शनिवार, 18 सितंबर 2010

‘नेता डायन खाय जात है…..

‘महंगाई डायन खाय जात है……’ पिपली लाइव का यह सांग जैसे ही मार्केट में आया, हर कोई अपने दुःख-दर्द भुलाकर इस पर मर मिटा। वाह! क्या सांग है, बिलकुल लाइफ के करीब। गानों का क्या, आएगे, सुनेंगे, गाएंगे और भुलाएंगे। जबकि सच यह है कि ‘नेता डायन खाय जात है…..’ नेता कहलाना किसी दौर में गर्व की बात थी। बदलते भारतीय माहौल में यह शर्म की बात बन गई है। पब्लिक के साथ धोखाधड़ी, झूठ-फरेब, विस्वाशघात अब नेता का मकसद बन गया है। आज हर तरफ डायनराज कायम है। पिपली लाइव में तो एक लक्खा ने जिंदगी खोई, इंडिया लाइव में कितने ही बेमौत मारे जा रहे है, इसका हिसाब किसी के पास नहीं है, आम आदमी का नेतृत्व जब डायन के हाथ में हो, खुद ही सोचे वह जिएगा या मरेगा। इंडिया लाइव में हर तरफ मायूसी, बेबसी, लाचारी का माहौल व्याप्त है, हर कोई परेशान और दुखी है। डायनराज से मुक्ति दिलाने के लिए अब राम और कृशन जन्म नहीं लेगे, क्योंकि न अब राजा दशरथ है और न कोई उफनती यमुना पार करने वाला। महात्मा गांधी आ भी गए, तो वह भी चुपचाप देखेंगे, क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों से लड ना सिखाया न की डायन से। जब भी जिसने झंडा उठाया, लगे उसके पीछे भागने लगे कि यही हमको डायनराज से मुक्ति दिला सकता है। भागते-भागते कब झंडा उठाने वाला डायन बन जाता है, हमको पता भी नहीं चलता। जिस दिन पब्लिक ने किसी के पीछे भागना बंद कर दिया, सच मानिए उसी दिन शाइनिंग इंडिया की झलक दिखने लगेगी।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

अतिथि तुम कब जाओगी

‘अतिथि देवो भवः’ दुनिया भर में घूमते-घूमते एक दिन अंग्रेजी हिन्दी के घर में आई। शुरू-शुरू में अच्छा लगा, नया मेहमान आया है। खूब-खातिरदारी हुई। घर के हर कोने में अच्छा सम्मान मिला, हर किसी को लगा मेहमान अच्छा है। हिन्दी मेहमाननवाजी करते-करते कब अपने घर में बेगानी हो गई, हिन्दी को पता भी न चला। अंग्रेजी ने धीरे-धीरे घर के हर कोने में अपनी जड़े जमा दी। जहां हिन्दी का स्वर्णिम इतिहास भी धूल में मिल गया। वक्त की मार खाते-खाते हिन्दी भयानक रूप से बीमार हो गई। जबकि अंग्रेजी को किसी भी तरह की कोई दिक्कत न आने के कारण वह तन्दरूस्त हो गई। आलम यह है कि आज हर तरफ अंग्रेजी हावी है, जबकि हिन्दी बेचारी अपने घर में ही बेगानों सा जीवन जी रही है। मन को खुश करने वाली बात है कि खास चीजों को सेलीब्रेट करने के लिए जैसे मदर्स डे, चिल्ड्रन डे, टीचर्स डे है, ठीक उसी तरह अंग्रेजी ने भी हिन्दी के लिए एक दिन १४ सितम्बर को हिन्दी डे घोषित कर रखा है, ताकि उसके मेजबान को बुरा न लगे। हम खुश है कि हमको मेहमान के दबाव में एक दिन की आजादी मिली हिन्दी डे को सेलीब्रेट करने। इस एक दिन में हिन्दी के स्वर्णिम पलों को याद कर लेते है, थोडा अपने ज्ञान को प्रचार-प्रसार दे लेते है, क्योंकि फिर समय मिलें या न मिले, अगर हमने किसी और दिन हिन्दी की बात की, तो हमारा मेहमान हमसे नाराज होकर चला न जाए और अतिथि देवो भवः, और हम अपने देव को नाराज नहीं कर सकते, भले ही हमारा अपना हमसे नाराज़ न हो जाए क्योंकि घर की मुर्गी दाल बराबर, तभी तो हम आज अंग्रेजी के नाज-नखरे उठा रहे है, और न जाने कब तक उठाते रहेंगे। यह सवाल हमेशा जिंदा रहेगा अतिथि तुम कब जाओगी?

