सडक, मेरे मोहल्ले के नुक्कड से जाती है न जाने कहां तक. सडक होती है जहां, खिलखिलाती है जिंदगी वहां और तडपती-बिलखती है वहां जहां नहीं होती है सडक. सडक ही तय करती है हम कहां तक जाएगे. अमूमन जहां सडक नहीं होती वहां कोई नहीं आता- जाता. जब तक जाना- आना होता है तब तक जिंदगी दम तोड देती है. पूर्वजों की झोपडियों को गांव, गांव कस्बे और कस्बों को शहर में बदलने वाली सडक पर ही बन रही है मेट्रो सिटी. जहां सडक नहीं होती वहां से पलायन हो जाता है. जब सडक लाने वाले नेता जी भी शहर में आशियाना बना लेते हो, तब गांव में पलायन कैसे रूकेगा. न पढाने- लिखाने को मास्साब और न दवा-दारू देने डाक्टर बाबू तब गांव में पैतृक भूमि का अचार डालने लायक पैसा कमाने को शहर जाना जरूरी होता है. लेकिन सडक होती नहीं और कंधे जवाबहीन हो जाते है, नेताजी को ढोते- ढोते. नतीजन जिंदगी दम तोड देती है. पृथ्वी से आकाश की उडान में भूख से दम निकल जाता है, तब भी जो बच्चे खुशी से चिल्लाते है वो मेट्रो सिटी में नहीं गांव की पगडंडियों पर ही नजर आते है. मजेदार बात यह है कि सरकार गांव वाले ही बनाते है. शहर फास्ट लाइफ स्टाइल में वोटिंग लाइन में खडे होने वक्त ही नहीं होता है. गांवों से बनी सरकार जब मेट्रो सिटी प्लान करती है तभी से गांव से पलायन की नींव पडनी शुरू होती है. गांव को चाहिए क्या, एक सडक- मतलब एक ढंग की सडक.
सोमवार, 27 दिसंबर 2021
सोमवार, 13 दिसंबर 2021
मौसम
गर्मी में बारिश का करता जो इंतजार.
निकलना है घर से
क्योंकि भरना है पेट
बाकी तो एसी में
ठंडा क्या गरम
एसी कहां प्रकृति
किसका मौसम
किसकी मस्ती.
पचा लेता है सब
क्योंकि ये पेट है,
कोई मौसम नहीं.
पेट तो पेट वो भी पापी.
-हरीश भट्ट
मंगलवार, 7 दिसंबर 2021
पीएम मोदी की कविता
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण में वो आकर्षण है, जो हर किसी को मंत्रमुग्ध कर देता हैं। देहरादून के परेड ग्राउंड में पीएम मोदी के संबोधन में भी यह जादू देखने को मिला। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जहां अपने भाषण की शुरुआत गढ़वाली बोली से की, वहीं अंत कविता की कुछ पंक्तियों से किया.
जहां पवन बहे संकल्प लिए,
जहां पर्वत गर्व सिखाते हैं,
जहां ऊंचे नीचे सब रस्ते
बस भक्ति के सुर में गाते हैं
उस देवभूमि के ध्यान से ही
उस देवभूमि के ध्यान से ही
मैं सदा धन्य हो जाता हूं
है भाग्य मेरा, सौभाग्य मेरा,
मैं तुमको शीश नवाता हूं,
मैं तुमको शीश नवाता हूं
और धन्य-धन्य हो जाता हूं।
तूम आंचल हो भारत मां का,
जीवन की धूप में छांव हो तुम,
बस छूने से ही तर जाए,
सबसे पवित्र, वो धरा हो तुम
बस लिए समर्पण तन-मन से
बस लिए समर्पण तन-मन से
मैं देवभूमि में आता हूं,
मैं देवभूमि में आता हूं
हे भाग्य मेरा, सौभाग्य मेरा
मैं तुमको शीश नवाता हूं।
मैं तुमको शीश नवाता हूं।
और धन्य-धन्य हो जाता हूं
जहां अंजुली में गंगा जल हो
जहां हर एक मन बस निश्छल हो
जहां गांव-गांव में देश भक्त
जहां नारी में सच्चा बल हो
उस देवभूमि का आशीर्वाद लिए
मैं चलता जाता हूँ।
उस देवभूमि का आशीर्वाद
मैं चलता जाता हूं,
है भाग्य मेरा, सौभाग्य मेरा
मैं तुमको शीश नवाता हूं।
मंडवे की रोटी
हुड़के की थाप
हर एक मन करता
शिवजी का जाप
ऋ षि मुनियों की है
ये तपो भूमि
कितने वीरों की ये जन्मभूमि
