शनिवार, 27 नवंबर 2021

... तो मैं सलामी नहीं दूंगा: महात्मा गांधी


 भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद जब मोहम्मद अली जिन्ना नए पाकिस्तान को संभालने के लिए कराची पहुंचे थे. तब गांधीजी लाहौर में थे. गांधीजी को जब मालूम हुआ कि तिरंगे से चरखे को हटाकर उसी जगह अशोक चक्र लाया जाएगा तो वो बहुत क्षुब्ध हुए. लाहौर में गांधीजी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के सामने नाराजगी का इजहार करते हुए कहा, "मैं भारत के ध्वज में चरखा हटाए जाने को स्वीकार नहीं करूंगा. अगर ऐसा हुआ तो मैं झंडे को सलामी देने से मना कर दूंगा. आप सभी को मालूम है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज के बारे में सबसे पहले मैने सोचा और मैं बगैर चरखा वाले राष्ट्रीय झंडे को स्वीकार नहीं कर सकता." ये बात गांधीवादी स्कॉलर और रिसर्चर एल एस रंगराजन ने कुछ साल पहले अपने एक लेख में उद्धृत की थी. दरअसल 22 जुलाई को संविधान सभा ने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में चक्र को चरखे के स्थान पर रखे जाने पर मुहर लगा दी थी.

गांधीजी क्षुब्ध मन से आठ अगस्त को ही लाहौर से पटना के लिए रवाना हो गए. जब आजाद भारत के राष्ट्रीय ध्वज की बात 1947 में संविधान सभा के सामने आई तो गैर कांग्रेसी सदस्यों ने तिरंगे में चरखे पर एतराज जाहिर किया, उनका कहना था कि ये चरखा वाले तिरंगा तो एक राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का झंडा है, उसे किसी राष्ट्र के लिए कैसे स्वीकार किया जा सकता है. डॉक्टर बीआर अंबेडकर संसद की संविधान मसौदा समिति के चेयरमैन थे. तब झंडे पर एक समझौता हुआ. अंबेडकर के ग्रुप ने कहा, कांग्रेस के तिरंगा को बरकरार रखा जाए लेकिन चरखे की जगह ध्वज के आठ तीलियों वाले बौद्ध चक्र को लाया जाए. बाद में इस पर सहमति बन गई कि इस चक्र को 24 तीलियों का रखना चाहिए, जो सारनाथ में सम्राट अशोक के स्तंभ पर है. संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 पर इस प्रस्ताव पास कर दिया. अप्रैल 1919 में गांधीजी ने पहले देश के लिए तिरंगे की अपनी संस्तुति दी थी. फिर कांग्रेस के हर चार साल पर होने वाले अधिवेशन में इसे फहराया जाने लगा. मसूलीपट्टनम के पी वैकेय्या ने जब राष्ट्रीय ध्वज के लिए कई तरह डिजाइन पेश किए तो गांधीजी ने सुझाव दिया था कि लाल (हिंदुओं का रंग) और हरा (मुस्लिमों का रंग) की पट्टियां बनाते हुए बीच में सफेद पट्टी पर चरखा रखा जाना चाहिए, ये सफेद रंग देश की अन्य आस्थाओं का प्रतिनिधित्व करेगा. फिर गांधीजी ने इस बारे में 13 अप्रैल 1921 यंग इंडिया भी लिखा. जिसमें उन्होंने विस्तार से लिखा कि राष्ट्रीय झंडा कैसा होना चाहिए. इसके बाद के बरसों में तीन रंगों के बीच चरखे की अलग अलग डिजाइन उकेरी गईं. दस साल बाद गांधीजी के प्रयास पर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अगस्त 1931 के मुंबई सत्र में ये प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया, राष्ट्रीय ध्वज तीन रंगों का का होगा. इसमें तीन रंगों को होरिजेंटल अरेंज किया जाएगा. रंग भगवा, सफेद और हरे होंगे, जो ऊपर से नीचे के क्रम में होंगे जबकि गहरे नीले रंग का चरखा बीच में सफेद पट्टी पर उकेरा जाएगा. अब रंगों की व्याख्या अलग तरह से की गई- भगवा रंग साहस और त्याग, सफेद शांति और सत्य और हरा आस्था और शूरता का प्रतीक होगा जबकि चरखा जनआकांक्षाओं का इजहार करेगा. गांधी जी ने लिखा, चरखा केवल सूत कातने वाला उपकरण ही नहीं है, जो गरीबों के रोजगार और आमदनी मुहैया कराएगा लेकिन इसका मतलब कहीं अधिक है, ये सादगी, मानवीयता और किसी को कष्ट नहीं देने के साथ गरीबों और अमीरों, पूंजी और मजदूरी के बीच एक अटूट बंधन का भी प्रतीक बने. कुल मिलाकर चरखा अहिंसा का सिंबल बने (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, वाल्यूम 71, प्रथम संस्करण पेज 234) फिर चक्र को लेकर गांधीजी का मन बदला. हालांकि उन्होंने ये तो महसूस किया कि ध्वज के मामले पर उन्हें अनदेखा किया गया है. उन्होंने 03 अगस्त1947 को हरिजनबंधु में द नेशनल फ्लैग नाम से दार्शनिक अंदाज में लेख लिखा. जिसमें उनकी नाराजगी के कोई संकेत नहीं थे, राष्ट्रीय ध्वज के तीन रंगों का मतलब कोई भी कुछ लगा सकता है लेकिन जो भी अनेकता में एकता का मतलब समझता है वो इन तीन रंगों के बारे में बेहतर तरीके से समझ सकता है. फिर उन्होंने ये भी कहा कि अशोक चक्र अहिंसा का दैवीय कानून है. ऋषिकेश में श्री भरत मंदिर झंडा चौक पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की भावनाओं के अनूकूल चरखे वाला तिरंगा आज भी लहराता देखा जा सकता है.