जितनी तेजी से हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं बदल रही है, उतनी ही तेजी से संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवार में बदल रहे है. जब किसी भी चीज के टूटने का क्रम शुरू होता है, वह अपने अंतिम समय तक टूटती रहती है, फिर उसको कितना भी बचाओ, उसकी दरारे गहराती ही जाती है. क्योंकि जिस प्रकार कांच के टुकड़ों को कितना भी जोड़ा, दरारे साफ नजर आती है. परिवार इंसानों से ही बनते है और आज इंसान अपनी रोजी-रोटी के लिए यहां-वहां भटक रहा है. ऐसे में अगर एक बार अपने घर-परिवार से कदम बाहर निकले तो समझो, यह कदम शायद ही अगले 30 – 40 साल तक वापस अपने घर में लौटेंगे. फिर इतने समय में बच्चे दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ या नाना-नानी, मौसी या मामा के प्यार को बेगाने माहौल में परायों के बीच ढूंढते हुए इतने बदल जाते है कि वह अपने संस्कारों को अपनाने से भी डरते है. आज सबसे बड़ा ज्वलंत सवाल सामने आ रहा है शादी के कुछ महीनों या सालों बाद तलाक का. इसकी वजह साफ नजर आती है, दो इंसानों की सोच एक नहीं हो सकती है. इस सोच को एक करने के लिए जिस माध्यम की सबसे बड़ी भूमिका होती है वह है संयुक्त परिवार. पति रूठे तो भाभी ने मनाया, पत्नी रूठी तो ननद ने प्यार से समझा दिया. ज्यादा हुआ तो सभी ने मिल बैठ कर बीच का रास्ता निकाल दिया और बच गया वह छोटा सा घरौंदा जिसको अभी जीवन के अनगिनत पहलुओं से रूबरू होना है. अब इसे संयुक्त परिवार का डर कहो या प्यार, कि नए-नवेले रिश्ते टूटने की बजाए और मजबूत हो जाते है. बस यही बात आज के एकल परिवारों में नहीं हो सकती है, जहां पति-पत्नी में जरा सी बात पर मनमुटाव क्या हुआ, वही इस जरा सी बात को पहाड़ बनाने के लिए इतने हमदर्द मिल जाते है कि दोनों को पति-पत्नी के रूप में जीवन बिताना नरक जैसा लगने लगता है, फिर इसकी परिणति तलाक के रूप में ही सामने आती है. रोजगार की तलाश में दूसरी जगह पर एक छोटा सा घर या बड़ा सा मकान तो बनाया जा सकता है और उसको पैसे की ताकत के बल पर बाह्य सुखसुविधा की हर वस्तु से सुसज्जित भी किया जा सकता है. लेकिन उसको अपने परिवार की खुशबू से नहीं महकाया जा सकता. साथ ही उसमे बचपन के खट्टे-मीठे यादगार लम्हों को महक भी नहीं होती. अगर संयुक्त परिवारों में नहीं रहना हमारी मजबूरी है, तो हम अपने एकल परिवारों में अपने बच्चों के लिए छोटा सा परिवार तो बनाकर रख ही सकते है, जहां वह दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार की छांव में खेलते-कूदते और संस्कारों को सीखते हुए बड़े हो, (भले ही कुछ समय के लिए) वैसे भी बच्चों का गांव वह होता है, जहां पर उनके दादादानी या नानानानी का घर. संयुक्त परिवार तो टूटने के कगार पर है ही पर हम अपनी कोशिशो से एकल परिवारों में संयुक्त परिवारों की खुशबू तो महका ही सकते है. अब यह हमारी सोच पर निर्भर करता है कि आखिर हम चाहते क्या है?
सोमवार, 18 अप्रैल 2022
शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022
गुरु जब सर हो जाए...
प्राचीन काल में भारत में स्थित शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ केंद्रों को विदेशी आक्रमाणकारियों ने नष्ट किया होगा या नहीं, यह बात इतिहास के पन्नों तक ही सीमित है लेकिन वर्तमान में भारत में शिक्षा व्यवस्था की बदहाली के लिए सरकारें ही जिम्मेदार है। शिक्षा के संबंध कोई ठोस नीति नहीं है। साल दर साल बदलने वाले पाठ्यक्रमों के चलते हमेशा दुविधा में रहने वाले बच्चे व अभिभावकों के साथ ही शिक्षकों को भी पता नहीं चलता कि आखिर करना क्या है? राज नेताओं ने अपने तात्कालिक फायदे के लिए इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हुए न जाने कितने पन्नों को किताबों से गायब करवा दिया और न जाने कितने पन्नों को जुड़वा दिया. सरकारों की शिक्षा के प्रति उदासीन रवैये को बताने के लिए यहां-वहां खंडहर हुए प्राथमिक विद्यालय और राजनीति के अखाड़े बने विश्वविद्यालय कैंपस बयां करने के लिए काफी है. ऐसा भी तब है कि जब एक शिक्षक डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के साथ-साथ बचपन में अखबार बेचकर कर पढ़ाई करने वाले मिसाइल मैन डा. एपीजे अब्दुल कलाम देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर चुके हो. यह बात समझ नहीं आती है कि आखिर जो देश शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रह चुका हो, जहां के नागरिकों ने बदहाली में जीवन-यापन करते हुए महत्वपूर्ण पदों को संभाला हो, वहां आज भी शिक्षा व्यवस्था बदहाल सी ही दिखती हो. इच्छा शक्ति का अभाव और राजनीतिक हीलाहवाली के चलते हमारा भविष्य क्या होगा, यह बात तो आने वाला भविष्य ही बताएगा, लेकिन फिलहाल तो हालात चिंता का विषय है ही.
जब विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक सत्र तक नियमित न कर पाते हो. सरकारे विश्वविद्यालयों को सामान्य स्तरीय सुविधाए तक देने में आनाकानी करती हो. तब ऐसे में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है वो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएगे. न फैकल्टी न स्टूडेंट्स के बैठने के लिए क्लास रूम और न ही पर्याप्त सुविधाए. बस धकापेल एडमिशन और फीस का घालमेल. भारत रहा होगा कभी विश्व मे शिक्षा का केन्द्र, लेकिन अब तो विश्वविद्यालय कैंपस राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर तब्दील होते जा रहे है. जिस दौर में गुरुओं की जगह सर ने ले ली हो, उस दौर में सिर ही उठेंगे, उन सिरों में क्या होगा, यह गुजरे समय की बात हो चुकी है. वह दौर और था जब गुरु को सर्वोपरि माना जाता था, लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण के चलते गुरु -शिष्य की परंपरा खत्म सी हो गई है. अब पैसे के दम पर हासिल की गई शिक्षा में गुरु-शिष्य वाली जैसी कोई बात नहीं हो सकती है.