शनिवार, 7 मई 2022

इंसानियत

 इंसान ने चांद पर पहुंचने का दावा तो कर दिया, पर धरती पर गरीबी खत्म करना सूरज पर पहुंचने जैसा ही रह गया। अब हम कैसे बच्चों को समझाएंगे कि बेटा दूर गगन में देखो में चंदा मामा देख रहे हैं क्योंकि जब हमारे बच्चे बड़े होकर हकीकत से रूबरू होंगे तो वह हमको धोखेबाज समझेंगे, तब हम उनको कैसे संतुष्ट करेंगे। वैसे भी हमने बच्चों का बचपन कब का छीन लिया था, और अब उनसे उनका प्यारा चंदामामा भी छीन लिया। रही बात गरीबी तो, हमने जिन पर विश्वास किया कि वह हमारी गरीबी दूर करने का हर संभव प्रयास करेंगे, उल्टा उन्होंने गरीब से वह भी छीन लिया, जो उसका अपने बच्चों का मन बहलाने का एकमात्र सहारा था। अमीरों का क्या वह तो चांद पर जाकर अपना जीवन गुजारने की कोशिश में है, जब पृथ्वी पर इंसान नहीं बन सके तो क्या भरोसा वह चांद पर जाकर इंसान बने रहेंगे? चांद पर पहुंचकर नई दुनिया बसाने से क्या फायदा, सूरज चांद ही तो दिन रात का अहसास कराते है। फिर कमजोर पर तो हर कोई अधिकार जमा ही लेता है, जैसे अमीरों ने गरीब को अपना गुलाम समझा है, ठीक वैसे ही शांत, शीतल चंदा मामा पर अपना भी अधिकार जमा लिया। दूसरी ओर गर्म और हमेशा क्रोध से लाल रहने वाले सूरज को अपने कब्जे में लेकर कोई दिखाए तो बात हो। इंसान की फितरत है कि कमजोर को हमेशा दबाकर रखो। चाहे बेजुबान जानवर हो, पेड़ पौधे, कल कल करती नदियां सभी का दोहन इंसान ने अपनी सुविधानुसार कर लिया। इसी सबके चलते जब पर्यावरण का स्वरूप बिगड़ गया, तो इंसान को यह धरती ही बोझिल लगने लगी। इंसान इंसान की तरह क्यों नहीं अपना जीवन बिताता। यह अलग बात है कि इंसान की चाहत की कोई सीमा नहीं है, पर हर कोई अपनी सीमाओं को लांघने में लगा हुआ है। इंसान क्यों भूलता जा रहा है कि जिस प्रकार पेड़ पौधे, जानवर ईश्वर की देन है, ठीक उसकी प्रकार इंसान भी तो ईश्वर की देन ही है। फिर ईश्वर की नजर में सभी तो समान माना गया है, सभी स्वतंत्रता से जीने का अधिकार है। फिर चाहे इंसान हो जानवर। एक पुरानी फिल्म का गीत ‘जब जानवर कोई इंसान को मारे, तो वहशी कहते है उसे दुनिया वाले। तो जब इंसान जानवरों का मारता है, पेड़ पौधों को काटता है तो उसको वहशी क्यों नहीं माना जाता। समझ नहीं आता इंसान इंसानियत को क्यों भूलता जा रहा है? क्यों वह ईश्वर प्रदत्त चीजों से खिलवाड़ करता है, और वह भी जब ईश्वर की खोज में सदियों से मारा फिर रहा है। हां कभी कभी जब प्रकृति इंसानी फितरत का विरोध करती है तब इंसान बेबस हो बोल ही देता है हे भगवान बस करो, अब नहीं। फिर ऐसा क्यों?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें