बुधवार, 4 मई 2016

पहाड जैसे हौसलो को तो नेताओं ने रूलाया

पानी ने बहाया न आग ने जलाया
पहाड जैसे हौसलो को तो नेताओं ने रूलाया
अपनी मस्ती में मस्त उत्तराखंड के नेताओं ने प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए समय पर समुचित उपाय नहीं किए. नतीजा, तबाही और बर्बादी. तीन वर्ष पूर्व केदारनाथ की जल आपदा हो या वर्तमान में जंगलों का धधकना. जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के चलते ही इन दोनों ने विकराल रूप धारण कर लिया. केदारनाथ में तत्कालीन सरकार को भी तीन दिन बाद ही मालूम चला था कि केदारनाथ में कुछ हो रहा है. उसके बाद भी राहत कार्यों में हीला-हवाली के चलते करोड़ों की संपत्ति का नुकसान तो हुआ ही साथ ही हजारों मासूमों की मौत हो गई. इस बार भी राजनीतिक अस्थिरता के चलते जंगलों की ओर ध्यान ही नहीं दिया, नतीजतन छोटी-मोटी जगहों पर लगी आग ने भी विकराल रूप धारण कर लिया. मामले की गंभीरता को देखते हुए केंद्र सरकार ने अंतिम समय में राहत दलों के साथ ही सेना को भी जंगलों को बचाने के लिए मैदान में उतार दिया. यहां पर भी सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि गांव के समीपवर्ती जंगलों में लगी आग को बचाने के लिए जिस युवा शक्ति की जरूरत होती है, उसने तो रोजी-रोटी के अभाव में गांवों से पलायन कर दिया है. तब ऐसे में गांवों में बचे-खुचे बुजुर्गों के भरोसे जंगल की आग को कैसे बुझाया जा सकता है. गांव-गांव से पलायन रोकने के लिए घोषणाएं यदा-कदा होती ही रहती है. लेकिन इस दिशा में ठोस उपायों को धरातल पर उतारना ठीक वैसा ही रहा है जैसे आसमान से तारे तोड़ना. बात बेवकूफकाना हो सकती है लेकिन फिर भी जरा सोचिए पहाड़ों में रोजगार के समुचित साधन होते, मूलभूत समस्याओं को समय पर सुधार लिया जो तो क्या आज जंगलों की आग भयानक रूप धारण कर पाती. माना 16 साल एक राज्य के समुचित विकास के लिए ज्यादा नहीं होते, लेकिन इतने भी कम नहीं होते कि कुछ हो ही न पाए. चलिए मान लिया नया-नया राज्य है, तो इससे पहले क्या कोई अलग देश था जो 16 साल पहले ही भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बना है. बातों को कितना भी घुमा लिया जाए, लेकिन सच तो यही है आजादी के इतने सालों बाद भी पहाड़ में सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की समस्याएं जस की तस ही है. पहाड़ी जंगलों में लगी आग के पीछे युवा शक्ति का पलायन ही महत्वपूर्ण कारक है.