गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

सुव्यवस्थित त्यौहार पर अव्यवस्थित बाजार




बेतरतीब शहरों में बेढंगी सडकों पर मानकों की खिल्‍ली उडाते व्‍यापरियों की ग्राहकों को लुभाने वाली सोच ही हादसों की आशंका को प्रबल करती है. दीपावली पर सडक के दोनों साइडों के दुकानदारों का अपनी हद को पार करते हुए सामान सजाना स्‍टेटस सिंबल बन गया है. लंबी-चौडी दुकानों से बाहर निकल कर सडकों पर रेहडी व फड वालों का हक मारते व्‍यापारी आखिर क्‍या जताना चाहते है. यूं तो हादसे की आशंका हर वक्‍त बनी रहती है, लेकिन दीपावली के मौके पर इन हादसों की आशंका सौ फीसदी होती है, इन संकरी गलियों में आग या अन्‍य घटना होते ही हाहाकार मच जाता है, कायदे कानून को ताक पर रखकर यही व्‍यापारी सीधे प्रशासन को दोषी करार देते हुए अपना पल्‍ला झाड लेते है. खुद ही सोचिए अतिक्रमण के चलते अच्‍छी खासी चौडाई वाली सडक संकरी गली  बन जाएगी तो हादसा होने पर फायर ब्रिगेड की गाडिया क्‍या आसमान से पानी बरसाएगी. हर वक्‍त शासन प्रशासन को ही दोषी ठहराना भी अच्‍छी बात नहीं है. खुद के गिरेबां में झांक कर देखिए ही हम खुद कितने ईमानदार है. ठेली या फेरी वाले गरीब का सडक पर चादर बिछाकर सामान बेचना तो समझ आता है, लेकिन बडी बडी दुकानों के मालिकों द्वारा सडकों पर सामाना फैलाना गले नहीं उतरता. ऊपर से भीड़ भरे बाजार में फोर व्हीलर वालों आवाजाही अलग. सुव्यवस्थित त्योहार पर अव्यवस्थित बाजार व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह तो है ही?

बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

करवा चौथ

 

करवा चौथ. भारतीय संस्कृति का एक सर्वश्रेष्ठ त्यौहार. पिया की लंबी आयु व्रत. अंधेरा छाते की चांद उगने की खबर ब्रेक करने की होड़ में बच्चों की एक नजर आसमां पर तो दूसरी नजर मम्मा पर. बच्चों का यह उत्साह इस त्यौहार की सबसे बड़ी खूबसूरती है. बाजारवाद ने भले ही व्रत पर भी कब्जा कर लिया हो, यह अलग बात है. वैज्ञानिकों की नजर में चांद भले ही सैटेलाइट्स का पार्किंग स्थल हो, लेकिन पिया की लंबी उम्र के लिए व्रत को को तोड़ने की जिम्मेदारी तो चांद ही निभाता है. भारत में वैसे तो चौथ माता जी के कई मंदिर स्थित है, लेकिन सबसे प्राचीन एवं सबसे अधिक ख्याति प्राप्त मंदिर राजस्थान राज्य के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा गाँव में स्थित है. चौथ माता के नाम पर इस गाँव का नाम बरवाड़ा से चौथ का बरवाड़ा पड़ गया. चौथ माता मंदिर की स्थापना महाराजा भीमसिंह चौहान ने की थी.

करवा चौथ व्रत-कथा 1 –

एक साहूकार था जिसके सात बेटे और एक बेटी थी | सातों भाई व बहन एक साथ बैठ कर भोजन करते थे|एक दिन कार्तिक की कृष्ण पक्ष की चौथ का व्रत आया तो भाई बोला की बहन आओ भोजन करे|बहन बोली की आज करवा चौथ का व्रत है, चाँद उगने पर ही खाऊगी |

