सोमवार, 18 जुलाई 2011

खामोश निगाहें

खामोश निगाहें,
सिले हुए होंठ,
न जाने
क्या ढूंढ़ते है
इस जमीं पर
हर रात को
चांद को देख
मन में जागती
एक आस
अपना भी हो
कोई चांद जैसा
शांत-चंचल चित्तचोर
जो चुरा ले मेरे सीने से
मेरा क्रोध, मेरी नफरत
जिसने छीन ली
मुझसे मेरी इंसानियत
अब तो बस
चांद से करते है गुहार
कोई मिल जाए
और मुझे भी बना दे
चांद जैसा
शांत- शीतल
और ले आए
इस तपती
झुलसती जिंदगी में
प्यार की शीतल बहार

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

अगर मैं एडिटर होता तो'

ऐसे ही खाली बैठे-बैठे बचपन में पढ़ाई के दौरान एक निबंध का शीर्षक याद गया ‘अगर मैं भारत का प्रधानमंत्री होता तो'. जैसे ही यह शीर्षक याद आया, तुरंत दिमाग ने सचेत किया, अरे भाई आज ब्लॉग लिखने का विषय मिल गया ‘अगर मैं एडिटर होता तो'. अब यही शीर्षक मेरे दिमाग में क्यों आया, इसकी वजह साफ है कि मैं मीडिया से जुड़ा हुआ हूं.

वर्तमान में मेरी जिंदगी का अधिकांश समय मीडिया के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है, फिर मुझे राजनीति के बदलते स्वरूप से परहेज है, साथ ही आज समस्याओं के भंवर में फंसे हुए राष्‍ट्र को बाहर निकालने के लिए राजनीतिज्ञों की नहीं, बल्कि मीडिया की सकारात्मक भूमिका की आवश्यकता है, क्योंकि सिर्फ मीडिया ही समस्याओं के विरूद्घ आम आदमी को मजबूती से खड़ा करने में सक्षम है. अब आम आदमी को खड़ा करने की जरूरत यहां पर इसलिए हो जाती है कि हमारा देश लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत चलता है और वहां पर सरकार का चुनाव आम आदमी करता है, इसलिए आम आदमी को जगाना जरूरी हो गया है.

यह क्या, मैं विषय से ही भटक गया, मैं लिख रहा था कि ‘अगर मैं एडिटर होता तो... किसी भी मीडिया हाउस में एडिटर बनते ही मेरा सबसे पहला काम होता, अपने सहकर्मियों को सुबह की मीटिंग से मुक्त करना. ताकि वह हर सुबह तरोताजा होकर जब घर से निकले तो उनके दिलो-दिमाग में मीटिंग का भय न हो. मीडिया क्षेत्र में काम करने और जनसमस्याओं को सोचने और समझने का सबसे बेहतरीन समय दोपहर तक ही होता है, जब उस बेहतरीन समय का दुरूपयोग हम निरर्थक की बातों में ही कर देंगे तो जनसमस्याओं को समझना तो दूर उनके बारे में सोच भी नहीं सकते.

मैं अपनी टीम में सिर्फ जोश-जज्बे और कर्मठ और योग्य व्यक्ति को ही जगह देता. इसके लिए उनको 20-25 दिन का समय जरूर देता, उसके बाद उनके साथ किसी भी प्रकार की रियायत नहीं करता. क्योंकि हम जिस फील्ड में है, उसी फील्ड की कार्यशैली से समाज की दशा व दिशा तय होती है. यह कोई हंसी-मजाक का खेल नहीं है. इस फील्ड में आज तो आज पर अमल होता है, कल कुछ नहीं. दूसरी सबसे बड़ी बात काम के समय में सिर्फ काम की नीति पर अमल करना और करवाना. जो इस नीति पर असहमत होते, उनके लिए और भी दूसरे काम है करने के लिए, उनकी मेरी टीम में कोई जगह नहीं होती. साथ ही दूसरा हर बड़ी समस्या का मुकाबला खुद सामने खड़े होकर करता न कि दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना लगाता.

बड़ी अजीब सी बात है कि मीडिया ही नेता बनाता है और बाद में नेता ही मीडिया को चलाता है. राजनेताओं को मीडिया की अहमियत का अहसास कराने के लिए, उनके उन खबरों पर पूर्ण रूप से रोक लगाना, जिन्हें राजनेताओं द्वारा अपने फायदे के लिए प्रकाशित किया जाता है या मीडिया को माध्यम बनाकर आम आदमी को बेवकूफ बनाया जाता है. वरना एक इंसान की इतनी हैसियत नहीं है कि बगैर मीडिया के सहयोग वह लाखों-करोड़ों में चर्चित हो जाए. एक साधारण व्यक्ति को जब मीडिया घर-घर के आम आदमी तक पहुंचाने की औकात रखता है तो उसको धूल चटाने का जज्बा भी मीडिया के पास ही सुरक्षित है. और वर्तमान में इस जज्बे का इस्तेमाल जरूर करता और करवाता. आज समस्याओं के भंवर में फंसे हुए समाज को बाहर निकालने के लिए इसी जज्बे की जरूरत है.

सोमवार, 11 जुलाई 2011

बस यूं ही

बस यूं ही चलता जा रहा हूं
अनजाने रास्तों पर
न जाने किस मोड़ पर
जिंदगी की शाम हो जाए
एक खुशी की तलाश में
गम को गले लगाता जा रहा
एक सुबह के इंतजार में
काली स्याह रातों से लड़ता जा रहा
जिधर भी दिखती उम्मीद की किरण
उधर ही मुड़ जाते कदम मेरे
तेजी से उठते कदम अचानक थम जाते
संभल जाता मैं, जब दिखाई देता इंसान
मैंने पूछा, क्या तलाश कर रहे हो
वह बोला, इंसानियत को ढूंढ रहा हूं
न जाने कहां खो गई, या मर गई
नहीं पता चल रहा है, कुछ मदद करो
मैंने कहा, अपने दिल से पूछो
मैं क्या बता सकता हूं और फिर
मैं चल पड़ता उन अनजाने रास्तों पर
जहां से शायद ही कभी वापस लौट सकूं
बस यूं ही चलता जा रहा हूं
एक खुशी की तलाश में
गम को गले लगाता जा रहा हूं.