शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

जाने चले जाते हैं कहाँ



जाने चले जाते हैं कहाँ,
दुनिया से जानेवाले,
कैसे ढूंढे कोई उनको,
नहीं कदमों के भी निशां..
जब खबर मिली कि श्री भरत मंदिर के पूज्य महन्त श्री अशोक प्रपन्नाचार्य जी महाराज का वैकुण्ठवास 08 जुलाई 2020 दिन बुधवार को हो गया है, तो बहुत दुख हुआ. मुझे याद आ गए वो दिन जब मैंने अपने करियर की शुरुआत महाराज जी के सानिध्य में की थी, महाराज जी से मिले आशीर्वाद और प्यार को मैं कभी नहीं भुला सकता हूं. हां एक बात जरूर है कि मुझे हमेशा इस बात का दुख रहेगा कि बहुत कम समय के लिए उनके पास काम कर सका.  महाराज जी की सीख ही मेरी सफलता की कुंजी है. उनका कहना था कि कोई काम नहीं आता है तो उसको गलत करने की बजाय सीखने का प्रयास करो.
10 फरवरी 1942 को जन्में श्री अशोक प्रपन्नाचार्य जी ने 1959 में श्री भरत मन्दिर की गद्दी संभाली थी। श्री भरत मन्दिर इण्टर कॉलेज, श्री भरत संस्कृत महाविद्यालय, श्री भरत मन्दिर पब्लिक स्कूल तथा दिव्यांग बच्चों के लिए ज्योति विशेष विद्यालय आपके कुशल मार्ग दर्शन से संचालित होते रहे. उच्च शिक्षा के लिए हृषिकेश शहर में पं.ललित मोहन शर्मा स्नातकोत्तर महाविद्यालय की स्थापना भी आपके प्रयास से ही फलीभूत हुई.
#Shribharatmandir #Rishikesh

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

कोरोना का कहर और आपसी व्यवहार

कोरोना काल में ऐसा भी क्या आर्थिक संकट की एक या दो महीने का बेकअप भी नहीं है। मार्च से पहले करोड़ों-अरबों का बिज़नेस करने वाले भी छाती पीट रहे है कि धंधा चौपट हो गया है। सोचने वाली बात है कि जब हाई क्लास बिज़नेस करने वालों के ये हाल है तो उन बेचारे दैनिक दिहाड़ी वालों का क्या हाल होगा। जिनमे से ज्यादातर ने बैंक का मुंह ही न देखा होगा। कोई तो बैंक को मुंह ही नहीं दिखा रहा है। मजेदार बात है इन दिनों कोरोना वारियर्स की, जो अपनी सुविधा के हिसाब से सेंटा क्लोज बने घूम रहे है। वो तो भला हो उन मीडिया कर्मियों का जो इनको हाईलाइट करके हीरो बना रहे है। वर्ल्ड हिस्ट्री में ये ऐसा मौका है जब मेडिकल साइंस का आमना-सामना किसी ऐसे वायरस से हुआ है, जिसका कोई तोड़ नहीं है। जब इम्युनिटी के भरोसे ही कोरोना को यमलोक भेजना हो तो तब मेडिकल फाइटर की एनर्जी को इस लड़ाई में खपाने से अच्छा होगा कि कोरोना वायरस से इतर अन्य पेसेंट के इलाज़ में लगा दिया जाए।
आजकल बारिश के मौसम में डेंगू अलग आ खड़ा हुआ है। आश्चर्य कि बात है जिन योद्धाओं और हथियारों के बल पर आज तक डेंगू धड़ाम नहीं हुआ। वो उस वायरस के पीछे लग दिए है, जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं। जिसने एक गांव नहीं, शहर नहीं, देश नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत को उसकी हैसियत दिखा दी। कोरोना काल का ये दौर सिर्फ और सिर्फ प्यार-मुहब्बत के बल पर ही गुजारा जा सकता है। जबकि हो रहा है बिलकुल इसका उलट, हर कोई एक दूसरे से ऐसा व्यवहार कर है जैसे वही कोरोना का पितामह हो और उसकी अपनी कोई जिंदगी नहीं।
कोरोना से बचाव में मुंह पर मास्क, हाथों को सेनेटाईज़ करना, सोशल डिस्टेंसिंग की आवश्यकता के बीच दिलों में बढ़ती दरारों पर ध्यान देना होगा, क्योंकि कोरोना को तो एक ना एक दिन हारना ही है। लेकिन फिर दिल मिलेंगे या नहीं इस बात संशय बना ही रहेगा। प्रशंसा चाहे कितनी भी करो लेकिन अपमान बहुत सोच-समझकर करना चाहिए, क्योंकि अपमान वो उधार है जिसे हर कोई अवसर मिलने पर ब्याज सहित चुकाता है।

