सोमवार, 30 मई 2022

हर फिक्र को धुएं में ...

 वर्ल्ड टोबैको डे स्पेशल



मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.

हिंदी फिल्म हम दोनों में देवानंद पर फिल्माएं इस गीत के बोल भले ही किसी को याद न हो, पर उनकी सिगरेट के धुएं में हर फ्रिक को उड़ाने की बात पर आज की पीढ़ी जरूर अमल कर रही है. अपनी हैसियत के अनुसार धुएं में अपनी फिक्र को उड़ाने वालों को मालूम ही नहीं चलता कि खुद उन पर और उनके परिवार कब दुखों का पहाड टूट जाता है. मजेदार बात यह है बेहोशी के आलम में रहना आज स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. जिसकी जितनी महंगी सिगरेट, वह उतना ही अमीर व इज्जतदार. जब एक सिगरेट के धुएं में अपनी सभी चिंताएं दूर होती हो, तो फिर फेफड़ों के जलने का दर्द भी महसूस नहीं होता. फिर चाहे इस धुएं में जान जा रही हो, सांस हांफ रही हो. लहू के रंग की रंगत उड़ रही हो.परिवारों की खुशियां उजड़ रही हो. धुएं की धार में धूप धूमिल हो रही हो ये पीढ़ी खुद यूं ही अपनी कब्र खोद रही हो. इस धुएं में जान जा रही है. हर कोई जानता है, समझता है, कहता है कि सिगरेट पीना जिंदगी के लिए हानिकारक है. यहां तक सिगरेट के पैकेट पर वैधानिक चेतावनी होती है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. लेकिन फिर भी सब पीते है, जीते है और अपनी फिक्र को धुएं में उड़ा देते है. इससे ज्यादा क्या कहा जा सकता है सिगरेट के दुष्प्रभावों पर होने वाले सेमीनारों में शामिल होने वाले डॉक्टर्स या एक्सपर्ट्स खुद अपने तनाव को इसी सिगरेट के धुएं में उड़ा कर लेक्चर देते है. अब यह दुविधा वाली बात ही तो हुई कि जब सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, तो फिर सरकार इसके निर्माण और बिक्री पर ही रोक क्यों नहीं लगा देती, जबकि वह इसके उलट इस पर टैक्स लगाकर अपनी कमाई में बढ़ोत्तरी करने के लिए प्रयास में लगी रहती है. दूसरे अपनी आराम तलबी में खलल न पड़े, अपनी फिक्र को दूर करने के लिए कोई मेहनत न करनी पड़े, तो सिगरेट ही एक सहारा हो जाता है. क्योंकि इसके धुएं में अपनी हर फिक्र दूर जो हो जाती है. एक बहुत छोटी सी बात, जरा भी तनावपूर्ण माहौल बना नहीं, कि एक वाक्‍य सुनने को मिल ही जाता है, चलो यार जरा सिगरेट पीकर आ जाए.

रविवार, 29 मई 2022

समाज की दशा व दिशा तय कर रहा है मीडिया

 (पत्रकारिता दिवस पर विशेष:)



