रविवार, 24 जुलाई 2016

अपशब्दों का प्रयोग मतलब बहादुरी

इंसान को पता नहीं क्या हो गया है, वह आम बोलचाल में भी अपशब्दों का बेधड़क इस्तेमाल ऐसे करता है जैसे बहुत ही बहादुरी का काम हो. घर हो या ऑफिस या फिर कहीं भी वह मुस्कराते हुए अमर्यादित शब्दों की ऐसी बौछार करता है, जैसे अमृतवाणी हो. कहा जाता है जैसा अन्न खाए, वैसी ही वाणी बोले. अब इसमें अन्न का क्या दोष. क्या रोटी-सब्जी, दाल-चावल, चीनी ने कहा कि मुझको खाओ और अव्यवहारिक शब्दों का ज्ञान बढ़ाओ. समझ में नहीं आता है इंसान अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय फिजूल में दूसरे पर आरोप लगाने से कब बाज आएगा. इन शब्दों के फलस्वरूप पता चलता है कि इंसान का दिमाग कितना तेज है, क्योंकि इन शब्दों को सिखाने के लिए किसी स्कूल या ट्रेनिंग  की जरूरत भी नहीं होती और न ही ऐसा कुछ सीखने के लिए कोई कहता है.  जिसके पास अपशब्दों का जितना बड़ा भंडार होता है, वह उतना ही बहादुर माना जाता है. मजेदार बात यह है कि इनको किसी भी ग्रंथ में संग्रहित नहीं किया गया है, फिर भी यह इतने प्रचलित हैं कि बच्चा-बच्चा इन शब्दों को जानता है, फिर जब वह तोतली जुबान से इनको अपने मुंह से बाहर निकालता है, तब हमको बहुत आनंद मिलता है और बच्चे से बार-बार कहते हैं, बेटा अंकल को सुनाओ, तुमने अभी क्या कहा था और अंकल भी ऐसे कि वह फूल कर कुप्पा हो जाते है, अरे भाई बहुत अच्छा बेटा बाप पर गया है. अब बालमन पर इस बात क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो आने वाले वक्त में उस बालक के पिता को अपने जीते-जी ही पता चल जाता है. मीडिया और फिल्म वाले भी इन अपशब्दों की महिमा से अछूते नहीं रह सके. ऐसा उनकी फिल्मों या टीवी सीरियल्स को देख या सुनकर महसूस किया जा सकता है. जिसमें जितने ज्यादा अपशब्दों का प्रयोग होगा वह उतना ही हिट होगा. जहाँ हर शहर, हर गांव, हर घर में सुबह-शाम शुद्घ वातावरण में भगवान की पूजा होती हो, जहां बड़े बुजुर्ग हरिनाम के सहारे अपना जीवन व्यतीत करते हुए अपने अनुजों को ईश्वर की भक्ति में रमने का संदेश देते हो, वहां पर इन अपशब्दों को कैसे जगह मिल जाती है, जबकि सभी जानते हैं कि हम जो बोल रहे हैं, दूसरा हमारे लिए भी कह रहा होगा. यह जानते हुए भी हम इन पर रोक लगाने में नाकाम साबित हो रहे हैं. समझ में नहीं आता है कि जो हमको सीखना है, जो हमको करना है, जिसकी वजह से हमारा छोटा-सा घर-संसार स्वर्ग जैसा बन सकता है, उस पर ध्यान न देकर, इन फिजूल के अपशब्दों में अपनी ऊर्जा लगा देते हैं,  जबकि इन अपशब्दों के प्रयोग के बिना भी हम अपने रोजमर्रा के कामों को बेहतरीन तरीके से करते हुए, बेहतर जीवन बिता सकते हैं. पर पता नहीं क्यों हम ऐसा नहीं कर पाते. अब इसमें माहौल या खान-पान का क्या दोष. समझ में नहीं आता कि आखिर यह अपशब्द इतिहास के पन्नों में दफन होंगे भी या ऐसे ही दिनों-दिन फैलते हुए समाज को दूषित करते रहेंगे. 

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