गुरुवार, 14 मई 2020

आज जरुरी है संयुक्त परिवार की खुशबू

(विश्व परिवार दिवस पर विशेष)
जितनी तेजी से हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं बदल रही है, उतनी ही तेजी से संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवार में बदल रहे है. जब किसी भी चीज के टूटने का क्रम शुरू होता है, वह अपने अंतिम समय तक टूटती रहती है, फिर उसको कितना भी बचाओ, उसकी दरारे गहराती ही जाती है. क्योंकि जिस प्रकार कांच के टुकड़ों को कितना भी जोड़ा, दरारे साफ नजर आती है. परिवार इंसानों से ही बनते है और आज इंसान अपनी रोजी-रोटी के लिए यहां-वहां भटक रहा है. ऐसे में अगर एक बार अपने घर-परिवार से कदम बाहर निकले तो समझो, यह कदम शायद ही अगले 30 – 40 साल तक वापस अपने घर में लौटेंगे. फिर इतने समय में बच्चे दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ या नाना-नानी, मौसी या मामा के प्यार को बेगाने माहौल में परायों के बीच ढूंढते हुए इतने बदल जाते है कि वह अपने संस्कारों को अपनाने से भी डरते है. आज सबसे बड़ा ज्वलंत सवाल सामने आ रहा है शादी के कुछ महीनों या सालों बाद तलाक का. इसकी वजह साफ नजर आती है, दो इंसानों की सोच एक नहीं हो सकती है. इस सोच को एक करने के लिए जिस माध्यम की सबसे बड़ी भूमिका होती है वह है संयुक्त परिवार. पति रूठे तो भाभी ने मनाया, पत्नी रूठी तो ननद ने प्यार से समझा दिया. ज्यादा हुआ तो सभी ने मिल बैठ कर बीच का रास्ता निकाल दिया और बच गया वह छोटा सा घरौंदा जिसको अभी जीवन के अनगिनत पहलुओं से रूबरू होना है. अब इसे संयुक्त परिवार का डर कहो या प्यार, कि नए-नवेले रिश्ते टूटने की बजाए और मजबूत हो जाते है. बस यही बात आज के एकल परिवारों में नहीं हो सकती है, जहां पति-पत्नी में जरा सी बात पर मनमुटाव क्या हुआ, वही इस जरा सी बात को पहाड़ बनाने के लिए इतने हमदर्द मिल जाते है कि दोनों को पति-पत्नी के रूप में जीवन बिताना नरक जैसा लगने लगता है, फिर इसकी परिणति तलाक के रूप में ही सामने आती है. रोजगार की तलाश में दूसरी जगह पर एक छोटा सा घर या बड़ा सा मकान तो बनाया जा सकता है और उसको पैसे की ताकत के बल पर बाह्य सुखसुविधा की हर वस्तु से सुसज्जित भी किया जा सकता है. लेकिन उसको अपने परिवार की खुशबू से नहीं महकाया जा सकता. साथ ही उसमे बचपन के खट्टे-मीठे यादगार लम्हों को महक भी नहीं होती. अगर संयुक्त परिवारों में नहीं रहना हमारी मजबूरी है, तो हम अपने एकल परिवारों में अपने बच्चों के लिए छोटा सा परिवार तो बनाकर रख ही सकते है, जहां वह दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार की छांव में खेलते-कूदते और संस्कारों को सीखते हुए बड़े हो, (भले ही कुछ समय के लिए) वैसे भी बच्चों का गांव वह होता है, जहां पर उनके दादादानी या नानानानी का घर. संयुक्त परिवार तो टूटने के कगार पर है ही पर हम अपनी कोशिशो से एकल परिवारों में संयुक्त परिवारों की खुशबू तो महका ही सकते है. अब यह हमारी सोच पर निर्भर करता है कि आखिर हम चाहते क्या है?

