सोमवार, 26 दिसंबर 2016

तकरार नहीं, मंथन की जरूरत

मुद्दों से भटकना और भटकाना राजनेताओं की फितरत है. जनतांत्रिक व्यवस्था में मजबूत विपक्ष न हो तो सत्ता निरंकुश हो जाती है.  ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था के मायने ही बदल जाते हैं. लेकिन, इससे भी ज्यादा बदतर हालात तब होते हैं, जब पक्ष और विपक्ष में जनहित के मुद्दों के बजाय व्यर्थ की बहस-बाजी में वक्त जाया कर दिया जाता है.

वर्तमान में विमुद्रीकरण के दौर में पक्ष की दृढ़ इच्छाशक्ति और विपक्ष के बचकानेपन के कारण संसद सत्र का बेशकीमती समय और संसद की कार्यवाही में करोड़ों की धनराशि यूं ही बर्बाद हो रही है.  जबकि, आम जनमानस को अपने जनप्रतिनिधियों से हद से ज्यादा उम्मीद थी, कि इस बार तो कोई सार्थक हल जरूर निकलेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. महत्वपूर्ण समय यूं ही फिजूल के हो-हल्ले में गुजर गया.

चलिए मान लेते हैं मुद्रा बदलाव के दौरान हुई मौतों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिम्मेदार हंै, तो फिर 1947 के विभाजन में हुए भीषण नरसंहार और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हजारों निर्दोष सिखों की हत्या के साथ-साथ कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के लिए कांग्रेस को क्यों नहीं जिम्मेदार माना जाता ? रही बात धनकुबेरों की तो अंबानी, अदानी, सिंघवी, टाटा, बिरला, माल्या, ललित मोदी पिछले ढाई सालों में तो अरबपति बने नहीं. 

राहुल गांधी बात करते हैं कि देश की जनता पढ़ी-लिखी नहीं है, तब ऐसे में नरेंद्र मोदी का डिजिटल इंडिया का सपना कैसे पूरा होगा ? जबकि, इस बारे में राहुल गांधी कांग्रेसी दिग्गजों से सवाल-जवाब करते तो ज्यादा अच्छा होता. वह पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से सवाल करते, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से सवाल करते कि भारतीय अनपढ़ों को साक्षर बनाने के लिए कांग्रेस ने दस सालों में ठोस उपाय क्यों नहीं किए. जबकि, उनके पिताजी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को ही भारत में कम्प्यूटर क्रांति का जनक माना जाता है.  उससे पहले उनकी दादी  इंदिरा गांधी  ने देश में आपातकाल लागू करके जनसंघ की कमर ही तोड़ दी थी. लेकिन, फिर भी ऐसा क्या हुआ कि जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के रूप में देश की सत्ता पर काबिज हो गया. कांग्रेस ने लगभग 60 सालों में विकास की मूल अवधारणा के संबंध में ढुलमुल रवैया क्यों अपनाकर रखा.  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल-जवाब करने के बजाय राहुल गांधी को कांग्रेस दिग्गजों को ही लाइन में खड़ा कर देना चाहिए, कि बताइए ऐसा कैसे हो गया, कि जिस कांग्रेस ने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी, जो हाथ का निशान जन-जन की पहचान था. वह अचानक से कैसे आमजन से कट गया. जबकि, ढाई साल पहले तक दुनिया के दिग्गज अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने दस साल तक प्रधानमंत्री पद को संभाला है. राहुल तो बच्चे हैं, लेकिन पुराने घाघ कांग्रेसियों को जवाब देना ही चाहिए. कांग्रेसी दिग्गजों का घाघपन देखिए कि नोटबंदी के दौर में वल्र्ड के पॉवरफुल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने राहुल गांधी को कमान सौंप दी. 

बात की जा रही है कि प्रधानमंत्री मोदी राहुल के सवालों के जवाब देने की बजाय उनका मजाक उड़ा रहे हैं. अंतर सिर्फ सोच का है कि कांग्रेस के युवराज का मजाक पीएम नहीं, बल्कि खुद कांग्रेसियों ने ही बना रखा है, कांग्रेस के थिंक टैंक को देश के वर्तमान हालात पर ईमानदारी से मंथन करना होगा. फिजूल की बहसबाजी से कुछ होता तो प्रधानमंत्री मोदी से ज्यादा लच्छेदार भाषा में कौन सा प्रधानमंत्री जनता से संवाद कर सकता है. जवाब होगा, कोई नहीं. देश के विकास में कांग्रेस के योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता. देश की वर्तमान हालत के लिए कांग्रेस उतनी ही जिम्मेदार है, जितना कि वह देश के विकास के लिए खुद को श्रेय देती है. कांग्रेसियों के समझदार दिग्गजों को मानना होगा कि नोटबंदी के दौर में बैंककर्मियों और अधिकारियों  की नियुक्तियां पिछले ढाई साल में नहीं हुई हैं. व्यक्तित्व के आधार पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी में जमीन-आसमान का अंतर है.  नरेंद्र मोदी जनतंत्र तो राहुल गांधी राजतंत्र के द्योतक है. तब ऐसे में मोदी-राहुल की तुलना कहां तक जायज है ? आज कांग्रेसी जितनी ईमानदारी से अपने और जनता के अधिकारों की बात करते हैं,  अगर  इससे आधी ईमानदारी से उन्होंने अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया होता तो अच्छे दिनों के इंतजार में बुरे दिन न देखने को मिलते. 

गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

शेर- मछली का याराना और चूहों की चिंता

घर-घर का कोना-कोना कुरेदने वाले चूहे बहुत परेशान है कि भीगी बिल्ली के गले में घंटी तो कोई भी बांध देता. लेकिन नींद में मालूम ही नहीं चला कि कब जनता ने बिल्ली की जगह शेर को अपना सरदार बना दिया. शेर भी ऐसा कि जिसने तहखाने तो तहखाने, छोटे-मोटे बिलों को भी खंगालने का फरमान जारी कर दिया. हैरान, परेशान, बेहाल चूहों की बैठक-दर-बैठक बेनतीजा ही साबित हो रही है. बिल्ली के गले में बांधने के लिए खरीदी गई घंटी खुद के गले की फांस बन गई. मामले को डायवर्ट करते हुए चूहों का मछलियों पर प्यार उमड आया. कि ठीक है जिन्होंने मलाई खाई है, उनको शिकार बनाइए, बेचारी मछलियों का क्या दोष. कि पूरा तालाब सुखा दिया. लेकिन यहां तो यह दांव भी उल्टा ही पड़ गया. मगरमच्छ के बच्चों की आशंका के चलते ही तालाब की सफाई करवाने के लिए तडपती-बिलखती मछलियां खुद ही शेर के साथ जा खड़ी हो गई. आरामतलबी के दौर में सरकार ने कभी कुछ कहा भी तो चूहों ने अपना दिमाग भिड़ा कर अपनी पौ-बारह कर ली. और मारी गई मछलियां. मलाई खानों वालों को दूूध का दूध और पानी का पानी नजर आने लगा है, अंधेरों में छुप कर गाढ़ी कमाई पर हाथ साफ करने वाले चूहे भूल गए कि यह टेक्नोलाॅजी का वो दौर है कि जब चीजों का आदान-प्रदान आॅनलाइन होता है. जिसमें चीजे हवा में चलती है न कि तारों पर. जब चीजे तारों पर चलती थी तब चूहों ने घर-घर के कनेक्शन ही काट दिए थे. अब हर हाथ में मोबाइल, हर घर में टीवी. सीधा संवाद, मन की बात क्या हुई कि मछलियों और शेर की दोस्ती इतिहास के उन पन्नों पर आ खड़ी हुई, जहां से आगे बुलंद भारत की वो गाथा लिखी जाएगी कि आने वाली पीढ़ियां भी गर्व से कहेगी कि हम भारतीय है.

