शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

तन्हाई

तन्हाई में बैठा सोच रहा
क्या करू,
कविता लिखूं या किताब पढू
सोचा कविता लिखी जाए
कलम उठाई
कागज पर रखी
फिर तन्हाई
शब्द नहीं मिलते, लाइन नहीं बनती
अचानक काम याद आया
कलम उठाई, कागज फेंका
और उठ गया
सोचा
फिर बैठा तन्हाई में तो
लिख लूगा
शायद कविता ही.


सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

बदल गया आसमान

एक छोटी सी, नन्हीं सी परी जैसी गुडिया छा गई दुनिया के सुनहरे फलक पर। किताबों में पढ़ा था, कहानियो में सुना था आसमान से फ़रिश्ता आएगा और खुशियों का पिटारा लायेगा। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के दबही गाँव में जन्म लेने वाली पिंकी की ज़िन्दगी में भी खुशियों की बहार आ चुकी है। उसकी ज़िन्दगी में बहार लाया है वह शख्स जो न उसके गाँव का और न ही उसके देश का। वह तो सात समुन्दर पार से आया एक परदेशी था जो उसके साथ-साथ उसके परिवार की ज़िन्दगी को वह सुनहरे मोड़ दे गया, जिसकी उन्होंने अपने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी। वह शख्स है अमेरिकी फ़िल्म निर्माता निर्देशक मगन मेलन। जिसने नन्हीं सी पिंकी को फर्श से उठाकर अर्श के सुनहरे फलक पर सजा दिया। जहाँ से पिंकी मिर्जापुर तो क्या भारत के गोरव मई इतिहास के सुनहरे पन्नों पर अंकित हो गई.

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

सोचा चलो कुछ लिखा जाए। लिखने बैठा तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखा जाए। सब कुछ तो लिखा जा चुका है। फिर मैं नया क्या लिख सकता हूँ। सोचते सोचते बहुत सोचा पर समझ नहीं आया। पता नहीं लोग कैसे लिख लेते है। सबसे कठिन काम है कुछ भी लिखना। जिसे कोई पढ़ सके।
लोग बड़ी बड़ी बातें कितनी आसानी से लिख लेते है। उन्हें लिखते हुए देख कर लगता है कि क्या मैं भी कभी उनकी तरह लिख सकूगा। सबसे अच्छा काम है कुछ पढ़ना और थोड़ा बहुत लिख लेना। पर क्या करे लिखने की आदत भी तो होनी चाहिए। यहाँ तो दूसरो में कमियां निकालने के अलावा कोई दूसरा काम सिखा हो तो न।
उम्मीद है आने वाले समय में कुछ अच्छा लिखने की आदत पढ़ जाए और आपको कुछ अच्छा पढने को मिल जाए।

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

कभी कभी सोचता हूँ कि क्या हम अपनी जिन्दगी के साथ न्याय कर पायेगे। या फिर यूँ ही एक दिन इस दुनिया से चले जायेगें। अगर हम कुछ कर पाए तो ठीक। नही तो एक दिन तो चले ही जाना है।

फिर क्यों मारामारी, क्यों हाय-तौबा। समझ नहीं आता। क्यों नहीं लोग आराम से अपनी ज़िन्दगी जीते है। हर तरफ़ दहशत का माहोल बना हुआ है। हर इन्सान डरा हुआ है। आख़िर क्यों। ऐसा कब तक। यह सब ठीक करना इन्सान के बस में ही है। कोई मसीहा नहीं आने वाला है। सब कुछ अपने आप करना होगा। चाहे अभी कर लो। या सब कुछ ख़त्म होने का इंतज़ार।

फिर सोचता हूँ कि यहीं तो ज़िन्दगी है। ऐसे ही चलती रहेगी। हम बातें करेगे और भूल जायेगी। क्योंकि भूलना हमारी आदत बन चुकी है.

khushi

खुशियाँ क्यो रूठ जाती है समझ पता मै
एक एक खुशी जोड़ कर खुशियों का आशिया
बनाता हु धीरे धीरे सरक जाती है खुशी
हथेलियों में नही रहा अब दम
जो थाम ले मेरी खुशी
अब तो वक्त का ही सहारा
जो थाम ले मेरी खुशी
आँधियों में चिराग जलने की बात सुनी है
एक तूफ़ान का इंतजार है मुझे
जो उडा लाये मेरी खुशी मेरे पास
या उडा ले जाए मुझे मेरी खुशियों के पास