बुधवार, 28 अगस्त 2013

दोस्त, सहकर्मी और मैं

जहां एक ओर दोस्त मुझे अच्छा मानते है, तो वहीं दूसरी ओर सहकर्मी झगडालू. मैं नहीं जानता, मेरे व्यक्तित्व में इतना अंतर क्यों है? बात अगर दोस्तों की जाएं तो किसी से भी मन-मुटाव नहीं है. जिसकी वजह भी थोड़ी-थोड़ी समझ आ ही जाती है. मैं मानता हूं कि मतलब के लिए कभी दोस्ती नहीं करनी चाहिए. मतलब के लिए दोस्ती करने से अच्छा है कि दोस्त बनाया ही नहीं जाएं. हां, बिना मतलब की दोस्ती करने से हो सकता है कि वक्त-बेवक्त दोस्ती का धर्म निभाते हुए दोस्त मदद कर ही देते है. जिसके कारण तमाम समस्याओं से निजात मिल जाती है. फिर दोस्तों के काम ही क्या होते है, थोड़ी सी प्यार से बातें करना. हमेशा उनके साथ रहने का वादा करने में बुराई क्या है. वैसे भी सभी अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीते है. मैं उनके लिए क्या कर सकता हूं. यह अलग बात है मैंने दोस्तों की आर्थिक मदद तो शायद ही कभी की होगी, लेकिन अपना बहुमूल्य समय जरूर उनको दिया है. इसका भी कारण है कि वह लोग काम धंधे के मामले में बहुत कमजोर थे. जिससे वह कुछ कर पाने में असक्षम थे. बस मैंने अपने हुनर का प्रयोग उनकी जिंदगी संवारने में लगा दिया. करीब छह-सात दोस्तों की जिंदगी को बेरोजगारी की पटरी से रोजगार की पटरी पर ला दिया. आज वह सभी अपनी जिंदगी अपने-अपने तरीके से बेहतर ढंग से जी रहे है. दूसरी ओर मैं भी अपनी जिंदगी से खुश नहीं तो नाराज भी नहीं हूं. जिंदगी ने बहुत दिया है, जो बाकी है, उसको पाने की कोशिश जारी है. मेहनत और कोशिश की दिशा खराब नहीं हुई तो सफलता निश्चित तौर पर हासिल हो जाएगी.

अब बात आती है सहकर्मियों की. मैं मानता हूं कि वह काबिल होगे, तभी उनका सलेक्शन उस जगह नौकरी के लिए हुआ होगा, जहां-जहां मैंने काम किया है. जिनमें करीब तीन संस्थान मुख्य है. दो-तीन व्यक्तिगत तौर पर भी काम के सिलसिले में कुछ समय बिताया है. सहकर्मियों के मामले में एक बात मुझको साफ समझ आई. बॉस परिक्रमा की. माना बॉस जी-हजूरी से खुश हो जाते है. पर बॉस परिक्रमा करने वालों को यह बात कौन समझा सकता है कि बाहरी तौर पर जरूर बॉस चापलूसों से खुश नजर आते हो, पर आंतरिक दुख को उनके सिवाय और कोई नहीं समझ सकता. आखिर बॉस को भी नौकरी करनी है या अपने संस्थान को जिंदा रखना है. अब चापलूसों को बॉस परिक्रमा से फुर्सत मिले तो कुछ काम भी करें. वही दूसरी ओर ईमानदारी से काम वालों को काम करते-करते पता नहीं चलता और परिक्रमा का समय बीत चुका होता है. यह भी एक सत्य ही है कि जब-जब नौकरियों में छंटनी का दौर आया है. तब गाज चापलूसों पर ही गिरती है, लेकिन उसका खामियाजा कर्मठ लोगों को भी उठाना पड़ता है. कोई भी सोच सकता है कि अगर किसी संस्थान में सभी लोग अपना सारा समय बॉस परिक्रमा में ही गुजार देंगे, तो वहां काम क्या खाक होगा. तब नतीजतन न संस्थान का वजूद जिंदा रहेगा, न ही वहां बॉस और न ही काम करने वाले.

एक बार मैंने इन्हीं बातों से दुखी होकर अपने सीनियर से सहकर्मियों के बाबत यह सवाल पूछा कि सर आप इन लोगों को कुछ नहीं कहते और जो काम करते है उन्हीं को डांटते रहते है. इस पर उनका जवाब था कि मैं जानता हूं कि यह निक्कमे लोग है, लेकिन क्या कर सकता हूं, इनको समझने में गलती हो गई. पर तुम इतना याद रखो जब भी मंदी या छंटनी का दौर आता है, तब सबसे पहले ऐसे ही लोगों पर गाज गिरती है. फिर मैं इनको नौकरी पर रख तो सकता हूं, पर इनकी नौकरी को चला नहीं सकता. नौकरी को जिंदा रखने के लिए इनको ही मेहनत करनी होगी. बॉस के सामने अपनी योग्यता व परफेक्ट काम करने का दावा करने वालों को बॉस के पीछे बगलें झांकते हुए देख मुझे आश्चर्य होता है कि या तो हम लोग बेवकूफ है या फिर यह. कितना झूठ बोलते है. बस यही पर सहकर्मियों से मनमुटाव हो जाता है. फिर काम करते-करते मेरे पास अपनी सफाई में कहने के लिए न तो शब्द होते है और न ही समय. बाकी बचे सहकर्मी तो वह अपना काम कर ही जाते है.

