गुरुवार, 31 मार्च 2016

गलतियां खुद की और आरोप दूसरों पर

20टी विश्वकप में भारत-आस्ट्रेलिया मैच में विराट कोहली की धमाकेदार पारी की धूम है. लेकिन कही अगर ओवर ही समाप्त हो जाते तो विराट भी क्या कर लेते. वह तो समय से पहले संभल गए और कंगारुओं की बैंड बजा दी. बात इतनी सी है कि कामयाबी के लिए समय से पहले संभल जाना ही बेहतर होता है. समय बीत जाने के बाद हाथ मलने के सिवाय कुछ नहीं बचता. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत अगर समय से पहले अपने विधायकों को मना लेते तो शायद राज्य में राष्ट्रपति शासन की नौबत ही न आती. विधायक बागी हो गए. मुख्यमंत्री ने विधानसभा अध्यक्ष से बागियों की सदस्यता खत्म करने की गुहार लगा दी. उधर केंद्र की भाजपा सरकार ने विधायकों की विधायकी बचाने के लिए विधानसभा को निलंबित करने का निर्णय करने में कुछ घंटे की देरी क्या की, उधर विधानसभा अध्यक्ष ने उनकी विधायकी निरस्त करने का फैसला सुना दिया. उत्तराखंड के प्रकरण में गलती खुद कांग्रेस की और दोष मढ़ दिया विपक्षी भाजपा पर. कांग्रेस खुद अपने विधायकों को संतुष्ट में नाकाम साबित हुई. यूं भी तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्षियों की मंशा तो सरकार को गिराने की ही रहती है. लेकिन जब पक्ष में ही फूट पड़ जाए तो कहने ही क्या, सोने पर सुहागा. सत्ताशीन कांग्रेस की आपसी फूट को हाथोहाथ लेते हुए विपक्षी भाजपा ने भी सरकार पर हमला बोल दिया. उस पर भी केंद्र में ही जब भाजपा ही काबिज हो. तब ऐसे में केंद्र का समर्थन तो मिलना ही था. कहते है न समय कभी किसी एक का नहीं होता. उसका चक्र घूमता रहता है, कभी इस ओर तो कभी उस ओर. आज हरीश रावत अपने बागियों पर आरोप लगा रहे है कि उन्होंने पार्टी की मर्यादाओं को तोड़ा है, तो शायद रावत यह भूल गए कि उन्होंने भी केंद्रीय मंत्री रहते हुए तीन साल पहले अपनी ही पार्टी विजय बहुगुणा को कुछ इसी अंदाज में मुख्यमंत्री पद से विदा करवाया था. तब हरीश रावत सही थे तो आज विजय बहुगुण और बागी भी सही है, अगर आज कांग्रेस के बागी विधायक गलत है तो उस समय हरीश रावत भी गलत थे. गलतियां खुद की और आरोप दूसरों पर, यह तो पुरानी आदत है, क्या करें उत्तराखंड का दुर्भाग्य कहे या नेताओं की पहाड़ जैसी महत्वकांक्षाएं और उनके बोझ तले दबे पहाडि़यों के सपने. आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो का नारा बुलंद न होता तो शायद आज पहाडि़यों को यह दिन न देखना पड़ता. अभी भी संभला जा सकता है, शायद विराट कोहली की धमाकेदार पारी से कुछ ही प्रेरणा मिल जाए और चुनाव के वक्त पहाड़वासी अपने मत का प्रयोग ईमानदारी से करके उत्तराखंड की तस्वीर और तकदीर ही बदल डाले. बस इसी इंतजार में.

