सोमवार, 22 अगस्त 2016

ये हौसला कैसे डिगे , ये आरज़ू कैसे रुके

कहा जाता है कि बेटी एक नहीं दो घरों को संवारती है. यहां तो दो बेटियों ने पूरे देश को ही ख़ुशी की वह सौगात दे दी, जिसका वर्षो से हर भारतीय इंतज़ार कर रहा था. रियो ओलंपिक में सिंधु और साक्षी की कामयाबी देखकर भी बेटों की चाह रखने वालों को अल आ जाए तो गनीमत है. 1.6 अरब की आबादी वाले पुरुष प्रधान देश मे बेटियों ने भारतीय समाज की मानसिकता को ठोकर मारते हुए उस मुकाम को छू लिया है जिनके लिए भारतीय लड़ाके अरसे से जान लड़ाने के लिए शक्तिवर्द्धक औषघियों के सेवन से भी नहीं चूके. वह भी मशीनी युग में, जब आपके झूठ को पकडऩे के लिए अत्याधुनिक मशीनों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाता हो. सांप मरने के बाद लाठी पीटने का कोई फायदा नहीं होता है. अपनी नाकामयाबी का ठिकरा सिस्टम पर नहीं फोड़़ा जा सकता है. क्योंकि जिस सिस्टम को  नरसिंह यादव ने झेला होगा, उसी सिस्टम को सिंधु और साक्षी ने भी झेला ही होगा, साथ ही झेले होंगे दुनिया के ताने. उनके साथ ही उनके माता-पिता ने भी क्या-क्या न सुना होगा कि बड़े आए बेटियों को खिलाने वाले ये बनेगी खिलाड़ी. घर का काम सिखाओ और हाथ पीले करने का जुगाड़ करो. लेकिन वक्त का तकाजा, बेटियों की मेहनत और माता-पिता की तपस्या का नतीजा देखिए उनकी बेटियों ने इतिहास रच कर पुरुष प्रधान देश को आईना दिखाया है. जहां भर पेट खाने को नहीं, नापने को जमीन नहीं, समाज और घर की बंदिशो का दबाव, साथ के लोगो के ताने, घटिया राजनीती और कुश्ती जैसा पुरुषो के वर्चस्व को तोड़ता खेल,  ऐसे में ओलंपिक में लगातार नाकामयाबी का उलाहना सुनते भारत को सिंधु और साक्षी ने एक बड़ी कामयाबी दिला कर उन लाखों लड़कियों के सपनो में उड़ान भर दी जो कुछ करने का सपना अपने मन के कोने में दफन करके हालातों से समझौता कर अपनी प्रतिभा को जाया करती है. साक्षी को समाज, घर वालों, गांव वालों साथी पहलवानो का लगातार विरोध झेलना पड़ा, पहलवानो ने कहा क्यों आखाड़ा खराब कर रहे हो छोरी क्या पहलवान बनेगी, क्यों हंसी उड़वा रहे हो,  साक्षी ने विश्वास नहीं खोया. रोहतक की छोरी इन सभी पहलवान पुरुषो को पछाड़ती हुयी विदेश की धरती पर अपने संघर्ष की दास्तान को विश्व के सामने दिखा गई.  साक्षी और सिंधु प्रेरणा है  उन तमाम छोटे शहरों, गांवो और कस्बों की उन हजारों लड़कियों की जो कुछ करना चाहती है लेकिन सामाज की छोटी सोच उनका रास्ता रोक लेती है देश बदल रहा है बेटियां बदल रही है उनको आसमान दो मत रोको उनको उनके सपनो को जीने से, कल ये ही आपको सम्मान दिलाएगी और परिवार का नाम रोशन करेगी.  