तब भाइयो ने सोचा की चाँद उगने तक बहन भूखी रहेगी तो एक भाई ने दिया जलाया,दूसरें भाई ने छलनी लेकर उसे ढंका और नकली चाँद दिखाकर बहन से कहने लगा की चल चाँद निकल आया है –अर्ध्य दे लें |बहन अपनी भाभियों से कहने लगी की चलो अर्ध्य दें ,तो भाभिया बोली,तुम्हरा चाँद उगा होगा हमारा चाँद तो रात में उगेगा | बहन ने अकेले ही अर्ध्य दे दिया और खाना खाने लगी तो पहले ही ग्रास में बाल आ गया, दूसरे ग्रास में कंकड आया और तीसरा ग्रास मुँह तक किया तो उसकी ससुराल से संदेशा आया कि उसका पति बहुत बीमार है जल्दी भेजो |

माँ ने जब लड़की को विदा किया तो कहा की रास्ते में जो भी मिले उसके पांव लगना और जो कोई सुहाग का आशीष दे तो उसके पल्ले में गाँठ लगाकर उसे कुछ रूपये देना|बहन जब भाइयों से विदा हुई तो रास्ते में जो भी मिला उसने यही आशीष दिया की तुम सात भाइयो की बहन तुम्हारे भाई सुखी रहें और तुम उनका सुख देखो|
सुहाग का आशीष किसी ने भी नही दिया | जब वह ससुराल पहुँची तो दरवाजे पर उसकी छोटी नन्द खड़ी थी, वह उसके भी पाव लगी तो उसने कहा की सुहागिन रहो ,सपूती होओं उसने यह सुनकर पल्ले में गाठ बांधी और नन्द को सोने का सिक्का दिया|तब भीतर गई तो सास ने कहा कि पति धरती पर पड़ा है,तो वह उसके पास जाकर उसकी सेवा करने के लिए बैठ गई |
बाद में सास ने दासी के हाथ बची – कुची रोटी भेज दी इस प्रकार से समय बीतते – बीतते मार्गशीष की चौथ आई तो चौथ माता बोली –करवा ले, करवा ले ,भाईयो की प्यारी बहन करवा ले | लेकिन जब उसे चौथ माता नही दिखलाई दी तो वह बोली हे माता ! आपने मुझे उजाड़ा है तो आप ही मेरा उध्दार करोगी | आपको मेरा सुहाग देना होगा | तब उस चौथ माता ने बताया की पौष की चौथ आएगी, वह मेरे से बड़ी है उसे ही सब कहना | वही तुम्हरा सुहाग वापस देगी | पौष की चौथ आकर चली गई , फाल्गुन की चली गई, चैत्र ,वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, भादों की सभी चौथ आयी और यही कहकर चली गई की आगे वाली को कहना |असौज की चौथ आई तो उसने बताया की तुम पर कार्तिक की चौथ नाराज है, उसी ने तुम्हरा सुहाग लिया है ,वही वापस कर सकती है ,वही आएगी तो पाव पकड़ कर विनती करना | यह बताकर वह भी चली गई |
जब कार्तिक की चौथ आई तो वह गुस्से में बोली –भाइयों की प्यारी करवा ले ,दिन में चाँद उगानी करवा ले, व्रत खंडन करने वाली करवा ले, भूखी करवा ले, तो यह सुनकर वह चौथ माता को देख कर उसके पांव पकड़कर गिडगिडाने लगी | हे चौथ माता !मेरा सुहाग तुम्हारे हाथो में है – आप ही मुझे सुहागिन करे | तो माता बोली –पापिन ,हत्यारिन मेरे पांव पकड़कर क्यों बैठ गई |तब वह बोली की जो मुझसे भूल हुई उसे क्षमा कर दो, अब भूल नहीं करुगी, तो चौथ माता ने प्रसन्न होकर आखो का काजल,नाखूनों में से मेहदी और टीके में से रोली लेकर छोटी उंगली से उसके आदमी पर छीटा दिया तो वह उठकर बैठ गया और बोला की आज मै बहुत सोया |
वह बोली – क्या सोये,मुझे तो बारह महीने हो गये, अब जाकर चौथ माता ने मेरा सुहाग लौटाया |तब उसने कहा की जल्दी से माता का पूजन करो| जब चौथ की कहानी सुनी, करवा का पूजन किया तो प्रसाद खाकर दोनों पति –पत्नी चौपड़ खेलने बैठ गये |नीचे से दासी आयी, उसने दोनों को चौपड़ पांसे से खेलते देखा तो उसने सासु जी को जाकर बताया |तब से सारे गांव में यह बात प्रसिद्ध हो गई की सब स्त्रींया चौथ का व्रत करे तो सुहाग अटल रहेगा |