बुधवार, 23 मार्च 2016

.... फिर भी आजादी चाहिए

अन्ना हजारे की तुलना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से करने का परिणाम देखा है. दिल्ली की गद्दी के चक्कर में अन्ना और उनके विचारों को उनके अनुयायियों ने ही फ्रीज कर दिया. तो इस बात की क्या गारंटी है कि आज कन्हैया की तुलना शहीद भगत से करने वाले भविष्य में कन्हैया और उसकी विचाराधारा को बट्टे-खाते में नहीं डाल देंगे. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और शहीद भगत ने उस दौर में आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया जब भारतीयों पर अंग्रेजों के अत्याचारों की अति हो गई थी. लेकिन आज अन्ना हो या कन्हैया इन दोनों को अपनी पहचान तक जिंदा रखने के लिए भारत की महान विभूतियों के नामों का सहारा लेना पड़ रहा है. मजेदार बात यह है कि जिस कांग्रेस के पथप्रदर्शक महात्मा गांधी रह चुके हों उसी कांग्रेस के नौनिहालों को राजनीति की महाभारत में कन्हैया को पोस्टर ब्वॉय बनाना पड़ रहा है. इस बात को समझना होगा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और शहीद भगत सिंह जो भारतीयों के लिए कर गए हैं, उसके बाद किसी भारतीय के लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है. बाकी तो सब आजाद है.....  फिर भी आजादी चाहिए. है न अद्भुत, गजब.

सोमवार, 7 मार्च 2016

हद कर दी आपने...

गैर भाजपाइयो ने तो हद ही कर दी, कम से कम उनको जनमत का तो सम्मान करना ही चाहिए. उन्हें याद रखना चाहिए भाजपा ने अपनी मर्जी से नहीं जनमत से सरकार बनाई है और वो भी प्रचंड बहुमत से. जनमत को नकारने के परिणाम असहनीय होते है. जिस पीएम को दुनिया हाथो-हाथ ले रही है उसको विपक्ष कुछ समझता ही नही. प्रधानमंत्री पद का आदर और गरिमा जैसे शब्दों की तो बात ही करना बेकार है. दूसरी ओर जेएनयू से भले क्रीम निकलती हो, लेकिन उस क्रीम का क्या फायदा जो साठ साल से देश के चेहरे पर चमक तक न ला पाए. देश भर के होनहारों को एक परिसर मे एकत्र करके कहते है यह अव्वल दर्जे की यूनिवर्सिटी है. फिर कांग्रेस की सरकार प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के नाम पर स्थापित यूनिवर्सिटी के बदनुमा राजों को जगजाहिर भी करती तो कैसे?
न्यूज चैनल्स तो कन्हैया को ऐसे कवर रहे है कि वो जेल से जमानत पर नही पीएम मोदी को चुनाव मे हरा कर आया है और बस पीएम पद की शपथ ग्रहण करना बाकी है. जरूरत से ज्यादा मीडिया कवरेज दिमाग खराब कर देती है. रिसर्च स्कॉलर कन्हैया को भी समझना चाहिए कि शब्दों की चाशनी से नारे तो बनाए जा सकते है लेकिन सच को झूठ और झूठ को सच नही बनाया जा सकता. वह जिस गुलामी से आजादी के लिए क्रांति की मशाल उठा रहा है उसको बढावा कांग्रेस ने ही दिया है. सब कुछ ठीक है, हर बात को पचाया जा सकता है, लेकिन इस बात को कैसे मान लिया जाए कि देश के नामीगिरामी विश्वविद्यालय में देश विरोघी नारे लग जाए और राजनेता उन युवाओं को दंडित या समझाने की बजाय उस प्रकरण का पोस्टमार्टम करने पर उतारू हो जाए. जिन सांसदों ने जनमत का सम्मान नहीं किया वह सरकार की क्या सुनेंगे. चलो मान लिया जेएनयू प्रकरण में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने झूठ ही कह दिया कि हाफिज के इशारे पर भारत के खिलाफ नारेबाजी हुई. लेकिन विपक्ष का इस बात पर भड़कना और उनसे सबूत मांगना, वह भी उस शख्स के समर्थन में जो भारत का सबसे बड़ा दुश्मन है. सही नहीं है. किसी भी बात की हद होती है. इन लोगों को याद रखना चाहिए कि हाल ही में पाकिस्तान में एक शख्स को सिर्फ इसलिए जेल में डाल दिया गया कि उसने भारतीय क्रिकेटर के समर्थन में तिरंगा लहरा दिया था.