सामाजिक ढांचे में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. तकनीकी रूप से मजबूत मीडिया आज समाज की दशा व दिशा तय कर रहा है. यह अलग बात है कि वह अपने इरादों में कितना कामयाब होगा. हाल फिलहाल में हुई कुछ घटनाएं इस बात का जीता-जागता उदाहरण है. कुछ समय पूर्व भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक शख्स की आवाज को रातों-रात पूरे देश की आवाज बनाने की बात हो या दिल्ली में एक युवती के साथ गैंग रेप की घटना हो. इन दोनों मामलों में मीडिया की सकारात्मक भूमिका से इनकार नहीं किया जाा सकता. इससे साबित हो जाता है कि मीडिया को यूं ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ नहीं कहा जाता. मीडिया के बढ़ते कदमों व नई तकनीक का असर है कि किसी भी जगह पर हुई घटना को कहीं पर भी टीवी पर सीधे प्रसारण के जरिए देखा जा सकता है. संसद या विधानसभा में जनप्रतिनिधियों की हरकतों को भी इसी मीडिया ने देशवासियों को दिखाया. वरना इससे पहले तक हर कोई ईमानदार ही दिखता था. जहां पहले हर किसी को जानकारी हासिल करने के लिए सिर्फ समाचार पत्रों का इंतजार ही रहता था, वहीं इसमें न्यूज चैनल्स भी शामिल हो गए. साथ ही अब इस सोशल मीडिया भी शामिल हो गया है. सोशल नेटवर्किंग साइट्स के अस्तित्व में आने के बाद अब मीडिया में गलाकाट प्रतियोगिता का आगाज हो गया है. एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटकती जा रही है. अखबार व न्यूज चैनल्स को मैनेज किया जा सकता है, लेकिन सोशल नेटवर्किंग साइटस पर लगाम कसना फिलहाल नामुमकिन सा ही है. इन साइटस ने जब ईमानदारी से अपने ताकत का अहसास कराया तब ही मिस्र में क्रांति के जरिए सत्ता परिवर्तन हो गया. अभी तक अखबार और न्यूज चैनल्स का महत्व था, लेकिन अब इनसे तेज गति से सूचनाओं को एक-दूसरे तक पहुंचाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइटस भी शामिल हो गई है. अब कहा जा सकता है कि आप जैसा चाहे वैसे समाज का निर्माण कर सकते है. इन साइटस पर कोई अपनी अभिव्यक्ति को अपने तरीके से जाहिर कर सकता है. जब कोई विचार मन से बाहर निकल जाता है, तब उस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता. उस विचार के इर्द-गिर्द ही समाज घूमने लगता है. कहने का आश्य है कि इन साइटस पर अपने भावों व विचारों को प्रेषित करते हुए इस बात का ध्यान रखा जाएं कि हम समाज को किस दिशा में ले जाना चाहते है.

गुरुवार, 12 मई 2022

लक्ष्मण झूला

 


ओ रे मांझी ले चल मुझे गंगा पार। क्योंकि गंगा तट पर ऋषिकेश में अंग्रेजों के जमाने में बने लक्ष्मण झूला पुल को आवाजाही के लिए सुरक्षा की दृष्टि से बंद कर दिया गया है। कभी-कभी कम यात्री होने पर आवाजाही के लिए खोल दिया जाता है। कहा जा रहा है कि यह ,पुल अपनी उम्र पूरी कर चुका है। 1927 से 1929 के बीच तैयार किया गया। यह सस्पेंशन ब्रिज 1930 में जनता के लिए शुरू किया गया था। यह पुल देश दुनिया के पर्यटककों के लिए आकर्षण का केंद्र है तो स्थानीय लोगों के लिए रोजी-रोटी कमाने का जरिया। मनी कूट पर्वत की तलहटी में गंगा गन से 60 फीट की ऊंचाई पर बना 450 मीटर लंबे पुल पर फोटोग्राफी क्रेज के चलते फोटो जरूर खिंचवाते थे। उनकी खूबसूरती का आलम यह था कि गंगा की सौगंध, सन्यासी, सौगंध, नमस्ते लंदन, बंटी और बबली महाराजा, अर्जुन पंडित, दम लगा के आइसा जैसी फिल्मों के अलावा सीआईडी और भाभी जी घर पर हैं जैसे धारावाहिकों वीर शूटिंग यहां पर हुई है।

पुरातन कथनानुसार भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण ने इसी स्थान पर जूट की रस्सियों के सहारे नदी को पार किया था। स्वामी विशुदानंद की प्रेरणा से कलकत्ता के सेठ सूरजमल झुहानूबला ने यह पुल सन् 1889 में लोहे के मजबूत तारों से बनवाया, इससे पूर्व जूट की रस्सियों का ही पुल था एवं रस्सों के इस पुल पर लोगों को छींके में बिठाकर खींचा जाता था। लेकिन लोहे के तारों से बना यह पुल भी 1924 की बाढ़ में बह गया। इसके बाद मजबूत एवं आकर्षक पुल बनाया गया। विश्वविख्यात लक्ष्मण झूला पुल को सुरक्षा की दृष्टि से बंद होने के चलते टिहरी और पौड़ी 2 जिलों की कनेक्टिविटी विश्व विख्यात पर्यटन स्थल पर टूट गई है। गंगा के दो किनारों पर बसने वाले और व्यापार करने वालों पर रोजी-रोटी का संकट मुंह बाए खड़ा हो गया है। वहीं दूसरी ओर ऋषिकेश से लक्ष्मण झूला तक पहुंचने वाले परिवहन व्यवसाय में लगे लोगों को भी धक्का लगा है।