मैं देवभूमि आता हूं
मैं तुमको शीश नवाता हूं
और धन्य धन्य हो जाता हूं
मैं तुमको शीश नवाता हूं
और धन्य धन्य हो जाता हूं।
शनिवार, 27 नवंबर 2021
... तो मैं सलामी नहीं दूंगा: महात्मा गांधी
भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद जब मोहम्मद अली जिन्ना नए पाकिस्तान को संभालने के लिए कराची पहुंचे थे. तब गांधीजी लाहौर में थे. गांधीजी को जब मालूम हुआ कि तिरंगे से चरखे को हटाकर उसी जगह अशोक चक्र लाया जाएगा तो वो बहुत क्षुब्ध हुए. लाहौर में गांधीजी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के सामने नाराजगी का इजहार करते हुए कहा, "मैं भारत के ध्वज में चरखा हटाए जाने को स्वीकार नहीं करूंगा. अगर ऐसा हुआ तो मैं झंडे को सलामी देने से मना कर दूंगा. आप सभी को मालूम है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज के बारे में सबसे पहले मैने सोचा और मैं बगैर चरखा वाले राष्ट्रीय झंडे को स्वीकार नहीं कर सकता." ये बात गांधीवादी स्कॉलर और रिसर्चर एल एस रंगराजन ने कुछ साल पहले अपने एक लेख में उद्धृत की थी. दरअसल 22 जुलाई को संविधान सभा ने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में चक्र को चरखे के स्थान पर रखे जाने पर मुहर लगा दी थी.
गांधीजी क्षुब्ध मन से आठ अगस्त को ही लाहौर से पटना के लिए रवाना हो गए. जब आजाद भारत के राष्ट्रीय ध्वज की बात 1947 में संविधान सभा के सामने आई तो गैर कांग्रेसी सदस्यों ने तिरंगे में चरखे पर एतराज जाहिर किया, उनका कहना था कि ये चरखा वाले तिरंगा तो एक राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का झंडा है, उसे किसी राष्ट्र के लिए कैसे स्वीकार किया जा सकता है. डॉक्टर बीआर अंबेडकर संसद की संविधान मसौदा समिति के चेयरमैन थे. तब झंडे पर एक समझौता हुआ. अंबेडकर के ग्रुप ने कहा, कांग्रेस के तिरंगा को बरकरार रखा जाए लेकिन चरखे की जगह ध्वज के आठ तीलियों वाले बौद्ध चक्र को लाया जाए. बाद में इस पर सहमति बन गई कि इस चक्र को 24 तीलियों का रखना चाहिए, जो सारनाथ में सम्राट अशोक के स्तंभ पर है. संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 पर इस प्रस्ताव पास कर दिया. अप्रैल 1919 में गांधीजी ने पहले देश के लिए तिरंगे की अपनी संस्तुति दी थी. फिर कांग्रेस के हर चार साल पर होने वाले अधिवेशन में इसे फहराया जाने लगा. मसूलीपट्टनम के पी वैकेय्या ने जब राष्ट्रीय ध्वज के लिए कई तरह डिजाइन पेश किए तो गांधीजी ने सुझाव दिया था कि लाल (हिंदुओं का रंग) और हरा (मुस्लिमों का रंग) की पट्टियां बनाते हुए बीच में सफेद पट्टी पर चरखा रखा जाना चाहिए, ये सफेद रंग देश की अन्य आस्थाओं का प्रतिनिधित्व करेगा. फिर गांधीजी ने इस बारे में 13 अप्रैल 1921 यंग इंडिया भी लिखा. जिसमें उन्होंने विस्तार से लिखा कि राष्ट्रीय झंडा कैसा होना चाहिए. इसके बाद के बरसों में तीन रंगों के बीच चरखे की अलग अलग डिजाइन उकेरी गईं. दस साल बाद गांधीजी के प्रयास पर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अगस्त 1931 के मुंबई सत्र में ये प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया, राष्ट्रीय ध्वज तीन रंगों का का होगा. इसमें तीन रंगों को होरिजेंटल अरेंज किया जाएगा. रंग भगवा, सफेद और हरे होंगे, जो