शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

पानी न बिजली फिर भी पहाड़ से लगाव

वर्ष 1947 में बारह के गजर के साथ आधी रात को जब यह मुल्क आजाद हुआ, उन दिनों भी पहाड़ की औरतें पानी भरने के लिए मीलों दूर जाती थीं और जब इस देश ने अपना संविधान बनाया, जब हम गणतंत्र हुए-तब भी ये औरतें पानी भरने को मीलों दूर जाती हैं. पानी भरना उनके लिए फुलटाइम जॉब है, क्योंकि पानी का घनघोर अकाल है. पाताल चला गया है. पानी लाना जरूरी है क्योंकि बच्चों और परिवार को खाना कैसे मिलेगा? क्या बिना पानी के दाल बन सकती है? रोटी बन सकती है? नहाना-धोना हो सकता है? पानी उनके लिए लाक्षागृह है जिसकी बुनावट रोज की सिरदर्दी है और उन्हें इस सिरदर्दी से रोज दो-चार होना है. न सिर्फ दो-चार होना है, बल्कि फतह भी पानी है. उत्तराखंड के लिए वक्त ठहर गया है और हम मस्त हैं कि इस देश में अब हमारा कानून चलता है, कि हम आजाद हैं, कि इस मुल्क में हमारे अपने कायदे-कानून हैं, जिनसे यह संप्रभु राष्ट्र संचालित होता है. उत्तराखंड की औरतों का जवाब कानून की किस किताब में मिलेगा? उत्तराखंड जहां कल था, वहीं आज भी है. गुरुत्व जड़ता का नियम उस पर क्यों नहीं लागू होता? ये औरतें आज पुरु ष के मरने तक की दुसह पीड़ा झेलने को तैयार हैं, कल को अपनी आजादी की कामना के तराने गाएंगी, परसों वे बहुत आसानी से पूछ सकती हैं-यह मुलुक क्या होता है जी और कैसे बनता है कोई मुलुक? है किसी के पास इस सवाल का जवाब? अपने ही मुलुक का हिस्सा है. राजनीति के मकडज़ाल में फंसे उत्तराखंड में जैसे हालात केदारनाथ आपदा के समय थे, ठीक वैसे ही हालात आज भी है. जहां-तहां पहाड़ खिसक रहे है, मैदानी इलाके बरसात के पानी में डुबकियां लगा रहे है. जन-जीवन अस्त-व्यस्त सा है. पहाड़ों को चीर कर बनाई गई आधी-अधूरी सड़के इंसानों को चीर रही है. आए दिन फटते बादलों ने इंसानों में वो खौफ पैदा कर दिया है कि गांव के गांव खाली होते जा रहे है. श्रीदेवसुमन से लेकर हेमवती नंदन बहुगुणा और विकास पुरुष एनडी तिवारी की जन्मभूमि रहा-यह सूबा. आज भी संपूर्ण विकास से अछूता है. विकास के नाम पर जिन क्षेत्रों के तराने गाए जाते है, वो भी मुख्य मार्गो पर ही स्थित है. दूरस्थ इलाकों के हालातों की कहानी तो तब बयां हो, जब वहां तक आने-जाने के साधन हो. मीलों दूर पहाड़ों में चढऩे-उतरने के बाद इतनी भी हिम्मत नहीं होती दो पल चैन से बैठकर हालात को समझा जाए. स्कूल है तो मास्साब नहीं, मास्टर जी है तो बच्चे नहीं. आखिर यह कैसा उत्तराखंड है. पानी न बिजली फिर पहाड़ से लगाव. अपना घर अपना ही होता है. लेकिन घर में खाना पकाने को लकड़ी के चलते जंगल-जंगल काट डाल गए. जंगली जानवर आबादी में घुसे चले जाते है. अगर सच में आजादी मिलने और उत्तराखंड राज्य बनने के बाद विकास कार्य किए गए होते तो पहाड़ से पलायन रुक जाना चाहिए था, वहां के औसत आदमी के पास जरूरत के हिसाब से आय के साधन होने चाहिए थे. कितना आसान होता है, लालकिले से यह कहना कि हम चौतरफा संकट में हैं, कि आंतरिक उग्रवाद हमारे लिए आतंकवाद से भी गंभीर समस्या है और कितना त्रासद होता है बुनियादी जरूरतों का सपना बन जाना? इस भाषणभक्षी देश को वाकई यह समझाना बहुत जरूरी है कि चिल्लाना क्यों और कब लाजिमी हो जाता है? कैसा है यह ताना-बाना जिसमें तिलिस्म बेशुमार हैं और सपनों को परवाज मिल पाने के मौके गाहे-बगाहे? जो गूंजेंगे, वे बेशक सवाल ही होंगे- चाहे गोली की शक्ल में हों या गाली की. पहले यह तय तो हो कि घर को बचाना जरूरी है, सजाना तो बाद का काम होता है.

