सोमवार, 4 जुलाई 2022

तीन कविता

तुम न पहचानो

कोई बात नहीं
लेकिन
यह भी तो मत कहो
मुझे याद ही नहीं
मालूम है बंधे है हम
सामाजिक बंदिशों में
सपने है कुछ मेरे तो
सजाये है पलकों पर
तुमने भी कुछ ख्वाब
जरुरी भी नहीं कि
मिल जाए सफर में
जब रास्ते ही हो अलग
तब कैसे हो मंजिल एक
-हरीश भट्ट

कहानियां
तुम मत सुनाओ मुझे
बीते वक़्त की कहानियां
लेना था जब फैसला तब
क्यों गंवाया था समय
फिजूल की बहसबाजी में
अँधेरे में है भविष्य तो क्या
भूत का तो पता है जो बीत गया
अब उन यादों का क्या करना है
जिन्होंने कर दिया ख़राब वर्तमान
अब तो खुद ही कर लेता हूँ फैसला
तुम मत सुनाओ मुझे
बीते वक़्त की कहानियां
अभी तय करनी है एक लम्बी दूरी
पहले ही ठहर गया था तुम्हारे लिए
अब वक़्त कम है और जाना है दूर
तुम चल सको तो चलो साथ मेरे
वरना तुम करो इंतज़ार समय का
जो कभी नहीं आता लौट कर दोबारा
इसलिए न करो अब फिर से जिद
तुम मत सुनाओ मुझे
बीते वक़्त की कहानियां
-हरीश भट्ट

मुलाकात
भूल जाना उन बातों को
कह दी थी जो गाहे-बगाहे
कुछ अनसुलझी मुलाकातों में
बुने थे जो ख्वाब कभी मैंने
उधड़ गए वो बिछड़ते ही हमारे
अब नहीं अर्थ कोई उन बातों का
नहीं कोई ठिकाना मुलाकात का
बस अब सिर्फ एक ही तमन्ना
भूल जाना उन बातों को
सुन ली थी जो कभी तुमने
मत सुलझाना मेरी बातों को
उलझ जाएगी जिंदगी हमारी
मेरी नादानियां, तुम्हारी मासूमियत
कब उड़ा ले गया वक़्त का परिंदा
न तुम्हे पता चला न मुझे लगी खबर
बस अब तो सिर्फ कहना है एक बार
भूल जाना उन बातों को
कह दी थी जो गाहे-बगाहे
कुछ अनसुलझी मुलाकातों में
-हरीश भट्ट