जहां कभी किसी दौर में लक्ष्मण झूला पुल पर से अंबेस्डर कार को भी निकाला जा सकता था। वहीं अब लगभग 3 किलोमीटर पीछे ही रुकना पड़ेगा। इस पुल के बंद होने से ऋषिकेश के साथ- साथ गंगा पार की आर्थिकी पर भी गहरा असर पड़ेगा। ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए शासन प्रशासन के साथ-साथ स्थानीय लोगों को भी इसमें सहयोग करना होगा ताकि पुल पर अनावश्यक दबाव ना बढ़े। अगर देखा जाए तो स्थानीय लोगों को ज्यादा दिक्कत नहीं होने वाली है क्योंकि उनके लिए लक्ष्मण झूला पुल से 2 किलोमीटर पहले और 2 किलोमीटर बाद में दो फूल और भी हैं जिनमें एक राम झूला में सस्पेंशन पूर्ण और गरुड़ चट्टी में मोटर मार्ग। साथ ही ऋषिकेश लक्ष्मण झूला को जोड़ने के लिए एक सड़क मार्ग भी है जो बैराज के रास्ते वहां पहुंचा जा सकता है। कहा जाता है कि पलों ने की खता, सदियों ने सजा पाई। जर्जर होते जा रहे इस सस्पेंशन फुल पर जबरदस्ती आवाजाही का प्रयास किया गया तो मानवीय क्षति का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूं भी माना जाता है कि इस पुल के बीचों-बीच गंगा की गहराई को आज तक कोई नहीं नाप सका है। लक्ष्मण झूला पुल बंद होने के बाद गंगा के दो किनारों को जोड़ने के मानवीय जरूरतों को गोरा करने के लिए क्या फिर गंगा की लहरों पर सुनाई देगा ओ रे माझी ले चल मुझे गंगा पार।

सोमवार, 9 मई 2022

मुझे कुछ कहना है तुमसे

 मुझे कुछ कहना है, तुमसे। यूं तो मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। बस मन के कोने में सिमटी कुछ यादें है, जो कभी-कभी दिल को बेचैन कर देती है। एक लंबा अरसा हो गया, तुमसे बात किए हुए। इस बीच कई पल आए, जब मुझे लगा कि अब जरूरी हो गया है तुमसे बात करना। मगर जिंदगी के झंझावतों मैं इतना फंसता चला जा रहा हूं कि फुर्सत के दो पल भी मिलना दुश्वार हो गया है। बचपन से सोचता रहा कि बहुत सुकून के साथ जिंदगी गुजर जाएगी। मेरा सोचना गलत था। बचपन के सुनहरे पल और हसीन सपने न जाने कब रिश्ते-नाते और सामाजिक बंधन में कैद हो गए मालूम ही न चला। आए दिन कोई न कोई बात ऐसी हो जाती है, जो मन को विचलित कर देती है। फकीरी में जीना, किसको अच्छा नहीं लगता। न घर की चिंता, न अपना होश। लेकिन अपने साथ तो ऐसा बिलकुल नहीं है। यहां तो अपने से ज्यादा अपनों की चिंता ही खाए जाती है। यूं तो बहुत सोच-समझा और जाना है कि मंजिल पर कैसे पहुंचना है। जिंदगी एक दरिया समान है, जिनके बाजुओं में ताकत और हौसले बुलंद होते है वो इस दरिया को तैर कर पार करते है। जिनमें ताकत और हौसले की कमी होती है, वह तो इसी उम्मीद में बहते रहते है कि कहीं तो किनारा मिल ही जाएगा। जिंदगी के इस दरिया को तैर कर पार करने की मेरी उम्मीदें तो कब की मेरा साथ छोड़ गई, पर अपनों का विश्वास और आशा अभी भी जवां है। उनको तो आज भी लगता है कि मैं बहुत काबिल हूं। मैं भी अपने छुटपुट प्रयासों से इतना ही भ्रमजाल फैला पाया हूं कि उनका भरोसा न टूटे। बस यूं ही कुछ बातों को कहने का प्रयास किया था, लेकिन जिंदगी की उलझन को सुलझाने की कोशिश में एक बार फिर उलझ गया हूं और भूल गया कि मुझे तुमसे क्या कहना था। अब फिर कभी समय मिला तो जरूर कहूंगा। पर मेरा इतना विश्वास तो जरूर करना कि मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। बस यूं ही तुमसे कुछ कहना था, तो कह दिया बाकी फिर कभी।