रविवार, 29 अगस्त 2010

जरूरत सोच बदलऩे की

ऐसा क्या लिख सकता हूं, जो आपको नया सा लगे। पढक़र लगे, आज जो पढ़ा है, वैसा पहले कभी पढऩे को नहीं मिला। हर सोच, हर कल्पना, हर विचार पर हजारों पन्ने लिखे जा चुके है. मैंने जो कुछ आज तक पढ़ा है, उसमें कुछ बातें साफतौर पर समझ आती है, कुछ लोगों की दुष्ट मानसिकता की बदौलत आज तक भी हम गुलामी की मानसिकता से पूरी तरह नहीं उबर पाए है. समय के साथसाथ गुलामी की परिभाषा भी बदल गई. पहले विदेशियों का कब्जा होने से हम गुलाम थे. उनको खदेड़ा, तो अब यहां धार्मिक, राजनैतिक ताकतों के गुलाम हो गए. जो इनकी सीमाओं से बाहर रहने का साहस दिखाए, वह समाज के अयोग्य नागरिकों में शामिल कर दिया जाता है. बहरहाल बात यह है कि कुछ लोग अपने जीवनकाल में वह मुकाम हासिल करते है, जिनके आचरण को आदर्श मानकर पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाया जाता है. हमारी गुलाम मानसिकता में एक नाम का जिक्र हमेशा हो सकता है जयचंद. इसी सोच का परिणाम था कि सोने की चिडिय़ां के नाम से विश्व पटल पर अंकित भारतवर्ष को करीब दो सौ वर्षों तक गुलामी का दंश झेलना पड़ा. लड़ भिडक़र आजादी हासिल की, तो अब वंशवाद की गुलामी करना शान समझने लगे. यह ठीक बात है, जिस समाज का नेतृत्व नहीं होता, वह समाज बिखर जाता है. जब हमारी जीवनचर्या के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया लागू है. तो फिर वंशवाद की बात समझ से परे है। राजा का बेटा राजा होगा, यह बात समझ में आती है, क्योंकि वह राजतंत्र का हिस्सा है। पर जहां लोकतंत्र की बात की जाती है, वहां नेता का बेटा, नेता क्यों। अगर ऐसा है, तो यही तो गुलामी है. भले ही भौतिक रूप से आजाद है, पर मानसिकता तो गुलामी की है. और जब तक मानसिक गुलामी की जंजीरों को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक हम पूर्ण आजाद नहीं हो सकते है.
यह बात समझ में आती है, जब मानसिकता गुलामी वाली हो तो हम किसी भी क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकते है. क्योंकि हर इंसान अपने आप में कुछ विशेष योग्यता रखता है. पर उसको कुछ करने की आजादी हो तो तब न. बचपन से ही उसके दिलोदिमाग पर धर्म, समाज संबंधित विचार भरते चले जाते है. अपनी युवास्था पर पहुंचतेपहुंचते वह भी अपने पूर्ववर्तियों की भांति काम करता है. नई सोच, नई शुरूआत के लिए जरूरी है हम अपनी मानसिकता को बदले. ऐसा कोई हमको नहीं कहने वाला और न ही हमको कोई ऐसा करने देगा. क्योंकि हम ऐसा करते है तो सामने वाले को दर्द होगा, उसको अधिकारों पर चोट हो सकती है. पर हमको कुछ नया करने के लिए अपने भीतर एक नई सोच विकसित करनी होगी. अगर एडीसन ने हर रोज प्रयोग न करे होते तो आज हम अंधेरे में अपना जीवन बिता रहे है. मेरे विचार से सोच ही अविष्कारों की जननी होती है और जब तक यह सोच आजाद नहीं होगी, तब तक कुछ भी नया होने की बात करना बेमानी है. इसलिए जरूरत इस बात की है कि इस सोच को बदल दिया जाए. ताकि हम भी कुछ नया कर सके.

