मेरे गांव के इस रास्ते से जो कदम शहर की ओर निकले वो लौटकर वापस नहीं आए, जो आए भी तो कुछ इस तरह आए, कि जिनको आने से ज्यादा वापस लौटने का जुनून था। वहां जहां मेहनत तो थी लेकिन बच्चों की परवरिश के लिए पर्याप्त साधन मौजूद थे। तब ऐसे में दूर स्थित इस पहाड़ी गांव में क्या रखा था जहां ना पीने को पानी, ना बिजली और ना ही बीमारी से बचने का कोई इलाज। आखिर पलायन तो होना ही था और हुआ भी। क्यों नहीं होता पलायन, मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता के संबंध में जिनको प्रतिनिधि बनाकर राजधानी भेजा, जब वही प्रतिनिधि वापस गांव नहीं लौटे तब ऐसे में गांव वासी क्यों नहीं पलायन करते। यह ठीक बात है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक कुछ तो हुआ ही है, लेकिन इतना भी नहीं कि उसको एक आम ग्रामीण पर्याप्त मान ले। आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां पर सन्नाटा पसरा है। या कुछ समय बाद पसर जाएगा, जब बुजुर्गों की तेरहवीं भी गांव से पलायन कर जाए तब क्या रखा है गांव की जिंदगी में।
पहाड़ से पलायन रोकने की बात करने वाले सक्षम और जिम्मेदार लोगों को अपने मूल गांव में वापस लौटना होगा। भला ऐसा भी कहा होता है कि खुद शहर में बस जाओ और दूसरों को पहाड़ में बसने की सलाह दो, ताकि आपकी पिकनिक टाइप ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए पहाड़ हरे-भरे रहे। पलायन रोकने के लिए पहाड़ में रोजगार की जरूरत है, न कि कोरी बयानबाजी की। कहना जितना आसान होता है, करना उतना ही कठिन।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें