गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

प्लीज अन्ना, भ्रमित न करें

‘अन्ना’ आज किसी पहचान के मोहताज नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल
बिल लाने की दिशा में अन्ना ने जिस आंदोलन की शुरूआत की थी. वह आज
सार्वजनिक हितों से दूर व्यक्तिगत हितों की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है.
अन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उभर कर सामने आ रही है. यह ठीक बात है
कि देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है. हो भी क्यों
न आजादी के बाद से आज तक अधिकतर समय सत्ता कांग्रेस के हाथ में ही थी.
इसलिए सभी अच्छीबुरी बातों के लिए कांग्रेस की ही जिम्मेदारी बनती है.
अगर कांग्रेस ने देश के विकास में अग्रणी भूमिका निभाई तो देश पर क्या
अहसान किया, देशवासियों ने कांग्रेस पर भरोसा किया तभी वह लगभग अधिकतर
समय तक सत्ता में रहे. यहां पर भाजपा व अन्य दलों की जिम्मेदारी थोड़ी कम
बनती है. क्योंकि वह बहुत कम समय तक सत्ता में रहे. इसलिए कांग्रेस की
अपेक्षा भाजपा व अन्य पार्टियां भ्रष्टाचार बढ़ाने के लिए कम दोषी मानी
जा सकती हैं. लेकिन इस बात से भाजपा व अन्य पार्टियों को निर्दोष नहीं
ठहराया जा सकता. गैर कांग्रेसी पार्टियां अगर सत्ता में नहीं थी, तो क्या
वह मुख्य विपक्षी पार्टी तो थी. उन्होंने कांग्रेस के गलत कामों को रोकने
का प्रयास ईमानदारी से क्यों नहीं किया? क्यों आज तक देशवासियों का भरोसा
नहीं जीत सकी? राजनीति के दांवपेंच से अजीज आ चुके देशवासियों ने अन्ना
की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में खुद को शामिल कर लिया. लेकिन आज देशवासी
खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. इसकी वजह साफ नजर आती है कि अन्ना व
उनकी टीम आखिर चाहती क्या हैं? जनलोकपाल बिल पास न करने के लिए अगर
कांग्रेस को दोषी ठहराया जा रहा है तो भाजपा व अन्य पार्टियों को भी तो
दोषी ठहराया जाना चाहिए. देशवासियों के समर्थन से गदगद अन्ना व उनकी टीम
चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है. उनका कहना है कि
जनलोकपाल बिल की बात न करने वालों को चुनाव में हराना है. सबसे बड़ा सवाल
यहां पर यह उठता है कि अगर सभी को चुनाव में हराना है तो जिताना किसको
है. (अन्ना व उनकी टीम को, जो चुनाव ही नहीं लड़ रही है.) अन्ना अगर
राजनीतिक पार्टियों को हराने की बात कह रहे हैं तो इसका विकल्प क्यों
नहीं बताते, फलां पार्टी के व्यक्ति को चुनाव जिताना है. वैसे भी अपना
देश इतना बड़ा है कि एक कोने के विचार दूसरे कोने विचारों से मेल नहीं
खाते. तब ऐसे में निर्दलीय प्रत्याशियों के जीत कर आने की संभावना बढ़
जाएगी. फिर सरकार का क्या होगा, कौन बनेगा प्रधानमंत्री और कौन करेगा बिल
पास. हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि संसद में बहुमत वाली पार्टी ही
सरकार बनाएगी. आखिर अन्ना अपना रूख साफ क्यों नहीं करते कि वह किंग बनना
चाहते हैं या किंगमेकर. अगर किंगमेकर बनने की तमन्ना है तो उनका किंग कौन
होगा. अगर वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों देशवासियों को भ्रमित कर
रहे हैं. यह हमारी मजबूरी है कि हर पांच साल में हमको अपनी सरकार के लिए
नेताओं का चुनाव करना होता है. हम मतदान में भाग लें या न लें, इस बात से
कोई फर्क नहीं पड़ता है. क्योंकि हम अपना मत नहीं देंगे तब भी हमारा नेता
चुना जाना तय है. उसके बाद सरकार भी बनेगी. यह कटु सत्य है. इसलिए यह
बहुत जरूरी हो जाता है कि अन्ना व उनकी टीम इस मुद्दे पर अपना रूख साफ
करे.

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