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

जो समझ नहीं आता

फिजूल खर्ची
हमारी सरकार सड़क निर्माण कार्यों की गुणवत्ता की जांच कराने के नाम पर लाखों रुपया जांच एजेंसियों को देती है। जबकि यही काम बगैर पैसे के भी हो सकता है। जिसके लिए सिर्फ और सिर्फ एक बरसात का इंतजार करना होता है। जब यह काम एक बारिश बगैर पैसे के कर सकती है। तो यह समझ नहीं आता फिर क्यों सरकार लाखों रुपया बर्बाद करती है।

अतिक्रमण
नदी किनारे झोपडियां और कच्चे पक्के मकान बनाए जाते हैं, तब संबंधित प्राधिकरण उनको हटाने की बात क्यों नहीं करते, क्यों वह एक बाढ आने का इंतजार करते है। क्यों गरीब जनता पर दोधारी मार की जाती है, एक बाढ उनका सब कुछ अपने साथ बहा ले जाती है, दूसरा प्राधिकरण और प्रशासन नदी किनारे अतिक्रमण के नाम पर उनके घरों को भी आनन-फानन में तोड देता है। आखिर क्यों?

सोमवार, 23 अगस्त 2010

समझौता

देखें तो चार अक्षर का एक शब्द है समझौता
सच में जीवन का सार है समझौता
जन्म से बुढ़ापे तक होता है समझौता
बचपन में खिलौनों से, पढ़ाई में स्कूल से
जवानी में नौकरी से, बाद में परिवार से
और न जाने कहां-कहां होता है समझौता
जीवन के हर मोड़ पर करते है हम समझौता
जैसे शब्द नहीं, हमारा भगवान हो समझौता
अब तो हाल यह है कि
समझौता करने को भी करते है 'समझौता'

रविवार, 22 अगस्त 2010

तेरी याद

सोचा था
तेरी याद के सहारे
जिंदगी बीता लूंगा
अब न तेरी याद आती है
न ही जिंदगी के दिन ही बचे
जो बचे भी उनमें क्या तेरे मेरे
क्या सुबह, क्या शाम
बस एक ही तमन्ना है
जहां भी रहो मुझे याद करना
क्योंकि तुम याद करोगे तो
दुनिया से जाते वक्त गम न होगा
क्योंकि तुम, तुम हो और हम, हम
राहें जुदा हो गई तो क्या
कभी मिलकर चले थे मंजिल की ओर
अब तो सोच कर भी सोचता हूं
क्यों मिले थे हम और क्यों बिछड़े
सोचता हूं
तेरी याद को ही भुला दूं
पर कमबख्त याद है ही ऐसी
भुलाते भुलाते भी रूला ही देती है तेरी याद.

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

प्रेरणा स्रोत


यह नामों की लिस्ट नहीं है, न ही पत्थर की एक मूर्ति भर. यह स्तम्भ बना है, उनकी यादों को जिंदा रखने लिए जिन्होंने अपने प्राणों की बाजी लगा दी, हमारे प्राणों के लिए. इस स्तम्भ पर उकेरे गए नाम तो सिर्फ एक छोटी सी निशानी है, उनको यादों को हमेशा जिंदा रखने के लिए. इस स्तम्भ पर अंकित एकएक अक्षर हमारे और आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत है. आज हम और आप सिर्फ और सिर्फ इन नामों की बदौलत सुकून से अपना जीवन जी पा रहे है. जरा सोचिए अगर इन नामों ने भी ऐशोआराम की चाह रखी होती, तो हमारा क्या होता. हमारा हर पल, हर दिन चैनोसुकून से बीते, हम पर कोई आंच न आए, उसके लिए इन्होंने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया. ऐसे साहसी और देश पर मरमिटने वालों को हमारा कोटिकोटि प्रणाम.

सोमवार, 19 जुलाई 2010

आखिर क्यों बात की जाए.

