गरीब ने मुंह से लगा दिया तो दारूबाज. फिर शराब ही तो है जो आदमी के हर दु:ख-दर्द को भुला देती है. वैसे भी उसके दु:खों को दूर करना किसी के बस में नहीं है. अच्छा ही है वह शराब पीकर अपने दु:खों को भूल रहा है. शराब में वह शक्ति है कि चूहे को शेर बना देती है. फिर जब चूहा दो घूंट पीकर शेर बन सकता है तो किसी को क्या परेशानी. दूसरा शराबी के पास पेट भरने के लिए भले ही रोटी का जुगाड़ न हो, पर पीने के लिए हमेशा जेब में पैसे मिल जाएगे. यही शराब को अलग बना देती है. फिजूल में ही शराब पर प्रतिबंध लगाने की कवायद समय-समय पर होती रहती है. अगर शराब पर प्रतिबंध लग गया तो उनका क्या होगा, जो शराब के धंधे में लगे हुए है, क्या वह बेरोजगार नहीं हो जाएगे. उनके लिए रोजगार उपलब्ध कराना सबसे बड़ा सिर-दर्द बन जाएगा. वैसे ही यहां बेरोजगारों की गिनती दिन-दुगुनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है. अच्छा ही तो है शराब से जुड़े हुए कम से कम किसी को परेशान तो नहीं करते. यह अलग बात है कि कितने अब तक शराब की भेंट चढ़ गए. अब शराब को गले लगाना है तो किसी तो त्यागना होगा. और शराबी से बड़ा ईमानदार कौन होगा, जो सब कुछ छोड़ सकता है, पर शराब नहीं छोड़ सकता, भले ही इसके लिए वह अपने घर-परिवार को दांव पर लगा दें. फिर शराब बंद हो गई तो हमारे नेताओं का क्या होगा, क्योंकि शराब बंद होने के बाद आम जनता की चेतना जागृत हो जाएगी. अगर चेतना जागृत हो गई तो वह अपना हक मांगेगे, जिसको पूरा करना नेताओं के बस में नहीं है. एक बेरोजगार शराब में नशे में अपना गम भुला रहा है तो किसी को क्या दिक्कत. शराब पर प्रतिबंध लग गया तो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पुलिस वालों के दिल भी पर चोट लगेगी, उनकी नाराजगी को झेलने की हिम्मत कौन दिखाएगा. फिर सरकार के खजाने का क्या होगा. शराब की वजह से उसका खजाना भरा रहता है. शराब बहुत तेजी से अपना असर दिखाती है, शराब के व्यवसाय में लगे व्यक्ति जितनी तेजी से अमीर होते जाते है, उतनी ही तेजी से शराब पीने वाला मौत की ओर. वैसे भी हमारा उद्देश्य गरीब को हटाना गरीबी को नहीं. फिर इससे अच्छा दूसरा कौन उपाय है, गरीब को दूर करने का. ‘हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा. वैसे ही शराब हमारी सम्पन्नता की प्रतीक है. खुद ही देखिए खुशी के मौके पर शराब न परोसी जाए तो उसको मेजबान को दकियानूसी समझा जाता है, फिर कौन ऐसा होगा जो खुद को दकियानूसी कहलाना पसंद करेगा. सालों-साल किसी की खुशी में शामिल होने के लिए अपनी हैसियत से अधिक खर्च करके उसकी खुशियों को चार चांद लगाने पहुंचे चांद को अगर शराब न मिले तो उसका मन दु:खी नहीं होगा. और हम अपने मेहमान को दु:खी कैसे कर सकते है. समझ नहीं आता है क्यों आए दिन शराब पर प्रतिबंध लगाने की बात की जाती है. शराब बंद होते ही समस्याओं का अंबार लग जाएगा. और पहले ही इतनी समस्याएं है कि उनका तो हल निकलता नहीं, और नई समस्याओं के लिए दरवाजा खोल दें