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

कहीं जनता ही न कर दे सर्जरी

भारत में होने वाले आतंकी हमलों को लेकर केंद्र सरकार ने पहली बार सर्जिकल स्ट्राइक जैसा ठोस कदम उठाया है. इस संबंध में जहां आतंकी हमलों से ग्रस्त विश्व के शक्तिशाली देश भारत सरकार और भारतीय सेना के इस कदम का समर्थन कर रहे है, वहीं भारत के कुछ नेता सबूत मांग रहे है. आखिर यह नेता चर्चाओं में आने के लिए घटिया हथकंडों को अपनाना कब बंद करेंगे. फिल्मी पर्दे के नौटंकीबाजों को तो जैसे सांप ही सूंघ गया है. बात करते है कला के हनन की. अगर आतंकियों को पनाह देने वाले देश के कलाकारों के साथ काम नहीं करेंगे तो इनको मौत आ जाएगी. उरी हमले में 18 सैनिकों की मौत हो या कश्मीर में पत्थरबाजी की घटनाओं को लेकर अब आमिर खान की श्रीमती किरन राव को डर नहीं लग रहा हैै. अब उन्होंने आमिर से देश छोडने की बात क्यों नहीं की. आतंकियों की मौत से बौखलाए पाकिस्तान की धमकियों के बाद भी किसी साहित्यकार की अंतरात्मा नहीं जाग रही है. अब कोई अवार्ड क्यों नहीं लौटा रहा है. यह बातें दिल को चोट पहुंचाती है जिनको भारतीय जनता ने इतना मान-सम्मान दिया, रातों-रात स्टार बना दिया, वो हस्तियां जब आम इंसान के दिल पर हथौडा मारने जैसी बात करती है तो गुस्सा आना स्वभाविक है. वह भी जब बात पाकिस्तान की हो, जो यहां तक कहता हो कि कश्मीर का फैसला एक क्रिकेट मैच के जरिए कर लिया जाए. आप पूरा टूर्नामेंट हार जाइए कोई बात नहीं, बस पाकिस्तान से जीत जाइए. भावनाओं में विश्वास करने वाली जनता के साथ इतना बड़ा विश्वासघात यकीन करने लायक नहीं होता. भारतीय गर्ल्स के दिलो पर राज करने वाला मैंने प्यार किया का प्रेम हो या पुलिस वाले के रोल में पांडे जी हो, बजंरगी भाई जान या फिर बेबी को बेस पसंद है वाले सलमान खान की न्यू रिलीज के लिए अपना पेट काटने वाले हो या जेब खर्च बचाकर स्कूल गोइंग स्टूडेंट्स, हाउसफुल करने वाले पाकिस्तान नहीं भारत में ही बसते है.. जब हर बात हर मामले में बात लाइन खींचने पर आ जाए तो फिर कलाकार अलग दुनिया से नहीं आते है, इनको इतनी सी बात समझ लेनी चाहिए. बात-बात पर सबूत मांगने वाले अरविंद केजरीवाल, जब अन्ना हजारे के कंधों पर चढ़कर राजनीति में शुचिता की बात करते थे, तब किसी ने उनसे उनकी ईमानदारी का सबूत मांग लिया होता तो आज भारतीय सेना और दिल्ली की जनता के साथ-साथ भारतीयों को यह दिन नहीं देखना पड़ता. ऐसा कैसे हो सकता है कि भारतीय राजनीति को एक नई दिशा देने वाला राजनेता पाकिस्तानी सेना की आंखों का सितारा बन जाए. सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जी बताने वाले संजय निरुपम के बयान से नाराज सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने नेता जी की सर्जरी की शुरूआत करते हुए मुंबई कांग्रेस के एक कार्यक्रम का बहिष्कार करने का फैसला किया है. अब इस पर कांग्रेस ने तुरंत मीडिया प्रमुख रणदीप सुरजेवाला से बयान दिलवाकर कहा कि सोनिया गांधी और राहुल गाधी दोनों ही सर्जिकल स्ट्राइक मामले में सेना और सरकार के साथ है. तब ऐसे मे निरूपम क्या साबित करना चाहते है.
सालों बाद भारत का नेतृत्व पॉवरफुल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे है और वह पॉवरफुल बने है भारतीय जनता के अपार समर्थन से. अब अगर वह आतंक का जवाब देने में सक्षम है तो किसी को क्या दिक्कत. भारतीय सीमाओं पर हाई वोल्टेज टेंशन के बावजूद भी हम घरों में चैन से सो रहे है तो यह सेना का दम है. प्रधानमंत्री का फुल बैकअप और भारतीय सेना की सिर्फ एक सर्जिकल स्टाइक ने ही आतंकियों के साथ-साथ पाकिस्तान के होश पाख्ता कर दिए है तो किसी को परेशानी क्यों हो रही है. 
एक बात और है सर्जिकल स्ट्राइक पर पाक सबूत मांग कर अपने गले मे फांस क्यों डालेगा. वह तो अमन पसंद देश है. राजनेताओं को भी समझ लेना चाहिए कि राजनीति करने के लिए कई अनसुलझे मुद्दे है, जिनका समाधान होना बाकी है. अगर यह नेता इस संबंध में कुछ अच्छा नहीं कर सकते तो अपना मुंह बंद रखना ही इनके लिए बेहतर होगा, क्योंकि यह पब्लिक है सब जानती है. अंदर क्या है- बाहर क्या है. और यह ताकत दी है उसे सोशल मीडिया ने. बदलते दौर में तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी के चलते किसने कब क्या कहा, सब कुछ वायरल हो जाता है. ऐसे में देश विरोधी या जन विरोधी बयानबाजी करने वालों को ध्यान रखना होगा, कब, कहां, क्या और क्यों बोलना है. इन नेताओं और कलाकारो की थोड़ी नहीं बहुत जिम्मेदारी बनती है, क्योकि इनके साथ-साथ इनके समर्थकों से कहीं सौहार्दपूर्ण वातावरण दूषित न हो जाए. कम से कम देश के मामले में एक रहना इनको आना ही चाहिए. कहीं ऐसा ना पाक से बौखलाई जनता इनकी ही सर्जरी न कर दें.

शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

अहिंसा-हिंसा के बीच तालमेल मतलब सफलता

आराधना शक्ति की देवी की और जन्मदिन अहिंसा के पुजारी का. अहिंसा और हिंसा की जुगलबंदी के बीच सर्जिकल स्ट्राइक. विजय दिवस (दशहरा) के पहले ही विजय जैसा उल्लास. पानी रोकना था सिंधु का और रूक गया ब्रह्मपुत्र का. राक्षसी प्रवृति के विनाश के लिए मां ने काली का रूप धर राक्षसों का विध्वंस किया, तो महात्मा गांधी ने मानवता के लिए हिंसा को ही त्याग दिया. कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा गाल भी आगे करने वाले महात्मा गांधी के देश का वक्त बदला, तौर-तरीके बदले, इतना बदले कि दूसरा गाल आगे करने की बजाय सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए जमीन में ही दफना दिया, उन्हें जिन्होंने भारत के जवानों को मौत की नींद सुला दिया था. दुश्मन का दुश्मन दोस्त की बात पर चलते हुए चीन ने पाकिस्तान के दुश्मन के खिलाफ ब्रह्मपुत्र का पानी ही रोक दिया, क्योंकि भारत ने हिंसा न करने  की बजाय पाकिस्तान को अन्य मोर्चो पर पराजित करने के लिए सिंधु नदी समझौता रद्द करने की कवायद शुरू कर दी थी. हर बात एक दूसरे की पूरक होती है. यह भी अजीब इत्तेफाक है कि जहां अहिंसा पुजारी हिंसा का शिकार हो गया, वहीं हिंसा (शक्ति) के बल पर राक्षसों का वध करने वाली देवी की आराधना करने वाले असुरी वस्तुओं का सेवन तक नहीं करते. कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि पूर्ण सफलता के लिए अहिंसा-हिंसा के बीच तालमेल होना जरूरी है. सिर्फ अहिंसा का गुणगान करने से दुश्मन छाती पर चढ़ आता है तो हिंसा करने से राक्षसी प्रवृत्तियां घर कर जाती है.  इन दोनों के सटीक मिश्रण से ही सफलता का स्वाद चखा जा सकता है. जैसा कि उरी घटना के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अहिंसात्मक रूख अपनाते-अपनाते अचानक हिंसात्मक कार्रवाई के बाद भारतीयों को महसूस हो रहा है. 

सोमवार, 22 अगस्त 2016

ये हौसला कैसे डिगे , ये आरज़ू कैसे रुके

कहा जाता है कि बेटी एक नहीं दो घरों को संवारती है. यहां तो दो बेटियों ने पूरे देश को ही ख़ुशी की वह सौगात दे दी, जिसका वर्षो से हर भारतीय इंतज़ार कर रहा था. रियो ओलंपिक में सिंधु और साक्षी की कामयाबी देखकर भी बेटों की चाह रखने वालों को अल आ जाए तो गनीमत है. 1.6 अरब की आबादी वाले पुरुष प्रधान देश मे बेटियों ने भारतीय समाज की मानसिकता को ठोकर मारते हुए उस मुकाम को छू लिया है जिनके लिए भारतीय लड़ाके अरसे से जान लड़ाने के लिए शक्तिवर्द्धक औषघियों के सेवन से भी नहीं चूके. वह भी मशीनी युग में, जब आपके झूठ को पकडऩे के लिए अत्याधुनिक मशीनों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाता हो. सांप मरने के बाद लाठी पीटने का कोई फायदा नहीं होता है. अपनी नाकामयाबी का ठिकरा सिस्टम पर नहीं फोड़़ा जा सकता है. क्योंकि जिस सिस्टम को  नरसिंह यादव ने झेला होगा, उसी सिस्टम को सिंधु और साक्षी ने भी झेला ही होगा, साथ ही झेले होंगे दुनिया के ताने. उनके साथ ही उनके माता-पिता ने भी क्या-क्या न सुना होगा कि बड़े आए बेटियों को खिलाने वाले ये बनेगी खिलाड़ी. घर का काम सिखाओ और हाथ पीले करने का जुगाड़ करो. लेकिन वक्त का तकाजा, बेटियों की मेहनत और माता-पिता की तपस्या का नतीजा देखिए उनकी बेटियों ने इतिहास रच कर पुरुष प्रधान देश को आईना दिखाया है. जहां भर पेट खाने को नहीं, नापने को जमीन नहीं, समाज और घर की बंदिशो का दबाव, साथ के लोगो के ताने, घटिया राजनीती और कुश्ती जैसा पुरुषो के वर्चस्व को तोड़ता खेल,  ऐसे में ओलंपिक में लगातार नाकामयाबी का उलाहना सुनते भारत को सिंधु और साक्षी ने एक बड़ी कामयाबी दिला कर उन लाखों लड़कियों के सपनो में उड़ान भर दी जो कुछ करने का सपना अपने मन के कोने में दफन करके हालातों से समझौता कर अपनी प्रतिभा को जाया करती है. साक्षी को समाज, घर वालों, गांव वालों साथी पहलवानो का लगातार विरोध झेलना पड़ा, पहलवानो ने कहा क्यों आखाड़ा खराब कर रहे हो छोरी क्या पहलवान बनेगी, क्यों हंसी उड़वा रहे हो,  साक्षी ने विश्वास नहीं खोया. रोहतक की छोरी इन सभी पहलवान पुरुषो को पछाड़ती हुयी विदेश की धरती पर अपने संघर्ष की दास्तान को विश्व के सामने दिखा गई.  साक्षी और सिंधु प्रेरणा है  उन तमाम छोटे शहरों, गांवो और कस्बों की उन हजारों लड़कियों की जो कुछ करना चाहती है लेकिन सामाज की छोटी सोच उनका रास्ता रोक लेती है देश बदल रहा है बेटियां बदल रही है उनको आसमान दो मत रोको उनको उनके सपनो को जीने से, कल ये ही आपको सम्मान दिलाएगी और परिवार का नाम रोशन करेगी.  साथ ही अब कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़ों में कुछ कमी आ आए और भू्रण परीक्षण करने वाले अल्ट्रासाउण्ड सेंटर बंद हो तब ही ओलंपिक विजेता बेटियों का सच्चा सम्मान होगा, वरना धन-दौलत का क्या है वह तो उन पर यूं ही बरस रही है. बेटे अपनी जगह-बेटियां अपनी जगह. इन दोनों के प्रति समानता का भाव पैदा हो सके, शायद तभी समय-समय पर बेटियां कभी शिक्षा तो कभी राजनीति तो कभी युद्ध के मैदान में अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करती रहती है. बेटियों के प्रति सोच बदलने का सही वक्त आ गया है, क्योंकि अभी तो यह आगाज है अंजाम अभी बाकी है।
माना की खेल में हार-जीत के कोई मायने नहीं होते, लेकिन क्या ओलंपिक में हारने का ठेका भारत का ही है. राजनीति में खेल के चलते खेलों में राजनीतिक कारगुजारियों के बीच ओलंपिक विक्ट्री स्टैंड पर भारतीय प्लेयर्स का ना होना अफसोसजनक बात है. खेलों में करोड़ों खर्च करने वाले खेल विभाग का क्या मतलब है. ऐसे में खेल मंत्रालय का नाम बदलकर क्रिकेट मंत्रालय कर दिया जाना ही बेहतर होगा. कम से कम दुनिया में इज्जत तो बनी रहेगी. खेल मंत्रालय और चयन समिति में गड़बड़ी के साथ ही प्लेयर्स की कमियां बड़े मुकाबलों में ही खुलकर सामने आ जाती है. छोटी-छोटी जीत पर इतराने वाले अकसर बड़े मैदान में झटका खा जाते हैं. घर के शेर घर से निकलते ही शिकारियों के जाल में फंस जाते हैं. दुनिया जीतने के इरादे और सोच को पक्षपातपूर्ण रवैये के साथ साकार नहीं किया जा सकता है. सिस्टम की खामियों का रोना रोने वालों को समझना होगा कि सिस्टम भी हमारा है और उसको चलाते भी हमारे अपने ही है. साथ ही समझना होगा जीतने वाले कोई आसमान से नहीं टपकते है. दिल को तसल्ली देने वाले कह सकते है कि गिरते है अकसर घुड़सवार ही मैदाने जंग में. ऐसे में अगर भारतीय प्लेयर्स गिरते ही रहेंगे तो आखिर उठेगें कब. हां कभी-कभार सिंधु और साक्षी जैसे प्लेयर्स इस सिस्टम को ठुकराते हुए कामयाबी हासिल कर लेता है, तो यह उसकी व्यक्तिगत मेहनत और प्रयासों का नतीजा ही होता है. ऐसे में सिर्फ धनाढ्य वर्ग के युवा ही खेल सामग्री का खर्च वहन कर पाते हैं, इसके इतर गरीब प्रतिभाएं तो उभरने से पहले ही दम तोड़ जाती हैं. ओलंपिक हो या अन्य कोई खेल का मैदान भारतीय खिलाडिय़ों के साथ-साथ खेल अधिकारियों को समझना होगा कि सफलता रातोंरात नहीं मिलती. इसके लिए ईमानदार कोशिश की दरकार होती है. खिलाडिय़ों को विश्व स्तरीय प्रतियोगिताओं के विश्व स्तरीय सुविधाएं मुहैया कराना खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी बनता है, सिर्फ बयानबाजी से पदक हासिल नहीं किए जा सकते है. ओलंपिक खत्म होते-होते भारतीयों को कई सबक दे गया है कि जैसे बेटियां कभी भी बेटों से कम नहीं होती है. भारतीय खेल मंत्रालय को अपनी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है. 