जिस प्रकार से साहूकार की बेटी का सुहाग दिया उसी प्रकार से चौथ माता सबको सुहागिन रखना | यही करवा चौथ के उपवास की सनातन महिमा है |


शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

डाकिया डाक लाया


विश्व डाक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

डाकिया डाक लाया, डाक लाया

खुशी का पयाम, कहीं दर्द नाम

डाकिया डाक लाया।।

सुपर स्टार राजेश खन्ना की फिल्म का यह गाना तो आपने सुना ही होगा। साल 1977 में जब यह फिल्म रिलीज हुई उस समय एक-दूसरे की कुशल-क्षेम पूछने का यही सर्वोत्तम तरीका था। एक चिट्ठी के इंतजार में दिनों-महीनों निकल जाते थे। फिर कहीं डाकिया दिख जाए तो पूछ-पूछकर उसे परेशान कर दिया जाता था कि हमारी चिट्ठी आयी या नहीं। उस दौर में इनकी धमक थी। अब व्हाट्सएप और वीडियो कॉलिंग के दौर में इनको कौन पूछता है? हर साल 9 अक्टूबर को देश में विश्व डाक दिवस मनाया जाता है। विश्व डाक दिवस ‘यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन’ के गठन के लिए 9 अक्टूबर 1874 को स्विटजरलैंड में 22 देशों ने एक संधि की थी। उसके बाद से हर साल 9 अक्टूबर को विश्व डाक दिवस के तौर पर मनाया जाता है। भारत एक जुलाई 1876 को ‘यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन’ का सदस्य बना था।

सोमवार, 4 जुलाई 2022

तीन कविता

तुम न पहचानो

कोई बात नहीं
लेकिन
यह भी तो मत कहो
मुझे याद ही नहीं
मालूम है बंधे है हम
सामाजिक बंदिशों में
सपने है कुछ मेरे तो
सजाये है पलकों पर
तुमने भी कुछ ख्वाब
जरुरी भी नहीं कि
मिल जाए सफर में
जब रास्ते ही हो अलग
तब कैसे हो मंजिल एक
-हरीश भट्ट

कहानियां
तुम मत सुनाओ मुझे
बीते वक़्त की कहानियां
लेना था जब फैसला तब
क्यों गंवाया था समय
फिजूल की बहसबाजी में
अँधेरे में है भविष्य तो क्या
भूत का तो पता है जो बीत गया
अब उन यादों का क्या करना है
जिन्होंने कर दिया ख़राब वर्तमान
अब तो खुद ही कर लेता हूँ फैसला
तुम मत सुनाओ मुझे
बीते वक़्त की कहानियां
अभी तय करनी है एक लम्बी दूरी
पहले ही ठहर गया था तुम्हारे लिए
अब वक़्त कम है और जाना है दूर
तुम चल सको तो चलो साथ मेरे
वरना तुम करो इंतज़ार समय का
जो कभी नहीं आता लौट कर दोबारा
इसलिए न करो अब फिर से जिद
तुम मत सुनाओ मुझे
बीते वक़्त की कहानियां
-हरीश भट्ट

मुलाकात
भूल जाना उन बातों को
कह दी थी जो गाहे-बगाहे
कुछ अनसुलझी मुलाकातों में
बुने थे जो ख्वाब कभी मैंने
उधड़ गए वो बिछड़ते ही हमारे
अब नहीं अर्थ कोई उन बातों का
नहीं कोई ठिकाना मुलाकात का
बस अब सिर्फ एक ही तमन्ना
भूल जाना उन बातों को
सुन ली थी जो कभी तुमने
मत सुलझाना मेरी बातों को
उलझ जाएगी जिंदगी हमारी
मेरी नादानियां, तुम्हारी मासूमियत
कब उड़ा ले गया वक़्त का परिंदा
न तुम्हे पता चला न मुझे लगी खबर
बस अब तो सिर्फ कहना है एक बार
भूल जाना उन बातों को
कह दी थी जो गाहे-बगाहे
कुछ अनसुलझी मुलाकातों में
-हरीश भट्ट