साथ ही अब कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़ों में कुछ कमी आ आए और भू्रण परीक्षण करने वाले अल्ट्रासाउण्ड सेंटर बंद हो तब ही ओलंपिक विजेता बेटियों का सच्चा सम्मान होगा, वरना धन-दौलत का क्या है वह तो उन पर यूं ही बरस रही है. बेटे अपनी जगह-बेटियां अपनी जगह. इन दोनों के प्रति समानता का भाव पैदा हो सके, शायद तभी समय-समय पर बेटियां कभी शिक्षा तो कभी राजनीति तो कभी युद्ध के मैदान में अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करती रहती है. बेटियों के प्रति सोच बदलने का सही वक्त आ गया है, क्योंकि अभी तो यह आगाज है अंजाम अभी बाकी है।
माना की खेल में हार-जीत के कोई मायने नहीं होते, लेकिन क्या ओलंपिक में हारने का ठेका भारत का ही है. राजनीति में खेल के चलते खेलों में राजनीतिक कारगुजारियों के बीच ओलंपिक विक्ट्री स्टैंड पर भारतीय प्लेयर्स का ना होना अफसोसजनक बात है. खेलों में करोड़ों खर्च करने वाले खेल विभाग का क्या मतलब है. ऐसे में खेल मंत्रालय का नाम बदलकर क्रिकेट मंत्रालय कर दिया जाना ही बेहतर होगा. कम से कम दुनिया में इज्जत तो बनी रहेगी. खेल मंत्रालय और चयन समिति में गड़बड़ी के साथ ही प्लेयर्स की कमियां बड़े मुकाबलों में ही खुलकर सामने आ जाती है. छोटी-छोटी जीत पर इतराने वाले अकसर बड़े मैदान में झटका खा जाते हैं. घर के शेर घर से निकलते ही शिकारियों के जाल में फंस जाते हैं. दुनिया जीतने के इरादे और सोच को पक्षपातपूर्ण रवैये के साथ साकार नहीं किया जा सकता है. सिस्टम की खामियों का रोना रोने वालों को समझना होगा कि सिस्टम भी हमारा है और उसको चलाते भी हमारे अपने ही है. साथ ही समझना होगा जीतने वाले कोई आसमान से नहीं टपकते है. दिल को तसल्ली देने वाले कह सकते है कि गिरते है अकसर घुड़सवार ही मैदाने जंग में. ऐसे में अगर भारतीय प्लेयर्स गिरते ही रहेंगे तो आखिर उठेगें कब. हां कभी-कभार सिंधु और साक्षी जैसे प्लेयर्स इस सिस्टम को ठुकराते हुए कामयाबी हासिल कर लेता है, तो यह उसकी व्यक्तिगत मेहनत और प्रयासों का नतीजा ही होता है. ऐसे में सिर्फ धनाढ्य वर्ग के युवा ही खेल सामग्री का खर्च वहन कर पाते हैं, इसके इतर गरीब प्रतिभाएं तो उभरने से पहले ही दम तोड़ जाती हैं. ओलंपिक हो या अन्य कोई खेल का मैदान भारतीय खिलाडिय़ों के साथ-साथ खेल अधिकारियों को समझना होगा कि सफलता रातोंरात नहीं मिलती. इसके लिए ईमानदार कोशिश की दरकार होती है. खिलाडिय़ों को विश्व स्तरीय प्रतियोगिताओं के विश्व स्तरीय सुविधाएं मुहैया कराना खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी बनता है, सिर्फ बयानबाजी से पदक हासिल नहीं किए जा सकते है. ओलंपिक खत्म होते-होते भारतीयों को कई सबक दे गया है कि जैसे बेटियां कभी भी बेटों से कम नहीं होती है. भारतीय खेल मंत्रालय को अपनी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है. 