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

जब जड़ों में पनपता हो भेदभाव

जब विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक सत्र तक नियमित न कर पाते हों। सरकार विश्वविद्यालयों को सामान्य स्तरीय सुविधाएं तक देने में आनाकानी करती हो. ऐसे में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएंगे। न फैकल्टी, न स्टूडेंट्स के बैठने के लिए क्लास रूम और न ही पर्याप्त सुविधाएं। बस, धकापेल एडमिशन और फीस का घालमेल. भारत रहा होगा कभी विश्व में शिक्षा का केन्द्र, लेकिन अब तो विश्वविद्यालय कैंपस राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर तब्दील होते जा रहे हैं। जहां गुरु की जगह सर ने ली है। अब सर के दौर में सिर ही उठेंगे, उन सिरों में क्या होगा, यह गुजरे समय की बात हो चुकी है. वह दौर और था जब गुरु को सर्वोपरि माना जाता था, लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण के चलते गुरु-शिष्य की परंपरा खत्म सी हो गई है। अब पैसे के दम पर हासिल की गई शिक्षा में गुरु -शिष्य वाली जैसी कोई बात नहीं हो सकती है। यह बात तो हुई उच्च शिक्षा की। अब बात आती है प्राईमरी एजुकेशन की। आईसीएससी, सीबीएसई और स्टेट बोर्ड। इन तीनों बोर्डों के बीच फंसे अभिभावक और बच्चे आखिर तक इस बात को नहीं समझ पाते कि आखिर एक ही देश में एक तीन बोर्डो की जरूरत क्यों? यह तीनों बोर्ड ही आम जनता में अमीरी-गरीबी के अंतर को कभी खत्म नहीं होने देते है. जब तक ये तीनों बोर्ड एक नही होगे तब तक असमानता की खाई को पाटा नहीं जा सकता। हिन्दी-अंग्रेजी माध्यम का ड्रामा वो अलग। नागरिकों में एकता का भाव जगाने की बजाय भेदभाव तो जड़ों के साथ ही पनपाया जा रहा है। साथ ही बच्चे की आफत ही आफत। जहां अंग्रेजी मीडियम वाले बच्चे आधी-अधूरी एजुकेशन के साथ अदर एक्टिविटी में सिर घपाते मिलेंगे, वहीं हिन्दी माध्यम वाले किताबों के पेज पलटते-पलटते कब बचपन की दहलीज पार कर जाते है, उन्हें तो क्या उनके अभिभावकों को भी पता नहीं चलता। भेदभाव बढ़ाने वाली शिक्षा व्यवस्था को पोषित करने वाली सरकार कहती है कि बचपन बचाओ। जब प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था ही लडखडाई हो तो उच्च शिक्षा को कैसे भरोसेमंद माना जा सकता है। भारत को डिजिटल इंडिया बनाने पहले कुछ सवालों के सकारात्मक जवाब तलाशने होंगे। जैसे ग्रामीण इलाकों के सरकारी स्कूलों मे टीचर स्थाई रूप से पढाएंगे। शिक्षा की लचर व्यवस्था ढर्रे पर कैसे आएगी. पब्लिक और सरकारी स्कूलों के बीच बढ़ती खाई को कैसे पाटा जाएगा। मिड डे मील, साइकिल और लैपटॉप जैसी चीजों का लालच देकर आखिर कब तक बच्चों को स्कूल लाया जाएगा। एक समान शिक्षा प्रणाली भारत में कब से लागू होगी। शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक कब लगेगी। विश्वविद्यालय कैंपस में जड़े जमाती राजनीति को कैसे दूर किया जाएगा। इन सवालों के सार्थक जवाब आए तो साक्षरता दर बढने के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे। इन सबसे अलग आए दिन होने वाली टीचर्स की हड़ताल, अध्यापकों का ट्यूशन के प्रति मोह भी शिक्षा व्यवस्था के लडख़ड़ाने का एक कारण है। शिक्षा व्यवस्था को बेहतर कर लिया जाए तो एक बेहतर राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है। यह बात सही है कि अचानक कुछ नहीं होने वाला। आज शिक्षा व्यवस्था की खामियों को दूर करने का प्रयास शुरू करेंगे तब जाकर हमारी आने वाली पीढिय़ों को इसके सुखद परिणाम देखने को मिलेंगे। वरना यूं ही भारतीय प्रतिभाएं देश छोड़ती रहेगी और अपने सिस्टम को कोसती रहेगी।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

