मंगलवार, 28 जून 2022

बेबसी


पूछो उस मां के दिल से क्या बीती होगी, जब उसका बेटा उसे गांव में रोता छोड़ कर परदेस निकल गया होगा पैसा कमाने और कहा होगा मां तुम चिंता मत कर बहुत जल्दी शहर में एक अच्छा सा घर तलाश कर तुमको भी वहां ले जाऊंगा। अब तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है। शहर मॆं आते ही बेटे ने मकान बना दिया और काम करने के लिए आया रख ली। उधर गांव में मां कहती फिरती है मेरा बेटा आएगा मैं भी शहर जाऊंगी। बेटे की मजबूरी कहो या बेटे की नीयत, ना तो मां शहर आई और ना ही बेटा लौटकर गांव गया। गया भी तो सिर्फ इसलिए कि सरकार ने पैतृक जमीनों पर कुछ लाभदायक योजनाओं की घोषणा कर दी थी। पिताजी जब तक थे तब तक मां से कहते रहते थे कि इसका भरोसा मत रखना ना मालूम कब तुझे छोड़कर चला जाए। जब तक जिंदा रहना अपने खेत खलियानों की कोई जानकारी मत देना। खेत अभी इतने भी बंजर नहीं हुए कि तेरा पेट न भर सकें और पानी के धारे अभी इतने भी नहीं सूखे कि तेरी प्यास ना बुझा सके। माना परिवर्तन प्रकृति का नियम है। कभी पूर्वज मैदान छोड़कर पहाड़ों की तरफ आए थे आज नई पीढ़ी पहाड़ छोड़कर मैदान की ओर जा रही है तो कुछ गलत नहीं है। हां गलत है वो बच्चे जो बातें तो श्रवण कुमार की करते हैं और मां को शहर में आया का दर्जा देने से भी हिचकते हैं कि मां अनपढ़-गंवार है वह क्या जाने शहर के कायदे कानून।

मेरे गांव के इस रास्ते से जो कदम शहर की ओर निकले वो लौटकर वापस नहीं आए, जो आए भी तो कुछ इस तरह आए, कि जिनको आने से ज्यादा वापस लौटने का जुनून था। वहां जहां मेहनत तो थी लेकिन बच्चों की परवरिश के लिए पर्याप्त साधन मौजूद थे। तब ऐसे में दूर स्थित इस पहाड़ी गांव में क्या रखा था जहां ना पीने को पानी, ना बिजली और ना ही बीमारी से बचने का कोई इलाज। आखिर पलायन तो होना ही था और हुआ भी। क्यों नहीं होता पलायन, मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता के संबंध में जिनको प्रतिनिधि बनाकर राजधानी भेजा, जब वही प्रतिनिधि वापस गांव नहीं लौटे तब ऐसे में गांव वासी क्यों नहीं पलायन करते। यह ठीक बात है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक कुछ तो हुआ ही है, लेकिन इतना भी नहीं कि उसको एक आम ग्रामीण पर्याप्त मान ले। आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां पर सन्नाटा पसरा है। या कुछ समय बाद पसर जाएगा, जब बुजुर्गों की तेरहवीं भी गांव से पलायन कर जाए तब क्या रखा है गांव की जिंदगी में।

पहाड़ से पलायन रोकने की बात करने वाले सक्षम और जिम्मेदार लोगों को अपने मूल गांव में वापस लौटना होगा। भला ऐसा भी कहा होता है कि खुद शहर में बस जाओ और दूसरों को पहाड़ में बसने की सलाह दो, ताकि आपकी पिकनिक टाइप ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए पहाड़ हरे-भरे रहे। पलायन रोकने के लिए पहाड़ में रोजगार की जरूरत है, न कि कोरी बयानबाजी की। कहना जितना आसान होता है, करना उतना ही कठिन।