मंगलवार, 28 जून 2022

बेबसी


पूछो उस मां के दिल से क्या बीती होगी, जब उसका बेटा उसे गांव में रोता छोड़ कर परदेस निकल गया होगा पैसा कमाने और कहा होगा मां तुम चिंता मत कर बहुत जल्दी शहर में एक अच्छा सा घर तलाश कर तुमको भी वहां ले जाऊंगा। अब तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है। शहर मॆं आते ही बेटे ने मकान बना दिया और काम करने के लिए आया रख ली। उधर गांव में मां कहती फिरती है मेरा बेटा आएगा मैं भी शहर जाऊंगी। बेटे की मजबूरी कहो या बेटे की नीयत, ना तो मां शहर आई और ना ही बेटा लौटकर गांव गया। गया भी तो सिर्फ इसलिए कि सरकार ने पैतृक जमीनों पर कुछ लाभदायक योजनाओं की घोषणा कर दी थी। पिताजी जब तक थे तब तक मां से कहते रहते थे कि इसका भरोसा मत रखना ना मालूम कब तुझे छोड़कर चला जाए। जब तक जिंदा रहना अपने खेत खलियानों की कोई जानकारी मत देना। खेत अभी इतने भी बंजर नहीं हुए कि तेरा पेट न भर सकें और पानी के धारे अभी इतने भी नहीं सूखे कि तेरी प्यास ना बुझा सके। माना परिवर्तन प्रकृति का नियम है। कभी पूर्वज मैदान छोड़कर पहाड़ों की तरफ आए थे आज नई पीढ़ी पहाड़ छोड़कर मैदान की ओर जा रही है तो कुछ गलत नहीं है। हां गलत है वो बच्चे जो बातें तो श्रवण कुमार की करते हैं और मां को शहर में आया का दर्जा देने से भी हिचकते हैं कि मां अनपढ़-गंवार है वह क्या जाने शहर के कायदे कानून।

मेरे गांव के इस रास्ते से जो कदम शहर की ओर निकले वो लौटकर वापस नहीं आए, जो आए भी तो कुछ इस तरह आए, कि जिनको आने से ज्यादा वापस लौटने का जुनून था। वहां जहां मेहनत तो थी लेकिन बच्चों की परवरिश के लिए पर्याप्त साधन मौजूद थे। तब ऐसे में दूर स्थित इस पहाड़ी गांव में क्या रखा था जहां ना पीने को पानी, ना बिजली और ना ही बीमारी से बचने का कोई इलाज। आखिर पलायन तो होना ही था और हुआ भी। क्यों नहीं होता पलायन, मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता के संबंध में जिनको प्रतिनिधि बनाकर राजधानी भेजा, जब वही प्रतिनिधि वापस गांव नहीं लौटे तब ऐसे में गांव वासी क्यों नहीं पलायन करते। यह ठीक बात है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक कुछ तो हुआ ही है, लेकिन इतना भी नहीं कि उसको एक आम ग्रामीण पर्याप्त मान ले। आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां पर सन्नाटा पसरा है। या कुछ समय बाद पसर जाएगा, जब बुजुर्गों की तेरहवीं भी गांव से पलायन कर जाए तब क्या रखा है गांव की जिंदगी में।

पहाड़ से पलायन रोकने की बात करने वाले सक्षम और जिम्मेदार लोगों को अपने मूल गांव में वापस लौटना होगा। भला ऐसा भी कहा होता है कि खुद शहर में बस जाओ और दूसरों को पहाड़ में बसने की सलाह दो, ताकि आपकी पिकनिक टाइप ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए पहाड़ हरे-भरे रहे। पलायन रोकने के लिए पहाड़ में रोजगार की जरूरत है, न कि कोरी बयानबाजी की। कहना जितना आसान होता है, करना उतना ही कठिन।