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

जब जड़ों में पनपता हो भेदभाव

जब विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक सत्र तक नियमित न कर पाते हों। सरकार विश्वविद्यालयों को सामान्य स्तरीय सुविधाएं तक देने में आनाकानी करती हो. ऐसे में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएंगे। न फैकल्टी, न स्टूडेंट्स के बैठने के लिए क्लास रूम और न ही पर्याप्त सुविधाएं। बस, धकापेल एडमिशन और फीस का घालमेल. भारत रहा होगा कभी विश्व में शिक्षा का केन्द्र, लेकिन अब तो विश्वविद्यालय कैंपस राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर तब्दील होते जा रहे हैं। जहां गुरु की जगह सर ने ली है। अब सर के दौर में सिर ही उठेंगे, उन सिरों में क्या होगा, यह गुजरे समय की बात हो चुकी है. वह दौर और था जब गुरु को सर्वोपरि माना जाता था, लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण के चलते गुरु-शिष्य की परंपरा खत्म सी हो गई है। अब पैसे के दम पर हासिल की गई शिक्षा में गुरु -शिष्य वाली जैसी कोई बात नहीं हो सकती है। यह बात तो हुई उच्च शिक्षा की। अब बात आती है प्राईमरी एजुकेशन की। आईसीएससी, सीबीएसई और स्टेट बोर्ड। इन तीनों बोर्डों के बीच फंसे अभिभावक और बच्चे आखिर तक इस बात को नहीं समझ पाते कि आखिर एक ही देश में एक तीन बोर्डो की जरूरत क्यों? यह तीनों बोर्ड ही आम जनता में अमीरी-गरीबी के अंतर को कभी खत्म नहीं होने देते है. जब तक ये तीनों बोर्ड एक नही होगे तब तक असमानता की खाई को पाटा नहीं जा सकता। हिन्दी-अंग्रेजी माध्यम का ड्रामा वो अलग। नागरिकों में एकता का भाव जगाने की बजाय भेदभाव तो जड़ों के साथ ही पनपाया जा रहा है। साथ ही बच्चे की आफत ही आफत। जहां अंग्रेजी मीडियम वाले बच्चे आधी-अधूरी एजुकेशन के साथ अदर एक्टिविटी में सिर घपाते मिलेंगे, वहीं हिन्दी माध्यम वाले किताबों के पेज पलटते-पलटते कब बचपन की दहलीज पार कर जाते है, उन्हें तो क्या उनके अभिभावकों को भी पता नहीं चलता। भेदभाव बढ़ाने वाली शिक्षा व्यवस्था को पोषित करने वाली सरकार कहती है कि बचपन बचाओ। जब प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था ही लडखडाई हो तो उच्च शिक्षा को कैसे भरोसेमंद माना जा सकता है। भारत को डिजिटल इंडिया बनाने पहले कुछ सवालों के सकारात्मक जवाब तलाशने होंगे। जैसे ग्रामीण इलाकों के सरकारी स्कूलों मे टीचर स्थाई रूप से पढाएंगे। शिक्षा की लचर व्यवस्था ढर्रे पर कैसे आएगी. पब्लिक और सरकारी स्कूलों के बीच बढ़ती खाई को कैसे पाटा जाएगा। मिड डे मील, साइकिल और लैपटॉप जैसी चीजों का लालच देकर आखिर कब तक बच्चों को स्कूल लाया जाएगा। एक समान शिक्षा प्रणाली भारत में कब से लागू होगी। शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक कब लगेगी। विश्वविद्यालय कैंपस में जड़े जमाती राजनीति को कैसे दूर किया जाएगा। इन सवालों के सार्थक जवाब आए तो साक्षरता दर बढने के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे। इन सबसे अलग आए दिन होने वाली टीचर्स की हड़ताल, अध्यापकों का ट्यूशन के प्रति मोह भी शिक्षा व्यवस्था के लडख़ड़ाने का एक कारण है। शिक्षा व्यवस्था को बेहतर कर लिया जाए तो एक बेहतर राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है। यह बात सही है कि अचानक कुछ नहीं होने वाला। आज शिक्षा व्यवस्था की खामियों को दूर करने का प्रयास शुरू करेंगे तब जाकर हमारी आने वाली पीढिय़ों को इसके सुखद परिणाम देखने को मिलेंगे। वरना यूं ही भारतीय प्रतिभाएं देश छोड़ती रहेगी और अपने सिस्टम को कोसती रहेगी।