शुक्रवार, 24 जून 2022

मुसीबत का नाम जिंदगी


मुसीबत न आए तो शायद जिंदगी नीरस ही हो जाए. मुसीबत तो मुसीबत ही होती है, लेकिन कई मायनों में वह फायदेमंद ही साबित होती है, जैसे मुसीबत आने पर ही अपने-पराए का पता चलता है, साथ ही मुसीबत से उबरने के लिए जो प्रयास किए जाते है, उनकी बदौलत इंसान और ज्यादा मजबूत हो जाता है. मुसीबत आने पर ही अपने बारे में पाली गई कुछ गलतफहमियां भी दूर हो जाती है. माना कि मुसीबतों का पहाड़ टूटता होता होगा, लेकिन इतना भी नहीं उनके सामने इंसान ही टूट जाए और आत्महत्या जैसा कदम उठा लें. कई उदाहरण है, जिन्होंने मुसीबतों से पार पाते हुआ इतिहास रच दिया. बस इसके लिए अपनी पूरी तैयारी के साथ धैर्य की जरूरत होती है. बस अपने मनमाफिक मौके का इंतजार. और मौका मिलते ही 20-20 स्टाइल में दे दनादन. निकाल दीजिए अपनी सारी कसर, सारी भड़ास और बना दीजिए एक नया इतिहास. मौका सभी को मिलता है, हां देर-सबेर हो सकती है पर इतनी भी नहीं होती कि आप कुछ कर ही न सके. टी-20 वल्र्ड कप में क्रेग ब्रेथवैट 6 बाॅल में 19 रन जैसा नामुमकिन स्कोर बनाने की सोचकर निराश हो जाता या मार्लोन सैम्युअल अपने सहयोगी बल्लेबाजों की तरह घबराकर पैवेलियन लौट जाता तो क्या वेस्टइंडीज जीत पाता या भारतीय राजनीति में 2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी विपक्षियों के तानों से घबराकर मुकाबला न करते तो क्या वह प्रधानमंत्री बन पाते. इन दोनों का जवाब एक ही है नहीं. लेकिन दोनों ही मामलों में सही वक्त का इंतजार किया गया और मौका मिलते ही असंभव को संभव बना दिया गया. बात पढ़ाई की हो या नौकरी की या फिर प्यार में असफल होने की. एक बार में नाकाम साबित होने का मतलब यह नहीं कि जिंदगी खत्म. मुसीबत का नाम ही जिंदगी है. जिंदगी मुसीबतों से निकलकर निखरती, मुस्कराती है. इसलिए हंसते-मुस्कराते हुए खुद को तैयार करते रहिए आने वाली मुसीबतों से लड़ने के लिए. जब इंसान चांद पर पहुंच गया, आसमान में उड़ गया तो फिर बचा ही क्या.

बुधवार, 15 जून 2022

पत्थर बना भगवान

(16-17 जून 2013 केदारनाथ आपदा)

विज्ञान और धर्म में लंबे समय से द्वंद्व चला आ रहा है. ऐसा ही कुछ हुआ था. देवभूमि उत्तराखंड में.  केदार घाटी में आपदा के बाद इस द्वंद्व में फिलहाल धर्म की ही विजय दिखाई दे रही थी. कहानी बाबा केदार की रक्षा को लेकर है. एक भीमकाय पत्थर कैसे इतनी ऊंचाई से मंदिर के पीछे आकर ठहर गया इस पर विज्ञान फिलहाल कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. पर धर्म ने एक ऐसी कहानी रच दी थी जो इस इक्कीसवीं सदी में सर्वमान्य होकर स्वीकार कर ली गई थी. तभी तो कहते हैं यह भारत है, जहां इंसान तो इंसान, पत्थर भी पूजे जाते हैं. केदार मंदिर के ठीक पीछे दीवार की तरह खड़ी इस शिला का वजन कई टन होने का अनुमान लगाया गया था. लंबाई आठ बाई चार थी. पत्थरों की बरसात के बीच केदारनाथ मंदिर की पश्चिम दिशा के ठीक 10 मीटर पीछे आकर यह ठहर गया था. इस भारी बोल्डर से टकराने के बाद ही मंदाकिनी, केदारद्वारी व सरस्वती नदी के रौद्र पर काफी हद तक ब्रेक लग सका. तीनों नदियां अपना रास्ता बदलने को मजबूर हो गईं तो कई बड़े पत्थर इस शिला से टकराकर चूर-चूर हो गए थे. अगर ये पत्थर मंदिर के पीछे आकर नहीं रुकता तो तबाही क्या आलम होता, सोचा भी नहीं जा सकता है. एक तरफ जहां इक्सवीं सदी के वैज्ञानिक दिव्य शिला के रहस्य पर रिसर्च कर रहे थे, वहीं धार्मिक दृष्टि से इस रहस्य से परदा उठा देने का दावा किया जा रहा था. स्थानीय पुजारियों की मानें तो बाबा मंदिर की रक्षा के लिए साक्षात महाबली भीम प्रकट हुए थे. महाबली भीम ने ही अपनी असीम ताकत से बाबा मंदिर की रक्षा की और महाबली भीम के रूप में यह दिव्य शिला इसका उदाहरण है. महाभारत की कथाओं के अनुसार पांडव शिव के बड़े भक्त थे. वे जहां- जहां गए वहां शिव मंदिर बनवाया. उत्तराखंड की पहाडिय़ों में इस बात के प्रमाण आज भी मौजूद हैं. पौराणिक कथाओं के अनुसार जब पांडव सपरिवार स्वर्ग के लिए गए थे तो रास्ते में बाबा केदार के द्वार भी रुके थे.