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

अखबार की गाड़ियां बनी मरीजों की उम्मीद

जीत जायेंगे हम, तू अगर संग हैं
ज़िन्दगी हर कदम, एक नयी जंग हैं
अरविंद भंडारी, आदेश, राकेश, सोनू, रवि, विशाल, मनोज, रमेश मुकेश, मदन, बबलू, शिब्बू, सोनू, बृजेश नेगी, भरत बिष्ट और काली. ये वो नाम है जिनका इंतजार गढ़वाल में रहने वाले हर उस शख्स को रहता है जो कोरोना से इतर किसी अन्य बीमारी से ग्रस्त है. वजह साफ है कि कोरोना से बचने के लिए उत्तराखंड का हर जिला लॉकडाउन है. जिसमें अखबार की गाड़ियों को ही छूट मिली है. उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर से देहरादून में ही अव्वल दर्जे के हॉस्पिटल है. गोपेश्वर, उत्तरकाशी, टिहरी हो या पौड़ी श्रीनगर के बीमार लोगों का इलाज के लिए देहरादून आना- जाना लगा ही रहता था. लेकिन लॉक डाउन की वजह से वह सब बंद हो चुका है. भले ही दवाखाने छूट के दायरे में शामिल हो लेकिन डॉक्टरी पर्चे पर दवाई डॉक्टर की नजर के इर्द-गिर्द स्थापित दवा खाने पर ही मिल सकती है. तब ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि देहरादून में इलाज कराने वालों की दवाइयां देहरादून में ही मिलती है. व्हाट्सएप और गूगल पे होने के बाद भी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि देहरादून से दवाई उन पेशेंट को कैसे मिले जो पहाड़ों के सुदूरवर्ती इलाकों में रह रहे हैं. बस इस चुनौती को स्वीकार किया है अखबार ले जाने वाले वाहन चालकों ने. उत्तराखंड के प्रमुख अखबारों के छापेखाने देहरादून में ही स्थापित है. तब ऐसे में वाहन चालक हर रात देहरादून से अखबार के साथ-साथ दवाइयों के बंडल्स भी अपने साथ ले जाते हैं, जो सुबह होते-होते 200 से 400 किलोमीटर तक की दूरी तय करके अपने गंतव्य पर पहुंच जाते हैं. और इस तरह से दुनिया-जहान की खबरों के साथ-साथ जीवन दायक दवाइयां भी उन लोगों को मिल जाती हैं, जो लॉक डाउन की वजह से अपनी दवाइयां लेने के लिए देहरादून भी नहीं आ सकते हैं. इन वाहन चालकों का कहना है कि कोरोना से लड़ने के लिए पूरी दुनिया लगी है. लेकिन कोरोना से इतर पहाड़ों में रहने वाले बीमार व्यक्तियों के लिए जरूरी दवाओं को पहुंचा कर मन को सुकून मिलता है कि हम किसी के काम आ रहे हैं. इन दिनों अखबार के वाहन को देखकर कोई रोकता है तो पहला सवाल मन में यही आता है कि यह जरूर किसी की दवा पहुंचाने के लिए ही रोक रहा है. और लगभग होता भी यही है.
#CoronaWarriors #Newspaper