पानी न बिजली फिर भी पहाड़ से लगाव

वर्ष 1947 में बारह के गजर के साथ आधी रात को जब यह मुल्क आजाद हुआ, उन दिनों भी पहाड़ की औरतें पानी भरने के लिए मीलों दूर जाती थीं और जब इस देश ने अपना संविधान बनाया, जब हम गणतंत्र हुए-तब भी ये औरतें पानी भरने को मीलों दूर जाती हैं. पानी भरना उनके लिए फुलटाइम जॉब है, क्योंकि पानी का घनघोर अकाल है. पाताल चला गया है. पानी लाना जरूरी है क्योंकि बच्चों और परिवार को खाना कैसे मिलेगा? क्या बिना पानी के दाल बन सकती है? रोटी बन सकती है? नहाना-धोना हो सकता है? पानी उनके लिए लाक्षागृह है जिसकी बुनावट रोज की सिरदर्दी है और उन्हें इस सिरदर्दी से रोज दो-चार होना है. न सिर्फ दो-चार होना है, बल्कि फतह भी पानी है. उत्तराखंड के लिए वक्त ठहर गया है और हम मस्त हैं कि इस देश में अब हमारा कानून चलता है, कि हम आजाद हैं, कि इस मुल्क में हमारे अपने कायदे-कानून हैं, जिनसे यह संप्रभु राष्ट्र संचालित होता है. उत्तराखंड की औरतों का जवाब कानून की किस किताब में मिलेगा? उत्तराखंड जहां कल था, वहीं आज भी है. गुरुत्व जड़ता का नियम उस पर क्यों नहीं लागू होता? ये औरतें आज पुरु ष के मरने तक की दुसह पीड़ा झेलने को तैयार हैं, कल को अपनी आजादी की कामना के तराने गाएंगी, परसों वे बहुत आसानी से पूछ सकती हैं-यह मुलुक क्या होता है जी और कैसे बनता है कोई मुलुक? है किसी के पास इस सवाल का जवाब? अपने ही मुलुक का हिस्सा है. राजनीति के मकडज़ाल में फंसे उत्तराखंड में जैसे हालात केदारनाथ आपदा के समय थे, ठीक वैसे ही हालात आज भी है. जहां-तहां पहाड़ खिसक रहे है, मैदानी इलाके बरसात के पानी में डुबकियां लगा रहे है. जन-जीवन अस्त-व्यस्त सा है. पहाड़ों को चीर कर बनाई गई आधी-अधूरी सड़के इंसानों को चीर रही है. आए दिन फटते बादलों ने इंसानों में वो खौफ पैदा कर दिया है कि गांव के गांव खाली होते जा रहे है. श्रीदेवसुमन से लेकर हेमवती नंदन बहुगुणा और विकास पुरुष एनडी तिवारी की जन्मभूमि रहा-यह सूबा. आज भी संपूर्ण विकास से अछूता है. विकास के नाम पर जिन क्षेत्रों के तराने गाए जाते है, वो भी मुख्य मार्गो पर ही स्थित है. दूरस्थ इलाकों के हालातों की कहानी तो तब बयां हो, जब वहां तक आने-जाने के साधन हो. मीलों दूर पहाड़ों में चढऩे-उतरने के बाद इतनी भी हिम्मत नहीं होती दो पल चैन से बैठकर हालात को समझा जाए. स्कूल है तो मास्साब नहीं, मास्टर जी है तो बच्चे नहीं. आखिर यह कैसा उत्तराखंड है. पानी न बिजली फिर पहाड़ से लगाव. अपना घर अपना ही होता है. लेकिन घर में खाना पकाने को लकड़ी के चलते जंगल-जंगल काट डाल गए. जंगली जानवर आबादी में घुसे चले जाते है. अगर सच में आजादी मिलने और उत्तराखंड राज्य बनने के बाद विकास कार्य किए गए होते तो पहाड़ से पलायन रुक जाना चाहिए था, वहां के औसत आदमी के पास जरूरत के हिसाब से आय के साधन होने चाहिए थे. कितना आसान होता है, लालकिले से यह कहना कि हम चौतरफा संकट में हैं, कि आंतरिक उग्रवाद हमारे लिए आतंकवाद से भी गंभीर समस्या है और कितना त्रासद होता है बुनियादी जरूरतों का सपना बन जाना? इस भाषणभक्षी देश को वाकई यह समझाना बहुत जरूरी है कि चिल्लाना क्यों और कब लाजिमी हो जाता है? कैसा है यह ताना-बाना जिसमें तिलिस्म बेशुमार हैं और सपनों को परवाज मिल पाने के मौके गाहे-बगाहे? जो गूंजेंगे, वे बेशक सवाल ही होंगे- चाहे गोली की शक्ल में हों या गाली की. पहले यह तय तो हो कि घर को बचाना जरूरी है, सजाना तो बाद का काम होता है.

रविवार, 24 जुलाई 2016

अपशब्दों का प्रयोग मतलब बहादुरी

इंसान को पता नहीं क्या हो गया है, वह आम बोलचाल में भी अपशब्दों का बेधड़क इस्तेमाल ऐसे करता है जैसे बहुत ही बहादुरी का काम हो. घर हो या ऑफिस या फिर कहीं भी वह मुस्कराते हुए अमर्यादित शब्दों की ऐसी बौछार करता है, जैसे अमृतवाणी हो. कहा जाता है जैसा अन्न खाए, वैसी ही वाणी बोले. अब इसमें अन्न का क्या दोष. क्या रोटी-सब्जी, दाल-चावल, चीनी ने कहा कि मुझको खाओ और अव्यवहारिक शब्दों का ज्ञान बढ़ाओ. समझ में नहीं आता है इंसान अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय फिजूल में दूसरे पर आरोप लगाने से कब बाज आएगा. इन शब्दों के फलस्वरूप पता चलता है कि इंसान का दिमाग कितना तेज है, क्योंकि इन शब्दों को सिखाने के लिए किसी स्कूल या ट्रेनिंग  की जरूरत भी नहीं होती और न ही ऐसा कुछ सीखने के लिए कोई कहता है.  जिसके पास अपशब्दों का जितना बड़ा भंडार होता है, वह उतना ही बहादुर माना जाता है. मजेदार बात यह है कि इनको किसी भी ग्रंथ में संग्रहित नहीं किया गया है, फिर भी यह इतने प्रचलित हैं कि बच्चा-बच्चा इन शब्दों को जानता है, फिर जब वह तोतली जुबान से इनको अपने मुंह से बाहर निकालता है, तब हमको बहुत आनंद मिलता है और बच्चे से बार-बार कहते हैं, बेटा अंकल को सुनाओ, तुमने अभी क्या कहा था और अंकल भी ऐसे कि वह फूल कर कुप्पा हो जाते है, अरे भाई बहुत अच्छा बेटा बाप पर गया है. अब बालमन पर इस बात क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो आने वाले वक्त में उस बालक के पिता को अपने जीते-जी ही पता चल जाता है. मीडिया और फिल्म वाले भी इन अपशब्दों की महिमा से अछूते नहीं रह सके. ऐसा उनकी फिल्मों या टीवी सीरियल्स को देख या सुनकर महसूस किया जा सकता है. जिसमें जितने ज्यादा अपशब्दों का प्रयोग होगा वह उतना ही हिट होगा. जहाँ हर शहर, हर गांव, हर घर में सुबह-शाम शुद्घ वातावरण में भगवान की पूजा होती हो, जहां बड़े बुजुर्ग हरिनाम के सहारे अपना जीवन व्यतीत करते हुए अपने अनुजों को ईश्वर की भक्ति में रमने का संदेश देते हो, वहां पर इन अपशब्दों को कैसे जगह मिल जाती है, जबकि सभी जानते हैं कि हम जो बोल रहे हैं, दूसरा हमारे लिए भी कह रहा होगा. यह जानते हुए भी हम इन पर रोक लगाने में नाकाम साबित हो रहे हैं. समझ में नहीं आता है कि जो हमको सीखना है, जो हमको करना है, जिसकी वजह से हमारा छोटा-सा घर-संसार स्वर्ग जैसा बन सकता है, उस पर ध्यान न देकर, इन फिजूल के अपशब्दों में अपनी ऊर्जा लगा देते हैं,  जबकि इन अपशब्दों के प्रयोग के बिना भी हम अपने रोजमर्रा के कामों को बेहतरीन तरीके से करते हुए, बेहतर जीवन बिता सकते हैं. पर पता नहीं क्यों हम ऐसा नहीं कर पाते. अब इसमें माहौल या खान-पान का क्या दोष. समझ में नहीं आता कि आखिर यह अपशब्द इतिहास के पन्नों में दफन होंगे भी या ऐसे ही दिनों-दिन फैलते हुए समाज को दूषित करते रहेंगे. 