ऊपर से नीचे के क्रम में होंगे जबकि गहरे नीले रंग का चरखा बीच में सफेद पट्टी पर उकेरा जाएगा. अब रंगों की व्याख्या अलग तरह से की गई- भगवा रंग साहस और त्याग, सफेद शांति और सत्य और हरा आस्था और शूरता का प्रतीक होगा जबकि चरखा जनआकांक्षाओं का इजहार करेगा. गांधी जी ने लिखा, चरखा केवल सूत कातने वाला उपकरण ही नहीं है, जो गरीबों के रोजगार और आमदनी मुहैया कराएगा लेकिन इसका मतलब कहीं अधिक है, ये सादगी, मानवीयता और किसी को कष्ट नहीं देने के साथ गरीबों और अमीरों, पूंजी और मजदूरी के बीच एक अटूट बंधन का भी प्रतीक बने. कुल मिलाकर चरखा अहिंसा का सिंबल बने (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, वाल्यूम 71, प्रथम संस्करण पेज 234) फिर चक्र को लेकर गांधीजी का मन बदला. हालांकि उन्होंने ये तो महसूस किया कि ध्वज के मामले पर उन्हें अनदेखा किया गया है. उन्होंने 03 अगस्त1947 को हरिजनबंधु में द नेशनल फ्लैग नाम से दार्शनिक अंदाज में लेख लिखा. जिसमें उनकी नाराजगी के कोई संकेत नहीं थे, राष्ट्रीय ध्वज के तीन रंगों का मतलब कोई भी कुछ लगा सकता है लेकिन जो भी अनेकता में एकता का मतलब समझता है वो इन तीन रंगों के बारे में बेहतर तरीके से समझ सकता है. फिर उन्होंने ये भी कहा कि अशोक चक्र अहिंसा का दैवीय कानून है. ऋषिकेश में श्री भरत मंदिर झंडा चौक पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की भावनाओं के अनूकूल चरखे वाला तिरंगा आज भी लहराता देखा जा सकता है.
रविवार, 5 सितंबर 2021
शिक्षक और गुरु
यदि कोई देश को भ्रष्टाचार मुक्त और सुंदर मन वाले लोगो का राष्ट्र बनाना है, तो मुझे दृढ़तापूर्वक मानना है कि तीन प्रमुख सामाजिक सदस्य हैं जो ये कर सकते है- वे है पिता, मां और शिक्षक.
-डा.एपीजे अब्दुल कलाम
जिंदगी में गुरु से ज्यादा शिक्षक की आवश्यकता होती है. गुरु काबिल हो या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन शिक्षक का काबिल होना जरूरी है. इहलोक में व्यवस्थित रूप से जीवनयापन करने की शिक्षा देने वाले शिक्षक की काबिलियत प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है. लेकिन पूर्णरूप से कल्पनाओं पर आधारित परलोक सुधारने का दावा या वादा करने वाले गुरु के ज्ञान का रिजल्ट मृत्युलोक में जाकर ही पता चल सकता है. जिसके बारे में कोई नहीं बता सकता. तब ऐसे में जैसी शिक्षा वैसा भविष्य. इस बात में कोई शक नहीं है कि शिक्षक बिखरते समाज को एकसूत्र में बांधने का काम करते हैं, परंतु जीवन के एकमात्र सत्य को बताने -समझाने के नाम पर समाज में बिखराव के हालात पैदा करते हैं. भारत में 5 सितंबर का दिन गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय वाले गुरु के सम्मान के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माता शिक्षकों के सम्मान के लिए निश्चित है. यह अलग बात है कि सम्मान को दिनों में नहीं बांटा जा सकता. फिर भी. शिक्षा मूलभूत समस्याओं को निपटाने में महत्वपूर्ण साबित होती है तो ज्ञान मन को शांत रखता है. दोनों की अहमियत को कम करके नहीं आंका जा सकता. जिंदगी की शुरूआत शिक्षकों के दिशा-निर्देशन और अंत गुरुज्ञान के प्रकाश में हो तो जीवन धन्य माना जाता है. ज्ञान किसी को मिले या न मिले, लेकिन शिक्षा सभी को मिलनी जरूरी है.