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

हृषीकेश नारायण की परिक्रमा और बदरीनाथ का पुण्य

उत्तराखंड के चार धामों में से एक बदरीधाम की हिमालयी यात्रा का विशेष महात्म्य है. देश ही नहीं विदेशी श्रद्धालु भी यहां पुण्य अर्जित करने पहुंचते है. लेकिन, ऋषिकेश में एक ऐसा मंदिर भी है, जहां अक्षय तृतीया पर 108 परिक्रमा करने से ही बदरीनाथ के हिमालयी धाम के दर्शन का पुण्य मिल जाता है. जो श्रद्धालु बदरीनाथ की यात्रा करने में अक्षम होते है, उनके लिए ये मंदिर बदरी दर्शन का पुण्य देता है. ऋषिकेश नारायण भरत मंदिर में हर वर्ष अक्षय  तृतीया के दिन सुबह से ही श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगने लगता है. देश के कोने-कोने से यहां श्रद्धालु परिक्रमा के लिए पहुंचते है. अक्षय तृतीया को ही गंगोत्री और यमुनोत्री धाम के कपाट ग्रीष्मकाल के लिए खोले जाते है और इसी दिन से चार धाम यात्रा का आगाज होता है. श्रद्धालु भरत मंदिर के दर्शन कर चार धाम यात्रा की शुरुआत करते है. विक्रमी संवत् 846 के लगभग आदि गुरु शंकराचार्य ने वसंत पंचमी के दिन हृषीकेश नारायण भरत भगवान की मूर्ति को मंदिर में स्थापित करवाया था. ऋषिकेश शहर हिमालय के मणिकूट पर्वत की तलहटी में गंगा तट पर बसा पौराणिक नगर है. इसे पहले हृषीकेश के नाम से जाना जाता था जो बाद में ऋषिकेश हो गया. हृषीकेश दो शŽदों के योग हृषीक (इंद्रिय) और ईश (इंद्रियों के अधिपति विष्णु) से मिलकर बना है. स्कंद पुराण के अनुसार यहां रैभ्य मुनि ने इंद्रियों को जीत विष्णु को प्राप्त किया था. रैभ्य ऋषि की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने दर्शन दिए और वरदान दिया कि आपने इंद्रियों (हृषीक्) को वश में करके मेरी आराधना की है, इसलिए यह स्थान हृषीकेश कहलाएगा और मैं कलयुग में भरत नाम से यहां पर विराजूंगा. जनुश्रति है कि स्वार्गारोहण के समय पांचों पांडव द्रोपदी सहित यहां आए, कुछ समय तक विश्राम करके हृषीकेश नारायण का पूजन कर उत्तराखंड की यात्रा पर चल पड़े. पांडवों के पथ-निर्देशक ऋषि लोमश ने यहीं पर पांडवों को महत्वपूर्ण निर्देश दिए थे. अशोक महान (लगभग 273-232 ई.पू.) के शासनकाल में भगवान बुद्ध भी यहां पधारे थे. इस क्षेत्र के सभी मंदिर बौद्ध मठों के रूप में परिवर्तित कर दिए गए. जिससे यह मंदिर भी अछूता नहीं रहा. मंदिर के समीप ही उत्खनन में प्राप्त पाषाण प्रतिमा बुद्ध की बताई जाती है. मंदिर के पास यह मूर्ति अब भी वट वृक्ष के नीचे देखी जा सकती है. बैसाख माह में शुक्ल पक्ष की  तृतीया  यानी अक्षय तृतीया का धर्म ग्र्रंथों में विशेष महत्व बताया गया है. पुराणों के अनुसार आज ही के दिन सतयुग का प्रारंभ हुआ था. वैष्णव परंपरा से जुड़े पौराणिक मंदिरों में इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा होती है. 7वीं शतादी में  शंकराचार्य द्वारा पुनर्स्थापित ऋषिकेश नारायण भरत मंदिर से जुड़ी एक प्राचीन मान्यता  के कारण अक्षय  तृतीया  को यहां की 108 परिक्रमा करके भगवान बदरीनाथ के दर्शन के समान पुण्य मिलता है.