शनिवार, 7 मई 2022

बादशाह

 दो-तीन दिन पहले की बात है जब यूं ही धम्मू भाई से मुलाकात हुई। उनसे मैंने पूछ लिया कि बादशाह के क्या हाल है। उन्होंने हंसते हुए कहा वही बादशाह, जिसका लड़का बैंक में जमा करा दिया था आपने। उस दिन तो बादशाह ने मेरे ऊपर आरोप लगा दिया था कि मैंने उसके लड़के को गायब किया है। अच्छा हुआ आपने मिलवा दिया था।

मैंने पूछा आजकल बादशाह क्या कर रहा है। तो उन्होंने कहा कि आजकल अपने घर पर ही है। उसका लड़का यहीं पर एक दुकान में काम करता है। उसका नाम सोनू है।

इतना सुनने के बाद लगभग 15 साल पुरानी बात याद आ गई। जब एक दिन शाम के लगभग 5:00 बजे मैं अपने घर निकलकर पड़ोस में एक बैंक के पास जहां पर सभी दोस्त लोग इकट्ठा हुआ करते थे, पहुंचा ही था कि वहां पर एक छोटा बच्चा बहुत तेज रो रहा था। उस बच्चे की उम्र यही कोई 3-4 साल की रही होगी। मैंने उस बच्चे का हाथ पकड़ा और पूछा कि क्या हुआ। लेकिन वह बच्चा कुछ बताने की स्थिति में नहीं था। बस लगातार रोते जा रहा था। उस बच्चे को मैंने अपने पास बैठा लिया। क्योंकि शहर का व्यस्ततम मुख्य मार्ग होने की वजह से दोबारा उस बच्चे के खो जाने का डर था। तभी बैंक ड्यूटी में तैनात पुलिस के एक जवान जो दोस्त भी थे वहां पर आए और बोले क्या हुआ। मैंने कहा शायद यह बच्चा खो गया है अब परिजनों को तलाशना है। बैंक के बाहर चाय की ठेली लगाने वाले पैन्यूली ने बच्चे को चाय बिस्कुट खिलाया। उसके बाद मैंने बच्चे को पूछा बेटा कहां से आए हो तो उसने कहा जहां से सवारी आई है। क्योंकि उसी समय रास्ते से जैन समाज की सवारी निकली थी। बच्चे से पूछा कि बेटा तुम्हारे पापा का क्या नाम है तो उसने कहा बादशाह। अब हमारे पास ढूंढने के लिए सिर्फ दो ही पॉइंट है जहां से सवारी की शुरुआत हुई थी वहां पर जाना और बादशाह को तलाशना। बस फिर क्या था पैन्यूली से स्कूटर लिया। मैं और मेरे सिपाही दोस्त बच्चे को लेकर निकल पड़े बादशाह की तलाश में। जैन मंदिर पहुंचकर हमने आसपास पूछा बादशाह नाम का कोई व्यक्ति वहां नहीं था। कोई बच्चे को पहचान नहीं रहा था। बच्चा इतना ही कह रहा था कि और आगे और आगे। चलते चलते हैं हम शहर से बाहर जंगल में पहुंच गए। यकीन हो गया कि बच्चा कुछ नहीं बता सकता और हम वापस फिर शहर में आ जाए। धीरे-धीरे शाम ढलने लगी थी और हम शहर के गली मोहल्लों में उस बच्चे को लेकर घूमते रहे कोई भी बच्चे को नहीं पहचान पा रहा था। आखिर में 9:00 बजे के आसपास हमने आकर बच्चे को दूध बिस्किट खिलाया। इधर पैन्यूली जी अपनी रंगत में आ चुके थे। कहने लगे इस बच्चे को मैं अपने साथ ले जाऊंगा क्योंकि मुझे पुलिस वालों पर कोई