मंगलवार, 7 जून 2016

इंसानी जिद में दफन हो गए पेड़



जून की उमस भरी दोपहरी में मानसून का इंतजार. ईंट गारे से चीनी गई दीवारों के बीच कुर्सी पर बैठकर आंगन में लगे एक अदद जामुन के पेड़ को याद करना, काश वह पेड़ न काटा गया होता, तो कमरा गर्म न होता. जामुन खाने को मिलते वो अलग. उस पेड़ को काटने की वजह सिर्फ एक ही थी, उससे झड़ने वाले पत्तों से होने वाली गंदगी. बस सब कुछ साफ-सुथरा सा दिखे. बस इसलिए उस फलदार व छायादार पेड़ को काट दिया गया. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी की तर्ज पर न रहेगा पेड़ न रहेगी गंदगी. और न ही हल्ला-गुल्ला. हल्ला-गुल्ला इसलिए कि गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों का जामुन के पेड़ के इर्द-गिर्द ही रहना कि कब जामुन गिरे और हमको खाए. न गिरे तो उनको तोड़ने की जुगत लगाना. उसके लिए कभी लंगड बनाना तो कभी लंबे डंडे में कील फंसा कर जामुन से लदी डाल तक पहुुंचने की कोशिश में चिल्लाना. इस बीच पड़ोस में गांव से किसी मेहमान का आना और उसका ये कहना कि पेड़ पर चढ़कर ही जामुन तोड़ दे क्या, तो समझो जन्नत ही मिल गई. फिर क्या आनन-फानन में जामुन ढेर लग जाना. फिर किसकी गर्मी किसकी परवाह. बस कटोरियों में जामुन और बच्चों का हल्ला. जब तक पेड़ रहा तब तक बच्चों में गर्मियों में अलसुबह उठने की आदत बनी रही. इसका कारण था कि रात में गिरने वाले जामुनों को समेटने की ललक. जो सबसे पहले उठता था वो दिन अपने इकट्ठे किए जामुनों को दिखा-दिखाकर दिन भर बच्चों को चिढ़ाया करता था. इस सबसे अलग पेड़ की छांव में लूडो, सांप-सीढ़ी या कैरम खेलने में जो मजा आता था, वो अब कमरे में पंखे के नीचे बैठकर कम्प्यूटर गेम खेलने या मोबाइल चलाने में कहां है. पेड़ काटकर हमने अपना घर-आंगन तो साफ-सुथरा कर लिया, लेकिन मन को अशांत करने के साथ ही वायु को भी दूषित कर दिया. वनडे स्टाइल में शुद्ध हवा-पानी के लिए पहाड़ों की सैर से क्या फायदा. लेकिन बिगड़ते पर्यावरण के चलते मानसून के आने की टाइमिंग भी गडबड़ा सी गई है. ऐसे में सिर्फ विद्युत कटौती होने से बस पेड़ का ही सहारा था, लेकिन वो भी नहीं है.
एक पेड़ जब मन को इतना सुकून दे सकता है, खाने को फल, गर्मी से राहत और शुद्ध वायु तो हरे-भरे पेड़ों पटा जंगल इंसानों को कितनी राहत दे सकता है. लेकिन हर कोई अपना फायदा ही देखता है इंसान ने जंगल काट दिए अपने फायदे के लिए तो प्रकृति ने कहर बरपा दिया अपने विस्तार के लिए. जब इंसानी इच्छाओं पर रोक नहीं लगाई जा सकती तो नदियों के बहाव को कैसे रोका जा सकता है, परिणामस्वरूप जब नदिया अपने रौद्र रूप में आती है तो गांव-गांव के बह जाते है उसके बहाव में, शहर के शहर डूब जाते है उसकी गहराई में. अंधाधुंध विकास की दौड़ में नदियों पर बांध बनाना, पहाड़ों में सुरंगों का निर्माण, जंगलों में स्मार्ट सिटी के प्रोजेक्ट को मूर्त रूप देना, हाईटेक होने के लिए मोबाइल टॉवर्स के जरिए हवा में रेडिएशन फैलाना मानव जीवन को कहां ले जाएगा, इस सवाल का जवाब तो आने वाले समय में ही मिलेगा. लेकिन फिलहाल बदलते और प्रदूषित होता पर्यावरण आज इतना भयानक रूप ले चुका है कि आए दिन दुनिया भर से भूंकप, बाढ़, तूफान की खबरे आती रहती है, जिसमें लाखोें करोड़ों की क्षति के साथ हजारों इंसानों को मौत की नींद सो जाते है. ऐसा क्यों हो रहा है इसके लिए अपने गिरेबां में झांक कर देखने की जरूरत है कि जब पेड़ ही नहीं होगे तो पानी, वर्षा और वायु प्रदूषण का खतरनाक खामियाजा इंसान को ही चुकाना होगा.
आज महानगरों में सांस लेने के लिए शुद्ध हवा तक मयस्सर नहीं है, शहर की सड़कों पर बेतरतीब ढंग से दौड़ते वाहनों से निकलता काला धुंआ इंसानी जिंदगी को काला ही करता जा रहा है. कंक्रीट के जंगलों के लिए पेड़ों को दफन करके हाउसिंग प्रोजेक्ट को मंजूरी और हाइवे के चौड़ीकरण के लिए पेड़ों को कटान के चलते पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है. साथ ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नदियों पर बांध बनाने के पहाड़ों को काटना. हमने विकास के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन प्राणवायु देने वाले पेड़ों को बचाने के लिए सेमिनार और जागरूकता अभियानों से आगे कुछ नहीं. अगर समय रहते नहीं चेते तो आने वाले समय में हमारे देश में भी चीन जैसे हालात हो जाएंगे, जहां सांस लेने के लिए भी पॉलीथिन में हवा खरीदनी होगी. यूं भी पीने का पानी तो बोतलों में खरीदा ही जा रहा है. सिर्फ एक दिन झंडे उठाने या सेमिनार करने भर से पर्यावरण को शुद्ध नहीं किया जा सकता है. इसके लिए ईमानदारी से धरातल पर काम करने की आवश्यकता है, सेमिनार, जागरूकता अभियान अपनी जगह सही हो सकते है, पर इससे भी ज्यादा जरूरी है अपने घर-आंगन में लगे पेड़-पौघों को कटने से बचाना. अगर बूंद-बूंद करके घड़ा भरता है तो पेड़ दर पेड़ बचाकर भी पर्यावरण को बचाने में सहयोग दिया जा सकता है.