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

लॉकडाउन नहीं सुरक्षा कवच

खुद को घर में कैद समझने से पहले सोचना होगा कि अमेरिका, इटली और ब्रिटेन कोरोना से जितनी मौत हुई है उससे कम भारत में संक्रमित हुए हैं. भारत सरकार की जिदबाजी कहिए या भारतीयों की जागरूकता कि अन्य देशों के मुकाबले मौत का आंकड़ा लगभग 250 तक ही है. आर्थिक नुकसान से तो कभी भी निपटा जा सकता है. फिलहाल तो सवाल जिंदगी बचाने का है. इसलिए लॉकडाउन को चक्रव्यूह नहीं, सुरक्षा कवच समझिए. घर पर रहें सुरक्षित रहें. इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि कहीं कोरोना से जीवन बचाने की लड़ाई में लगे महायोद्धाओं का जीवन ही दांव पर ना लग जाए. लड़ाई अभी लंबी है, लेकिन जीत जाएंगे हम तुम अगर दूर हो. बस सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क, सेनेटाइजर के साथ-साथ सरकारी गाइडलाइन का पालन ईमानदारी से किया जाएगा, हम जरूर कामयाब होंगे एक दिन.

मरकज से मरघट तक

मरकज़ से मरघट तक
मंजिल की तलाश में निकले थे घर से जो, जिंदगी के लिए ही लौट रहे हैं घर को वो. वक्त की मार देखिए गांव वालों पर भारी पड़ गई परदेसियों की लापरवाहियां. रिसर्च की खता, इंसानियत सन्न. कैसी चली हवा, पड़ा दुनिया को-रोना. ना दवा ना दारू, बस सब दुआ के भरोसे. जब इत्तेफाक पुनरावृत्ति में परिवर्तित होने लगे, तब डर और दहशत का वातावरण बनने देर ही कितनी लगी है. वुहान में उपजा, मरकज़ से फैला. हर ओर सिर्फ कोरोना ही कोरोना. मास्क, सेनेटाइजर, आइसोलेशन, जमाती और सोशल डिस्टेटिंग के बीच लॉकडाउन. शायद यही प्रकृति का बदला था इंसान से. जब अपनी परछाई से डर लगता हो, तब कौन अपना-कौन पराया. कोरोना को हराने के लिए उपाय भी ऐसा कि घर में कैद होना है. कोई फाइटिंग नहीं, सिर्फ इंतजार कोरोना की खुदकुशी का. मनमर्जी जिंदगी पर भारी पड़ती है, अब दिल कोप भवन में जाता है तो जाने दो. यूं भी कोरोना को हराने के लिए दिमाग ही काफी है. सलाम इंडियन पुलिस, मेडिकल स्टाफ, फोटो जर्नलिस्ट और सफाई कर्मी इनके जज्बे को यूं समझिए कि अंगारों पर नंगे पांव चलना, क्योंकि इंसानियत को कोरोना से बचाना है. कोरोना की दहशत में जहां हॉस्पिटल सुने पड़े है वहीं मरघट में सन्नाटा पसरा पड़ा है. अब इसको कोरोना की दहशत कहिए या प्रदूषण मुक्त प्रकृति की मेहरबानियां. क्या से क्या हो गया नजदीकियां बनाते-बनाते दूरियां बनाना जरूरी हो गया जिंदा रहने के लिए. जीत जाएंगे हम तुम अगर दूर हो. बस दुआ कीजिए कि कोरोना के साए में मरकज़ से निकले जमातियों की फौज से मरघट का सन्नाटा न टूट पाएं.