भरोसा नहीं है कि वह बच्चे को कैसे रखेंगे। इधर पुलिस वालों का कहना था कि बच्चे को हम अपने पास ही सुला लेंगे सुबह फिर तलाश करेंगे। पैन्यूली अभी अपने होश में नहीं है। फिर यही तय हुआ कि पुलिस वाले ही अपने साथ बच्चे को बैंक में सुला लेंगे। और उन्होंने बच्चे को अपने बिस्तर पर सुला दिया। इतना करने के बाद मैं त्रिवेणी घाट पर स्थित पुलिस चौकी की तरफ चला गया जहां पुलिस वाले मेरे दोस्त कहने लगे आज इतनी देर कहां लग गई। उनको बच्चे के खोने का वाकया बताया। उन्होंने कहा हमारे पास अभी तक ऐसी कोई सूचना नहीं आई है जैसे ही कोई आता है हम आपके पास भेज देंगे। उसके बाद रात को लगभग 11:00 बजे के आसपास मेरे घर पर मेरे बहुत प्रिय शिवकुमार भाई साहब एक व्यक्ति को लेकर मेरे घर आए और बोले हरीश तेरे पास कोई बच्चा है। मैंने कहा हां, तो उन्होंने कहा वह बच्चा तो इसका है। मैंने पूछा इनका क्या नाम है। तो उन्होंने कहा बादशाह। इलना सुनना था और मेरे कान खड़े हो गए मैंने कहा चलो आपको दिलाता हूं। फिर हम बैंक में पहुंचे। लेकिन उस समय वहां पर दूसरे सिपाही की ड्यूटी लगी हुई थी। उसने कहा कि अभी मुझे मालूम नहीं है लगभग 2 घंटे बाद वह भाई साहब आएंगे तो कुछ बता सकता हूं क्योंकि उनकी ड्यूटी 2 घंटे बाद शुरू होगी। फिर सभी वापस वहां गए जहां बादशाह रहता था। बादशाह का घर लगभग पड़ोस में ही था लेकिन हम उस गली की तरफ नहीं गए। पता चला कि शाम से ही उस बच्चे की खोज की जा रही थी। बच्चा मिलने की खबर सुनकर सभी खुश हो गए और कहने लगे कि बच्चा बाद मिलेगा अभी बैंक में जमा है। रात को लगभग 1:00 बजे के आसपास जब अपनी ड्यूटी पर वही सिपाही आए तो उन्होंने बच्चे को उठा उसके पिता बादशाह को दे दिया। उन्होंने कहा कि भाई तुम सुबह के वक्त आना तब बात करेंगे। इसके बाद जब सभी लोग चले गए। कहने लगे कि सुबह को बादशाह आएगा तो पैन्यूली को कुछ खर्चा पानी दिलवा देंगे वह बहुत हल्ला मचा रहा था कि मेरा स्कूटर ले गए पेट्रोल खर्च कर दिया।

सुबह को जब पैन्यूली चाय की ठेली पर आया तो उसको बताया कि बच्चा मिल चुका है तो उसने कहा कि मुझे मेरा खर्चा चाहिए तो उसे आश्वस्त कर दिया कि अभी बच्चे के पिता आ रहे हैं तभी कुछ होगा वरना कुछ नहीं। थोड़ी देर बाद बादशाह हाथ जोड़ते हुए चला आया और कहने लगा बाबू जी मेरे पास तो कुछ भी नहीं है मैं तो लेबर का काम करता हूं। उधर पैन्यूली अड़ गया कि मुझे तो कम से कम ₹500 दिलवा दो। बादशाह की हालत देखकर पैन्यूली को समझाया गया कि जिस दिन बादशाह कहीं पर मिठाई बनाएगा तो उस दिन वह एक मिठाई का डिब्बा लाकर तुमको दे देगा। इससे ज्यादा कुछ नहीं मिलने वाला।