एक स्कूल में कम्प्यूटर टीचर की नौकरी करते हुए मुझ पर आरोप लगने लगा कि मैं बच्चों को अच्छे से नहीं पढ़ाता हूं और बच्चे कुछ नहीं सीख पा रहे है. यह बात बहुत हास्यास्पद थी क्योंकि उसी समय नेशनल लेवल पर एक प्रतियोगिता में कम्प्यूटर एक्टिविटी में मेरे सभी स्टूडेंट्स ने सभी मेडल अपने नाम कर लिए थे. तब कोई भी जान सकता है कि अगर मैंने बच्चों को नहीं सिखाया तो आखिर किसने सिखाया. इस बात ने जरूर मेरे मन को खिन्न कर दिया था. आखिर ऐसा क्यों होता है?

यह तो मालूम है कि सच को कभी छिपाया नहीं जा सकता. पर कभी-कभी सच को सामने आने में इतना समय निकल जाता है कि तब सिर्फ पछताने के सिवाय कुछ नहीं हो सकता. समय के साथ-साथ मैंने ऐसे लोगों को संस्थान से सिर झुका कर जाते हुए भी देखा है.

यह ठीक बात है कि हर किसी की ख्वाहिश होती है, वह भी अपने संस्थान के सर्वोच्च पद तक जाएं, उसका भी नाम हो, लोग उसको भी जाने, उसकी भी हनक हो. दुनिया का दस्तूर है कि एक हाथ दे-एक हाथ ले. तब खुद ही सोचा जा सकता है कि अपने सपने को साकार करने के लिए कितना प्रयास ईमानदार से किया. आपने अपने संस्थान को जब कुछ दिया ही नहीं, तो फिर आपको कुछ कैसे मिल सकता है. हां जिन्होंने किया वह आज सर्वोच्च पदों पर पहुंच गए और जो प्रयास कर रहे है वह भी एक दिन अपनी मंजिल पर जरूर पहुंचेंगे.

दोस्तों और सहकर्मियों की बातें ही जिंदगी को प्रभावित करती है. नौकरी मिलने से पहले अधिकतर समय दोस्तों के साथ ही बितता था और नौकरी मिलने पर सहकर्मियों के साथ. बाकी बचा-कुचा समय अपने घर-परिवार के लिए. तब ऐसे में स्वयं का मूल्यांकन करने के लिए समय मिल नहीं पाता. स्वयं का आंकलन करने इस बात का अहसास जरूर हो जाएगा कि हम कितने कामयाब है या कितने नाकामयाब.

मेरा भी एक सपना था, जो 32 वर्ष की आयु पूरी करते ही टूट गया. उसको टूटना ही था, क्योंकि मैंने उसके लिए ईमानदारी से कोशिश नहीं की. जिसके पास अक्ल हो वही मंजिल तक पहुंचने के रास्तों को जानकर उन पर चल सकता है. मैं सिर्फ रास्ता ही जान पाया, पर उन रास्तों पर चलने की कोशिश भी नहीं थी. उन पर चलना एक तपस्या के समान था. चार-पांच सालों की जी-तोड़ मेहनत की बजाय इजी मोड की ओर रूख कर लिया. अब इसी इजी मोड ने जिंदगी को उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि जहां से आगे चलने के लिए मेहनत और अफसोस सिवाय कुछ ओर नहीं किया जा सकता. अफसोस इस बात का जिंदगी का महत्वपूर्ण समय यूं ही गवां दिया और मेहनत इसलिए कि अभी और आगे जाना है.

शनिवार, 10 अगस्त 2013

और हम बदनाम हो गए.

हम तो यूं ही अच्छे थे.
सबसे से अलग, सबसे जुदा
अपनों की आंखों का नूर.
पर क्या करें
जमाने की हवा चली
और हम बदनाम हो गए.
बदनामी का नाम हुआ इतना
कि खुद को ही भूल गए
किस-किस से लड़े
किससे करें शिकायत.
अब तो बस यूं ही
जानता हूं मैं
नहीं मोड़ सकता आंधियों का रूख
पर इतना भी तय है कि
नहीं डिग सकता है मेरा हौसला
क्योंकि मैं हूं
सबसे बेहतर, सबसे जुदा.