शुक्रवार, 24 जून 2022

मुसीबत का नाम जिंदगी


मुसीबत न आए तो शायद जिंदगी नीरस ही हो जाए. मुसीबत तो मुसीबत ही होती है, लेकिन कई मायनों में वह फायदेमंद ही साबित होती है, जैसे मुसीबत आने पर ही अपने-पराए का पता चलता है, साथ ही मुसीबत से उबरने के लिए जो प्रयास किए जाते है, उनकी बदौलत इंसान और ज्यादा मजबूत हो जाता है. मुसीबत आने पर ही अपने बारे में पाली गई कुछ गलतफहमियां भी दूर हो जाती है. माना कि मुसीबतों का पहाड़ टूटता होता होगा, लेकिन इतना भी नहीं उनके सामने इंसान ही टूट जाए और आत्महत्या जैसा कदम उठा लें. कई उदाहरण है, जिन्होंने मुसीबतों से पार पाते हुआ इतिहास रच दिया. बस इसके लिए अपनी पूरी तैयारी के साथ धैर्य की जरूरत होती है. बस अपने मनमाफिक मौके का इंतजार. और मौका मिलते ही 20-20 स्टाइल में दे दनादन. निकाल दीजिए अपनी सारी कसर, सारी भड़ास और बना दीजिए एक नया इतिहास. मौका सभी को मिलता है, हां देर-सबेर हो सकती है पर इतनी भी नहीं होती कि आप कुछ कर ही न सके. टी-20 वल्र्ड कप में क्रेग ब्रेथवैट 6 बाॅल में 19 रन जैसा नामुमकिन स्कोर बनाने की सोचकर निराश हो जाता या मार्लोन सैम्युअल अपने सहयोगी बल्लेबाजों की तरह घबराकर पैवेलियन लौट जाता तो क्या वेस्टइंडीज जीत पाता या भारतीय राजनीति में 2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी विपक्षियों के तानों से घबराकर मुकाबला न करते तो क्या वह प्रधानमंत्री बन पाते. इन दोनों का जवाब एक ही है नहीं. लेकिन दोनों ही मामलों में सही वक्त का इंतजार किया गया और मौका मिलते ही असंभव को संभव बना दिया गया. बात पढ़ाई की हो या नौकरी की या फिर प्यार में असफल होने की. एक बार में नाकाम साबित होने का मतलब यह नहीं कि जिंदगी खत्म. मुसीबत का नाम ही जिंदगी है. जिंदगी मुसीबतों से निकलकर निखरती, मुस्कराती है. इसलिए हंसते-मुस्कराते हुए खुद को तैयार करते रहिए आने वाली मुसीबतों से लड़ने के लिए. जब इंसान चांद पर पहुंच गया, आसमान में उड़ गया तो फिर बचा ही क्या.

बुधवार, 15 जून 2022

पत्थर बना भगवान

(16-17 जून 2013 केदारनाथ आपदा)