धम्मू भाई ऋषिकेश की प्राचीन और प्रसिद्ध पंडित पूरी वालों की दुकान पर काम करते हैं और बादशाह उनका हेल्पर पर हुआ करता था। अब सोनू भी लगभग 19 साल का है और वहीं पर एक दुकान पर काम करता है और बादशाह टेंट वालों के यहां अपनी रोजी रोटी कमा रहे है। अब पैन्यूली भी कहीं गढ़वाल में ढाबा चला रहा है, जैसा मुझे पता चला। पुलिस वाले अब पता नहीं कहां पर होंगे। यह पूरा वाकया 15 साल बाद इस कदर याद है कि जैसे कल की ही बात हो। अभी भी मेरी सोनू से कोई मुलाकात नहीं हुई जैसा कि धम्मू भाई ने कहा है कि मैं सोनू को आपसे मिलवा दूंगा जरूर।

इंसानियत

 इंसान ने चांद पर पहुंचने का दावा तो कर दिया, पर धरती पर गरीबी खत्म करना सूरज पर पहुंचने जैसा ही रह गया। अब हम कैसे बच्चों को समझाएंगे कि बेटा दूर गगन में देखो में चंदा मामा देख रहे हैं क्योंकि जब हमारे बच्चे बड़े होकर हकीकत से रूबरू होंगे तो वह हमको धोखेबाज समझेंगे, तब हम उनको कैसे संतुष्ट करेंगे। वैसे भी हमने बच्चों का बचपन कब का छीन लिया था, और अब उनसे उनका प्यारा चंदामामा भी छीन लिया। रही बात गरीबी तो, हमने जिन पर विश्वास किया कि वह हमारी गरीबी दूर करने का हर संभव प्रयास करेंगे, उल्टा उन्होंने गरीब से वह भी छीन लिया, जो उसका अपने बच्चों का मन बहलाने का एकमात्र सहारा था। अमीरों का क्या वह तो चांद पर जाकर अपना जीवन गुजारने की कोशिश में है, जब पृथ्वी पर इंसान नहीं बन सके तो क्या भरोसा वह चांद पर जाकर इंसान बने रहेंगे? चांद पर पहुंचकर नई दुनिया बसाने से क्या फायदा, सूरज चांद ही तो दिन रात का अहसास कराते है। फिर कमजोर पर तो हर कोई अधिकार जमा ही लेता है, जैसे अमीरों ने गरीब को अपना गुलाम समझा है, ठीक वैसे ही शांत, शीतल चंदा मामा पर अपना भी अधिकार जमा लिया। दूसरी ओर गर्म और हमेशा क्रोध से लाल रहने वाले सूरज को अपने कब्जे में लेकर कोई दिखाए तो बात हो। इंसान की फितरत है कि कमजोर को हमेशा दबाकर रखो। चाहे बेजुबान जानवर हो, पेड़ पौधे, कल कल करती नदियां सभी का दोहन इंसान ने अपनी सुविधानुसार कर लिया। इसी सबके चलते जब पर्यावरण का स्वरूप बिगड़ गया, तो इंसान को यह धरती ही बोझिल लगने लगी। इंसान इंसान की तरह क्यों नहीं अपना जीवन बिताता। यह अलग बात है कि इंसान की चाहत की कोई सीमा नहीं है, पर हर कोई अपनी सीमाओं को लांघने में लगा हुआ है। इंसान क्यों भूलता जा रहा है कि जिस प्रकार पेड़ पौधे, जानवर ईश्वर की देन है, ठीक उसकी प्रकार इंसान भी तो ईश्वर की देन ही है। फिर ईश्वर की नजर में सभी तो समान माना गया है, सभी स्वतंत्रता से जीने का अधिकार है। फिर चाहे इंसान हो जानवर। एक पुरानी फिल्म का गीत ‘जब जानवर कोई इंसान को मारे, तो वहशी कहते है उसे दुनिया वाले। तो जब इंसान जानवरों का मारता है, पेड़ पौधों को काटता है तो उसको वहशी क्यों नहीं माना जाता। समझ नहीं आता इंसान इंसानियत को क्यों भूलता जा रहा है? क्यों वह ईश्वर प्रदत्त चीजों से खिलवाड़ करता है, और वह भी जब ईश्वर की खोज में सदियों से मारा फिर रहा है। हां कभी कभी जब प्रकृति इंसानी फितरत का विरोध करती है तब इंसान बेबस हो बोल ही देता है हे भगवान बस करो, अब नहीं। फिर ऐसा क्यों?