सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

कभी कभी सोचता हूँ कि क्या हम अपनी जिन्दगी के साथ न्याय कर पायेगे। या फिर यूँ ही एक दिन इस दुनिया से चले जायेगें। अगर हम कुछ कर पाए तो ठीक। नही तो एक दिन तो चले ही जाना है।

फिर क्यों मारामारी, क्यों हाय-तौबा। समझ नहीं आता। क्यों नहीं लोग आराम से अपनी ज़िन्दगी जीते है। हर तरफ़ दहशत का माहोल बना हुआ है। हर इन्सान डरा हुआ है। आख़िर क्यों। ऐसा कब तक। यह सब ठीक करना इन्सान के बस में ही है। कोई मसीहा नहीं आने वाला है। सब कुछ अपने आप करना होगा। चाहे अभी कर लो। या सब कुछ ख़त्म होने का इंतज़ार।

फिर सोचता हूँ कि यहीं तो ज़िन्दगी है। ऐसे ही चलती रहेगी। हम बातें करेगे और भूल जायेगी। क्योंकि भूलना हमारी आदत बन चुकी है.

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