विज्ञान और धर्म में लंबे समय से द्वंद्व चला आ रहा है. ऐसा ही कुछ हुआ था. देवभूमि उत्तराखंड में.  केदार घाटी में आपदा के बाद इस द्वंद्व में फिलहाल धर्म की ही विजय दिखाई दे रही थी. कहानी बाबा केदार की रक्षा को लेकर है. एक भीमकाय पत्थर कैसे इतनी ऊंचाई से मंदिर के पीछे आकर ठहर गया इस पर विज्ञान फिलहाल कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. पर धर्म ने एक ऐसी कहानी रच दी थी जो इस इक्कीसवीं सदी में सर्वमान्य होकर स्वीकार कर ली गई थी. तभी तो कहते हैं यह भारत है, जहां इंसान तो इंसान, पत्थर भी पूजे जाते हैं. केदार मंदिर के ठीक पीछे दीवार की तरह खड़ी इस शिला का वजन कई टन होने का अनुमान लगाया गया था. लंबाई आठ बाई चार थी. पत्थरों की बरसात के बीच केदारनाथ मंदिर की पश्चिम दिशा के ठीक 10 मीटर पीछे आकर यह ठहर गया था. इस भारी बोल्डर से टकराने के बाद ही मंदाकिनी, केदारद्वारी व सरस्वती नदी के रौद्र पर काफी हद तक ब्रेक लग सका. तीनों नदियां अपना रास्ता बदलने को मजबूर हो गईं तो कई बड़े पत्थर इस शिला से टकराकर चूर-चूर हो गए थे. अगर ये पत्थर मंदिर के पीछे आकर नहीं रुकता तो तबाही क्या आलम होता, सोचा भी नहीं जा सकता है. एक तरफ जहां इक्सवीं सदी के वैज्ञानिक दिव्य शिला के रहस्य पर रिसर्च कर रहे थे, वहीं धार्मिक दृष्टि से इस रहस्य से परदा उठा देने का दावा किया जा रहा था. स्थानीय पुजारियों की मानें तो बाबा मंदिर की रक्षा के लिए साक्षात महाबली भीम प्रकट हुए थे. महाबली भीम ने ही अपनी असीम ताकत से बाबा मंदिर की रक्षा की और महाबली भीम के रूप में यह दिव्य शिला इसका उदाहरण है. महाभारत की कथाओं के अनुसार पांडव शिव के बड़े भक्त थे. वे जहां- जहां गए वहां शिव मंदिर बनवाया. उत्तराखंड की पहाडिय़ों में इस बात के प्रमाण आज भी मौजूद हैं. पौराणिक कथाओं के अनुसार जब पांडव सपरिवार स्वर्ग के लिए गए थे तो रास्ते में बाबा केदार के द्वार भी रुके थे.

सोमवार, 30 मई 2022

हर फिक्र को धुएं में ...

 वर्ल्ड टोबैको डे स्पेशल



मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.

हिंदी फिल्म हम दोनों में देवानंद पर फिल्माएं इस गीत के बोल भले ही किसी को याद न हो, पर उनकी सिगरेट के धुएं में हर फ्रिक को उड़ाने की बात पर आज की पीढ़ी जरूर अमल कर रही है. अपनी हैसियत के अनुसार धुएं में अपनी फिक्र को उड़ाने वालों को मालूम ही नहीं चलता कि खुद उन पर और उनके परिवार कब दुखों का पहाड टूट जाता है. मजेदार बात यह है बेहोशी के आलम में रहना आज स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. जिसकी जितनी महंगी सिगरेट, वह उतना ही अमीर व इज्जतदार. जब एक सिगरेट के धुएं में अपनी सभी चिंताएं दूर होती हो, तो फिर फेफड़ों के जलने का दर्द भी महसूस नहीं होता. फिर चाहे इस धुएं में जान जा रही हो, सांस हांफ रही हो. लहू के रंग की रंगत उड़ रही हो.परिवारों की खुशियां उजड़ रही हो. धुएं की धार में धूप धूमिल हो रही हो ये पीढ़ी खुद यूं ही अपनी कब्र खोद रही हो. इस धुएं में जान जा रही है. हर कोई जानता है, समझता है, कहता है कि सिगरेट पीना जिंदगी के लिए हानिकारक है. यहां तक सिगरेट के पैकेट पर वैधानिक चेतावनी होती है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. लेकिन फिर भी सब पीते है, जीते है और अपनी फिक्र को धुएं में उड़ा देते है. इससे ज्यादा क्या कहा जा सकता है सिगरेट के दुष्प्रभावों पर होने वाले सेमीनारों में शामिल होने वाले डॉक्टर्स या एक्सपर्ट्स खुद अपने तनाव को इसी सिगरेट के धुएं में उड़ा कर लेक्चर देते है. अब यह दुविधा वाली बात ही तो हुई कि जब सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, तो फिर सरकार इसके निर्माण और बिक्री पर ही रोक क्यों नहीं लगा देती, जबकि वह इसके उलट इस पर टैक्स लगाकर अपनी कमाई में बढ़ोत्तरी करने के लिए प्रयास में लगी रहती है. दूसरे अपनी आराम तलबी में खलल न पड़े, अपनी फिक्र को दूर करने के लिए कोई मेहनत न करनी पड़े, तो सिगरेट ही एक सहारा हो जाता है. क्योंकि इसके धुएं में अपनी हर फिक्र दूर जो हो जाती है. एक बहुत छोटी सी बात, जरा भी तनावपूर्ण माहौल बना नहीं, कि एक वाक्‍य सुनने को मिल ही जाता है, चलो यार जरा सिगरेट पीकर आ जाए.