बुधवार, 4 मई 2016

पहाड जैसे हौसलो को तो नेताओं ने रूलाया

पानी ने बहाया न आग ने जलाया
पहाड जैसे हौसलो को तो नेताओं ने रूलाया
अपनी मस्ती में मस्त उत्तराखंड के नेताओं ने प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए समय पर समुचित उपाय नहीं किए. नतीजा, तबाही और बर्बादी. तीन वर्ष पूर्व केदारनाथ की जल आपदा हो या वर्तमान में जंगलों का धधकना. जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के चलते ही इन दोनों ने विकराल रूप धारण कर लिया. केदारनाथ में तत्कालीन सरकार को भी तीन दिन बाद ही मालूम चला था कि केदारनाथ में कुछ हो रहा है. उसके बाद भी राहत कार्यों में हीला-हवाली के चलते करोड़ों की संपत्ति का नुकसान तो हुआ ही साथ ही हजारों मासूमों की मौत हो गई. इस बार भी राजनीतिक अस्थिरता के चलते जंगलों की ओर ध्यान ही नहीं दिया, नतीजतन छोटी-मोटी जगहों पर लगी आग ने भी विकराल रूप धारण कर लिया. मामले की गंभीरता को देखते हुए केंद्र सरकार ने अंतिम समय में राहत दलों के साथ ही सेना को भी जंगलों को बचाने के लिए मैदान में उतार दिया. यहां पर भी सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि गांव के समीपवर्ती जंगलों में लगी आग को बचाने के लिए जिस युवा शक्ति की जरूरत होती है, उसने तो रोजी-रोटी के अभाव में गांवों से पलायन कर दिया है. तब ऐसे में गांवों में बचे-खुचे बुजुर्गों के भरोसे जंगल की आग को कैसे बुझाया जा सकता है. गांव-गांव से पलायन रोकने के लिए घोषणाएं यदा-कदा होती ही रहती है. लेकिन इस दिशा में ठोस उपायों को धरातल पर उतारना ठीक वैसा ही रहा है जैसे आसमान से तारे तोड़ना. बात बेवकूफकाना हो सकती है लेकिन फिर भी जरा सोचिए पहाड़ों में रोजगार के समुचित साधन होते, मूलभूत समस्याओं को समय पर सुधार लिया जो तो क्या आज जंगलों की आग भयानक रूप धारण कर पाती. माना 16 साल एक राज्य के समुचित विकास के लिए ज्यादा नहीं होते, लेकिन इतने भी कम नहीं होते कि कुछ हो ही न पाए. चलिए मान लिया नया-नया राज्य है, तो इससे पहले क्या कोई अलग देश था जो 16 साल पहले ही भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बना है. बातों को कितना भी घुमा लिया जाए, लेकिन सच तो यही है आजादी के इतने सालों बाद भी पहाड़ में सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की समस्याएं जस की तस ही है. पहाड़ी जंगलों में लगी आग के पीछे युवा शक्ति का पलायन ही महत्वपूर्ण कारक है.

गुरुवार, 31 मार्च 2016

गलतियां खुद की और आरोप दूसरों पर

20टी विश्वकप में भारत-आस्ट्रेलिया मैच में विराट कोहली की धमाकेदार पारी की धूम है. लेकिन कही अगर ओवर ही समाप्त हो जाते तो विराट भी क्या कर लेते. वह तो समय से पहले संभल गए और कंगारुओं की बैंड बजा दी. बात इतनी सी है कि कामयाबी के लिए समय से पहले संभल जाना ही बेहतर होता है. समय बीत जाने के बाद हाथ मलने के सिवाय कुछ नहीं बचता. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत अगर समय से पहले अपने विधायकों को मना लेते तो शायद राज्य में राष्ट्रपति शासन की नौबत ही न आती. विधायक बागी हो गए. मुख्यमंत्री ने विधानसभा अध्यक्ष से बागियों की सदस्यता खत्म करने की गुहार लगा दी. उधर केंद्र की भाजपा सरकार ने विधायकों की विधायकी बचाने के लिए विधानसभा को निलंबित करने का निर्णय करने में कुछ घंटे की देरी क्या की, उधर विधानसभा अध्यक्ष ने उनकी विधायकी निरस्त करने का फैसला सुना दिया. उत्तराखंड के प्रकरण में गलती खुद कांग्रेस की और दोष मढ़ दिया विपक्षी भाजपा पर. कांग्रेस खुद अपने विधायकों को संतुष्ट में नाकाम साबित हुई. यूं भी तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्षियों की मंशा तो सरकार को गिराने की ही रहती है. लेकिन जब पक्ष में ही फूट पड़ जाए तो कहने ही क्या, सोने पर सुहागा. सत्ताशीन कांग्रेस की आपसी फूट को हाथोहाथ लेते हुए विपक्षी भाजपा ने भी सरकार पर हमला बोल दिया. उस पर भी केंद्र में ही जब भाजपा ही काबिज हो. तब ऐसे में केंद्र का समर्थन तो मिलना ही था. कहते है न समय कभी किसी एक का नहीं होता. उसका चक्र घूमता रहता है, कभी इस ओर तो कभी उस ओर. आज हरीश रावत अपने बागियों पर आरोप लगा रहे है कि उन्होंने पार्टी की मर्यादाओं को तोड़ा है, तो शायद रावत यह भूल गए कि उन्होंने भी केंद्रीय मंत्री रहते हुए तीन साल पहले अपनी ही पार्टी विजय बहुगुणा को कुछ इसी अंदाज में मुख्यमंत्री पद से विदा करवाया था. तब हरीश रावत सही थे तो आज विजय बहुगुण और बागी भी सही है, अगर आज कांग्रेस के बागी विधायक गलत है तो उस समय हरीश रावत भी गलत थे. गलतियां खुद की और आरोप दूसरों पर, यह तो पुरानी आदत है, क्या करें उत्तराखंड का दुर्भाग्य कहे या नेताओं की पहाड़ जैसी महत्वकांक्षाएं और उनके बोझ तले दबे पहाडि़यों के सपने. आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो का नारा बुलंद न होता तो शायद आज पहाडि़यों को यह दिन न देखना पड़ता. अभी भी संभला जा सकता है, शायद विराट कोहली की धमाकेदार पारी से कुछ ही प्रेरणा मिल जाए और चुनाव के वक्त पहाड़वासी अपने मत का प्रयोग ईमानदारी से करके उत्तराखंड की तस्वीर और तकदीर ही बदल डाले. बस इसी इंतजार में.

बुधवार, 23 मार्च 2016

.... फिर भी आजादी चाहिए

अन्ना हजारे की तुलना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से करने का परिणाम देखा है. दिल्ली की गद्दी के चक्कर में अन्ना और उनके विचारों को उनके अनुयायियों ने ही फ्रीज कर दिया. तो इस बात की क्या गारंटी है कि आज कन्हैया की तुलना शहीद भगत से करने वाले भविष्य में कन्हैया और उसकी विचाराधारा को बट्टे-खाते में नहीं डाल देंगे. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और शहीद भगत ने उस दौर में आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया जब भारतीयों पर अंग्रेजों के अत्याचारों की अति हो गई थी. लेकिन आज अन्ना हो या कन्हैया इन दोनों को अपनी पहचान तक जिंदा रखने के लिए भारत की महान विभूतियों के नामों का सहारा लेना पड़ रहा है. मजेदार बात यह है कि जिस कांग्रेस के पथप्रदर्शक महात्मा गांधी रह चुके हों उसी कांग्रेस के नौनिहालों को राजनीति की महाभारत में कन्हैया को पोस्टर ब्वॉय बनाना पड़ रहा है. इस बात को समझना होगा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और शहीद भगत सिंह जो भारतीयों के लिए कर गए हैं, उसके बाद किसी भारतीय के लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है. बाकी तो सब आजाद है.....  फिर भी आजादी चाहिए. है न अद्भुत, गजब.

सोमवार, 7 मार्च 2016

हद कर दी आपने...