रविवार, 24 जुलाई 2016

अपशब्दों का प्रयोग मतलब बहादुरी

इंसान को पता नहीं क्या हो गया है, वह आम बोलचाल में भी अपशब्दों का बेधड़क इस्तेमाल ऐसे करता है जैसे बहुत ही बहादुरी का काम हो. घर हो या ऑफिस या फिर कहीं भी वह मुस्कराते हुए अमर्यादित शब्दों की ऐसी बौछार करता है, जैसे अमृतवाणी हो. कहा जाता है जैसा अन्न खाए, वैसी ही वाणी बोले. अब इसमें अन्न का क्या दोष. क्या रोटी-सब्जी, दाल-चावल, चीनी ने कहा कि मुझको खाओ और अव्यवहारिक शब्दों का ज्ञान बढ़ाओ. समझ में नहीं आता है इंसान अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय फिजूल में दूसरे पर आरोप लगाने से कब बाज आएगा. इन शब्दों के फलस्वरूप पता चलता है कि इंसान का दिमाग कितना तेज है, क्योंकि इन शब्दों को सिखाने के लिए किसी स्कूल या ट्रेनिंग  की जरूरत भी नहीं होती और न ही ऐसा कुछ सीखने के लिए कोई कहता है.  जिसके पास अपशब्दों का जितना बड़ा भंडार होता है, वह उतना ही बहादुर माना जाता है. मजेदार बात यह है कि इनको किसी भी ग्रंथ में संग्रहित नहीं किया गया है, फिर भी यह इतने प्रचलित हैं कि बच्चा-बच्चा इन शब्दों को जानता है, फिर जब वह तोतली जुबान से इनको अपने मुंह से बाहर निकालता है, तब हमको बहुत आनंद मिलता है और बच्चे से बार-बार कहते हैं, बेटा अंकल को सुनाओ, तुमने अभी क्या कहा था और अंकल भी ऐसे कि वह फूल कर कुप्पा हो जाते है, अरे भाई बहुत अच्छा बेटा बाप पर गया है. अब बालमन पर इस बात क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो आने वाले वक्त में उस बालक के पिता को अपने जीते-जी ही पता चल जाता है. मीडिया और फिल्म वाले भी इन अपशब्दों की महिमा से अछूते नहीं रह सके. ऐसा उनकी फिल्मों या टीवी सीरियल्स को देख या सुनकर महसूस किया जा सकता है. जिसमें जितने ज्यादा अपशब्दों का प्रयोग होगा वह उतना ही हिट होगा. जहाँ हर शहर, हर गांव, हर घर में सुबह-शाम शुद्घ वातावरण में भगवान की पूजा होती हो, जहां बड़े बुजुर्ग हरिनाम के सहारे अपना जीवन व्यतीत करते हुए अपने अनुजों को ईश्वर की भक्ति में रमने का संदेश देते हो, वहां पर इन अपशब्दों को कैसे जगह मिल जाती है, जबकि सभी जानते हैं कि हम जो बोल रहे हैं, दूसरा हमारे लिए भी कह रहा होगा. यह जानते हुए भी हम इन पर रोक लगाने में नाकाम साबित हो रहे हैं. समझ में नहीं आता है कि जो हमको सीखना है, जो हमको करना है, जिसकी वजह से हमारा छोटा-सा घर-संसार स्वर्ग जैसा बन सकता है, उस पर ध्यान न देकर, इन फिजूल के अपशब्दों में अपनी ऊर्जा लगा देते हैं,  जबकि इन अपशब्दों के प्रयोग के बिना भी हम अपने रोजमर्रा के कामों को बेहतरीन तरीके से करते हुए, बेहतर जीवन बिता सकते हैं. पर पता नहीं क्यों हम ऐसा नहीं कर पाते. अब इसमें माहौल या खान-पान का क्या दोष. समझ में नहीं आता कि आखिर यह अपशब्द इतिहास के पन्नों में दफन होंगे भी या ऐसे ही दिनों-दिन फैलते हुए समाज को दूषित करते रहेंगे.