रविवार, 29 मई 2022

समाज की दशा व दिशा तय कर रहा है मीडिया

 (पत्रकारिता दिवस पर विशेष:)



सामाजिक ढांचे में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. तकनीकी रूप से मजबूत मीडिया आज समाज की दशा व दिशा तय कर रहा है. यह अलग बात है कि वह अपने इरादों में कितना कामयाब होगा. हाल फिलहाल में हुई कुछ घटनाएं इस बात का जीता-जागता उदाहरण है. कुछ समय पूर्व भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक शख्स की आवाज को रातों-रात पूरे देश की आवाज बनाने की बात हो या दिल्ली में एक युवती के साथ गैंग रेप की घटना हो. इन दोनों मामलों में मीडिया की सकारात्मक भूमिका से इनकार नहीं किया जाा सकता. इससे साबित हो जाता है कि मीडिया को यूं ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ नहीं कहा जाता. मीडिया के बढ़ते कदमों व नई तकनीक का असर है कि किसी भी जगह पर हुई घटना को कहीं पर भी टीवी पर सीधे प्रसारण के जरिए देखा जा सकता है. संसद या विधानसभा में जनप्रतिनिधियों की हरकतों को भी इसी मीडिया ने देशवासियों को दिखाया. वरना इससे पहले तक हर कोई ईमानदार ही दिखता था. जहां पहले हर किसी को जानकारी हासिल करने के लिए सिर्फ समाचार पत्रों का इंतजार ही रहता था, वहीं इसमें न्यूज चैनल्स भी शामिल हो गए. साथ ही अब इस सोशल मीडिया भी शामिल हो गया है. सोशल नेटवर्किंग साइट्स के अस्तित्व में आने के बाद अब मीडिया में गलाकाट प्रतियोगिता का आगाज हो गया है. एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटकती जा रही है. अखबार व न्यूज चैनल्स को मैनेज किया जा सकता है, लेकिन सोशल नेटवर्किंग साइटस पर लगाम कसना फिलहाल नामुमकिन सा ही है. इन साइटस ने जब ईमानदारी से अपने ताकत का अहसास कराया तब ही मिस्र में क्रांति के जरिए सत्ता परिवर्तन हो गया. अभी तक अखबार और न्यूज चैनल्स का महत्व था, लेकिन अब इनसे तेज गति से सूचनाओं को एक-दूसरे तक पहुंचाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइटस भी शामिल हो गई है. अब कहा जा सकता है कि आप जैसा चाहे वैसे समाज का निर्माण कर सकते है. इन साइटस पर कोई अपनी अभिव्यक्ति को अपने तरीके से जाहिर कर सकता है. जब कोई विचार मन से बाहर निकल जाता है, तब उस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता. उस विचार के इर्द-गिर्द ही समाज घूमने लगता है. कहने का आश्य है कि इन साइटस पर अपने भावों व विचारों को प्रेषित करते हुए इस बात का ध्यान रखा जाएं कि हम समाज को किस दिशा में ले जाना चाहते है.