आखिर क्यों बात की जाए. वह भी उससे जिसने आज तक दुःख और तबाही के सिवा कुछ न दिया हो. वह लम्हें इतिहास बन चुके है, जब उसने कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ी थी. अब वक्त बदल चुका है. आज हम भी आजाद है और वह भी स्वतंत्र. हम क्यों भूल जाते है कि आज हमारा देश अपने दुश्मन को करारा जवाब देने में सक्षम है. जरूरत है तो बस दृढ़ इच्छा शक्ति. उसकी धोखेबाजी के सैकड़ों किस्से हमारे सामने है और हम विश्र्वास पर विश्र्वास करते जा रहे है. आखिर क्यों?
लाख टके का एक ही सवाल दिमाग में घूमता रहता है, आखिर कब तक हम पाक से बातचीत करने का ढकोसला करते रहेंगे. अगर नेताओं को पाक से इतना प्यार है कि वह उसके खिलाफ कोई कठोर कदम उठाने से कतरा रहे है तो क्यों नहीं, उसकी बात मानकर कश्मीर उसके हवाले कर देते. रही बात भारतीयों की तो वह कुछ दिन होहल्ला मचाएगे और भूल जाएंगे, ठीक उसी तरह जैसे आजादी के दीवानों को भुला दिया गया है. न जाने क्याक्या भुला दिया है. पाक को कश्मीर सौंपने की घटना को भुला दिया जाएगा.
इससे एक फायदा होगा, आने वाली पीढ़ी को इस ओर तो ध्यान नहीं देना पड़ेगा और अपना वक्त बर्बाद नहीं करेगी. क्योंकि यह एक ऐसा सवाल है, जिससे हर भारतीय परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा हुआ है, और जब तक इसका हल नहीं निकलेगा तब तक वह भी परेशान होता रहेगा. और अच्छी सोच विकसित करने के लिए पाक से संबंधित हर सोच, हर बात को भुलाना होगा. तभी हम आगे के लिए कुछ सोच पाएगे.आजादी से लेकर अब तक पाक से बातचीत के नाम करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा दिए गए है. और उससे लड़ाई और सुरक्षा के नाम पर खरबों रुपया बर्बाद हो चुका है, अनगिनत जानों का तो कोई मोल ही नहीं है. कन्याकुमारी से कश्मीर और राजस्थान से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक के आम भारतीय को एक ही चिंता जताती रहती है कब मौत उसके सामने आकर खड़ी हो जाए. इतनी दहशत फैलाने वाले पाक से आखिर हमारे नेता दहशत में ही तो बात नहीं करते. पाक भारतीयों के गले की ऐसी फांस बन चुका है जो बाहर निकलती और न ही गले से नीचे उतरती.
फिर हमारे नेताओं की दरियादिली कहो, या पाक का डर की वह उससे बात करके खुश है. और हम यह सोच कर खुश है चलो आज का दिन अच्छा गुजर गया, कल की कल सोचेगे..