गैर भाजपाइयो ने तो हद ही कर दी, कम से कम उनको जनमत का तो सम्मान करना ही चाहिए. उन्हें याद रखना चाहिए भाजपा ने अपनी मर्जी से नहीं जनमत से सरकार बनाई है और वो भी प्रचंड बहुमत से. जनमत को नकारने के परिणाम असहनीय होते है. जिस पीएम को दुनिया हाथो-हाथ ले रही है उसको विपक्ष कुछ समझता ही नही. प्रधानमंत्री पद का आदर और गरिमा जैसे शब्दों की तो बात ही करना बेकार है. दूसरी ओर जेएनयू से भले क्रीम निकलती हो, लेकिन उस क्रीम का क्या फायदा जो साठ साल से देश के चेहरे पर चमक तक न ला पाए. देश भर के होनहारों को एक परिसर मे एकत्र करके कहते है यह अव्वल दर्जे की यूनिवर्सिटी है. फिर कांग्रेस की सरकार प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के नाम पर स्थापित यूनिवर्सिटी के बदनुमा राजों को जगजाहिर भी करती तो कैसे?
न्यूज चैनल्स तो कन्हैया को ऐसे कवर रहे है कि वो जेल से जमानत पर नही पीएम मोदी को चुनाव मे हरा कर आया है और बस पीएम पद की शपथ ग्रहण करना बाकी है. जरूरत से ज्यादा मीडिया कवरेज दिमाग खराब कर देती है. रिसर्च स्कॉलर कन्हैया को भी समझना चाहिए कि शब्दों की चाशनी से नारे तो बनाए जा सकते है लेकिन सच को झूठ और झूठ को सच नही बनाया जा सकता. वह जिस गुलामी से आजादी के लिए क्रांति की मशाल उठा रहा है उसको बढावा कांग्रेस ने ही दिया है. सब कुछ ठीक है, हर बात को पचाया जा सकता है, लेकिन इस बात को कैसे मान लिया जाए कि देश के नामीगिरामी विश्वविद्यालय में देश विरोघी नारे लग जाए और राजनेता उन युवाओं को दंडित या समझाने की बजाय उस प्रकरण का पोस्टमार्टम करने पर उतारू हो जाए. जिन सांसदों ने जनमत का सम्मान नहीं किया वह सरकार की क्या सुनेंगे. चलो मान लिया जेएनयू प्रकरण में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने झूठ ही कह दिया कि हाफिज के इशारे पर भारत के खिलाफ नारेबाजी हुई. लेकिन विपक्ष का इस बात पर भड़कना और उनसे सबूत मांगना, वह भी उस शख्स के समर्थन में जो भारत का सबसे बड़ा दुश्मन है. सही नहीं है. किसी भी बात की हद होती है. इन लोगों को याद रखना चाहिए कि हाल ही में पाकिस्तान में एक शख्स को सिर्फ इसलिए जेल में डाल दिया गया कि उसने भारतीय क्रिकेटर के समर्थन में तिरंगा लहरा दिया था.

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

सबसे बड़ा तीर्थ : माता-पिता का घर

लोग अपने घर में मौजूद भगवान रूपी माता-पिता को छोडक़र उन अदृश्य भगवान की खोज में तीर्थस्थलों पर मारे-मारे फिरते है. या अपने घर में मौजूद मॉ को दुखी छोडक़र पूरी रात मां का जागरण कराने के लिए बेताब रहते है. यह एक सच है कि जब तक बच्चें घर नहीं आते, मां को नींद नहीं आती. ऋषि-मुनियों की सर्वोच्चतम कल्पना शक्ति के बल पर रचित बेहतरीन रचनाओं पर विश्वास किया जाए, तो हर काम की शुरूआत गणेश जी की आरती से करने वालों को गणेश जी पर विश्वास तो करना चाहिए. ब्रमाण्ड में सर्वश्रेष्ठ कौन को लेकर गणेश जी ने ब्रमाण्ड की परिक्रमा करने की बजाए अपने बुद्घि कौशल के बल पर अपने माता-पिता की परिक्रमा कर सर्वप्रथम पूज्य का सम्मान हासिल कर लिया था. माता-पिता का दर्जा तो भगवान से भी ऊपर होता है, और सबसे बड़ा तीर्थस्थल वह होता है, जहां यह दोनों वास करते है. माना कि सृष्टि को चलाने वाले भगवान है, पर उनका अस्तित्व तो सिर्फ कल्पनाओं में ही है, उनको आज तक किसी ने साकार रूप में देखा नहीं. हमारे ऋषि-मुनि बहुत अव्वल श्रेणी के लेखक थे. उनकी कल्पना शक्ति की कोई थाह नहीं थी. तभी तो उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में तीन किरदारों का इतना बेहतरीन वर्णन करते हुए महाकाव्यों की रचना कर दी कि आने वाली पीढिय़ों को भगवान के अस्तित्व पर यकीन हो गया. साथ ही चित्रकारों ने इन ऋषि-मुनियों की कथाओं के किरदारों का अपनी कल्पना के आधार ऐसा चित्रण किया कि वो सजीव हो गए और सदियों से इस जगत के प्राणी हे भगवान, हे भगवान करते हुए उनकी एक झलक को यहां-वहां भटक रहे है. इन चित्रों में सबसे बड़ी बात देखने को मिलती है कि भगवान का बाल रूप, युवावस्था तो दिखाई देती है पर कभी भगवान का वृद्घावस्था का चित्र नहीं दिखता. यह तो सृष्टि का कटु सत्य है कि जो उत्पन्न हुआ है, उसका क्षरण होगा ही, और आज तक ऐसा ही होता आया है. तो फिर हमारे 84 करोड़ देवी-देवताओं में किसी एक का भी वृद्घावस्था का चित्र क्यों नहीं दिखता. सच्चाई यह है कि भगवान को कभी किसी ने देखा तक नहीं, बस अपनी कल्पना के आधार पर भगवान भगवान करते हुए अपने अधे-कचरे ज्ञान के भरोसे सीधी-साधी जनता को सदियों से बेवकूफ बनाते चले जा रहे है. कभी सोचिए इन विद्घानों या राजा-महाराजाओं को द्वारा स्थापित तीर्थस्थलों में प्रतिदिन के हिसाब से करोड़ो-अरबों की संपत्ति का चढ़ावा आता है. क्या इस सम्पत्ति का उपभोग सिर्फ भगवान करते है, नहीं यह संपत्ति तो सिर्फ इन व्यवस्थाओं पर अपना एकाधिकार जमाने वालों के ऐशोआराम के लिए ही एकत्रित की जाती है. दूसरी ओर यह पब्लिक है, सब जानती है का दावा करने वाली पब्लिक हकीकत में कुछ नहीं जानती है. वह सिर्फ उस अदृश्य भगवान के प्यार में पागल होकर अपने माता-पिता के जीवन को कष्टमय करते हुए इन महापोंगापंथी पंडितों के ऐशोआराम की हर चीज उपलब्ध कराने के लिए तीर्थस्थलों पर अपनी खूनपसीने की कमाई को खुले हाथों से लूटा कर चली आती है, और कहती दानपुण्य भी करना चाहिए. अब कोई सोचो वह दानपुण्य भी किस काम का जब अपने माता-पिता ही खुश न हो सके. यहां पर एक बात हो सकती है. अगर अपने माता-पिता को सुख-सुविधा की हर चीज उपलब्ध कराने की हैसियत न हो तो कम से कम उनको दुख तो न दिया जाए, जबकि आजकल कितने ही माता-पिता अपने बच्चों की करनी का फल भुगतते थाना, कचहरी या अस्पताल में थानेदार, वकील या डॉक्टर के पास गिड़गिड़ाते नजर आ ही जाते है, जबकि दूसरी ओर उनके सुपुत्र या पुत्रवधू किसी पंडित या ज्योतिषी की शरण में अपने कष्टों के निवारण के लिए अच्छी खासी दक्षिणा के साथ बैठे रहते है. जबकि दूसरी ओर हमारे जनक हमारे सामने साक्षात मौजूद है. अगर भगवान न होते तो तब भी हम इस धरती पर आते, क्योंकि हमारे माता-पिता ने हमको जन्म देने का फैसला कर दिया था. आज हम इतने मतलबी क्यों होते जा रहे है कि उनके शेष जीवन को सुखमय करने की बजाय दुःखमय बनाते जा रहे है. यहां पर कुछ अपवाद हो सकते है.