बुधवार, 17 मार्च 2010

जिंदगी की भागम-भाग

जिंदगी भी क्या है, बचपन से लेकर बुढ़ापे तक भाग-भागम, पहले अपने पैरों पर चलने की जल्दी में घुटने छिलवाए. किसी तरह चलना शुरू किया तो घर की चौखट लांघने की जल्दी. थोड़ा आगे बढ़े तो स्कूल में एडमिशन की भाग-दौड शुरू. ले देकर मम्मी डैडी ने एडमिशन करा दिया तो क्लास में आगे निकलने की होड़. हाय जिंदगी की मारमारी छुटपन से ही शुरू. आगे निकलो, आगे निकलो, कहां से आगे निकलो, हर तरफ तो जाम ही जाम है. क्लास में जाम. घर पर जाम, सड़क पर जाम. खेल के मैदान में जाम. कोई आगे ही नहीं बढ़ रहा है तो हम कैसे आगे बढ़े. बस भाग रहे चक्कर घिन्नी बने. जिनसे आगे निकलना है, उनका तो पता ही नहीं वह कहां तक पहुंच चुके है. किसी तरह घिसटते हुए स्कूल से बाहर निकले तो पता चला, अभी तो वही पर है, जहां से चले थे. एक बार फिर दौड़ शुरू हुई कॉलेज, इंस्टीट्यूट में एडमिशन कराने की, शायद यहां पर जिंदगी में ठहराव आ जाए, शायद यहां से सबसे आगे निकलने का रास्ता मिल जाए. पर किस्मत यहां भी दगा दे गई. मां-बाप के पैसों की पॉवर से चार-पांच साल और मिल गए, अपनी जिंदगी की फिनिशिंग के लिए. लगा अब तो ऐश के दिन ही आ गए समझो. कुछ समय बाद पता चला कि बेटा अभी आराम कहां है. असली भाग-दौड़ के दिन शुरू भी नहीं हुए. जब एक अदद नौकरी के लिए एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस, एक शहर से दूसरे शहर, इस स्टेट से उस स्टेट. इतनी भाग दौड़ में अपने कब कहां छूट गए, पता ही नहीं चला. नौकरी की लाइन में खड़े होने की जगह भी नहीं मिल पाई. अपने तो कब के पराए हो गए पता ही नहीं चला. फिर बेहताशा, कभी इधर, कभी उधर बस भागे चले जा रहे है. जाना कहां है, यह तो अभी तक तय नहीं हो पाया है. किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हुआ तो वह भी सुकून से नहीं खा पाते. सुबह घर से निकल कर काम पर जाने की जल्दी, शाम को घर पहुंचने की जल्दी के बीच पता ही नहीं चलता, हम किससे पीछे है और किससे आगे. ऐसे में अपडेट क्या खाक होगे. वक्त मिले तो कुछ करें भी, आजकल की बात ही है जिस देखो, वह कह रहा है हॉकी में तो नाक ही कट गई. वहां भी क्या कम भाग-दौड़ थी, इंडियन प्लेयर्स को भगा-भगा कर ऐसा पीटा कि वह भी जल्दी से हॉकी का नाम नहीं लेगे, हमें तो क्या याद रहेगा, थोड़ा बहुत याद आता तो उधर आईपीएल आ धमका. उसमें भी वही भाग-दौड़ पहले पांच दिन से 100 ओवर तक और अब सिर्फ 40 ओवर में ही पूरा मैच. पैसा कमाने की होड़ में जेंटलमैन गेम्स का नाश. क्या क्या याद करें, ठीक से याद भी रहा. सब कुछ भूल सा गए है. अपना बचपन, अपना घर, अपना मौहल्ला, अपना शहर, चाय की दुकान, अपनी रोज शाम की दोस्तों के साथ महफिले (भले ही लोकल लेबल की थी). मेहनत करके अपने शरीर को क्यों खराब करें. पहले कम से कम पढ़ तो लेते ही थे, पर तो हमारी सरकार ने पढ़वाने के नाम पर ही कह दिया किसी को फेल ही नहीं किया जाएगा. अब पास-फेल से क्या डरना, जब फेल ही नहीं होना. अब आने वाले कुछ समय में हमे भागदौड़ से मुक्ति मिल जाएगी, क्योंकि जिस स्पीड से दुनिया आगे बढ़ रही है और हर काम टच करते ही हो जाता है. तो भला फिर क्यों भागना. चलो अब लिखना खत्म करता हूं, अभी बहुत काम बचा है और फिर मुझे भी घर भागना है.

रविवार, 24 जनवरी 2010

पैसा

बदलते समय के साथ अपनी धरोहरों को संभालने की जिम्मेदारी है। नए दौर में बहुत से शब्द हमारी जिन्दगी से दूर होते जा रहे है। उनमे एक शब्द है 'पैसा'। जिसका आज कोई वजूद नहीं बचा है। हमको मोबाइल कंम्पनियों का आभार प्रकट करना चाहिए। जिन्होंने आज भी 'पैसा' को जिन्दा रखा है। केवल उनके विज्ञापनों में पैसा शब्द देखने, पढने और सुनने को मिल सकता है। प्रति सेकण्ड काल एक पैसा, प्रति मिनट काल २९ पैसा। चलो कोई तो है जो किसी भी बहाने से ही सही अपने देश की मुद्रा की सबसे छोटी इकाई को आज भी संभाल कर रख raha है। नहीं तो आने वाले समय में बच्चे जान ही नहीं पाते की पैसा भी कोई शब्द था। मोबाइल कंपनियों के इस प्रयास को सलाम.