गुरुवार, 12 मई 2022

लक्ष्मण झूला

 


ओ रे मांझी ले चल मुझे गंगा पार। क्योंकि गंगा तट पर ऋषिकेश में अंग्रेजों के जमाने में बने लक्ष्मण झूला पुल को आवाजाही के लिए सुरक्षा की दृष्टि से बंद कर दिया गया है। कभी-कभी कम यात्री होने पर आवाजाही के लिए खोल दिया जाता है। कहा जा रहा है कि यह ,पुल अपनी उम्र पूरी कर चुका है। 1927 से 1929 के बीच तैयार किया गया। यह सस्पेंशन ब्रिज 1930 में जनता के लिए शुरू किया गया था। यह पुल देश दुनिया के पर्यटककों के लिए आकर्षण का केंद्र है तो स्थानीय लोगों के लिए रोजी-रोटी कमाने का जरिया। मनी कूट पर्वत की तलहटी में गंगा गन से 60 फीट की ऊंचाई पर बना 450 मीटर लंबे पुल पर फोटोग्राफी क्रेज के चलते फोटो जरूर खिंचवाते थे। उनकी खूबसूरती का आलम यह था कि गंगा की सौगंध, सन्यासी, सौगंध, नमस्ते लंदन, बंटी और बबली महाराजा, अर्जुन पंडित, दम लगा के आइसा जैसी फिल्मों के अलावा सीआईडी और भाभी जी घर पर हैं जैसे धारावाहिकों वीर शूटिंग यहां पर हुई है।

पुरातन कथनानुसार भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण ने इसी स्थान पर जूट की रस्सियों के सहारे नदी को पार किया था। स्वामी विशुदानंद की प्रेरणा से कलकत्ता के सेठ सूरजमल झुहानूबला ने यह पुल सन् 1889 में लोहे के मजबूत तारों से बनवाया, इससे पूर्व जूट की रस्सियों का ही पुल था एवं रस्सों के इस पुल पर लोगों को छींके में बिठाकर खींचा जाता था। लेकिन लोहे के तारों से बना यह पुल भी 1924 की बाढ़ में बह गया। इसके बाद मजबूत एवं आकर्षक पुल बनाया गया। विश्वविख्यात लक्ष्मण झूला पुल को सुरक्षा की दृष्टि से बंद होने के चलते टिहरी और पौड़ी 2 जिलों की कनेक्टिविटी विश्व विख्यात पर्यटन स्थल पर टूट गई है। गंगा के दो किनारों पर बसने वाले और व्यापार करने वालों पर रोजी-रोटी का संकट मुंह बाए खड़ा हो गया है। वहीं दूसरी ओर ऋषिकेश से लक्ष्मण झूला तक पहुंचने वाले परिवहन व्यवसाय में लगे लोगों को भी धक्का लगा है।

जहां कभी किसी दौर में लक्ष्मण झूला पुल पर से अंबेस्डर कार को भी निकाला जा सकता था। वहीं अब लगभग 3 किलोमीटर पीछे ही रुकना पड़ेगा। इस पुल के बंद होने से ऋषिकेश के साथ- साथ गंगा पार की आर्थिकी पर भी गहरा असर पड़ेगा। ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए शासन प्रशासन के साथ-साथ स्थानीय लोगों को भी इसमें सहयोग करना होगा ताकि पुल पर अनावश्यक दबाव ना बढ़े। अगर देखा जाए तो स्थानीय लोगों को ज्यादा दिक्कत नहीं होने वाली है क्योंकि उनके लिए लक्ष्मण झूला पुल से 2 किलोमीटर पहले और 2 किलोमीटर बाद में दो फूल और भी हैं जिनमें एक राम झूला में सस्पेंशन पूर्ण और गरुड़ चट्टी में मोटर मार्ग। साथ ही ऋषिकेश लक्ष्मण झूला को जोड़ने के लिए एक सड़क मार्ग भी है जो बैराज के रास्ते वहां पहुंचा जा सकता है। कहा जाता है कि पलों ने की खता, सदियों ने सजा पाई। जर्जर होते जा रहे इस सस्पेंशन फुल पर जबरदस्ती आवाजाही का प्रयास किया गया तो मानवीय क्षति का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूं भी माना जाता है कि इस पुल के बीचों-बीच गंगा की गहराई को आज तक कोई नहीं नाप सका है। लक्ष्मण झूला पुल बंद होने के बाद गंगा के दो किनारों को जोड़ने के मानवीय जरूरतों को गोरा करने के लिए क्या फिर गंगा की लहरों पर सुनाई देगा ओ रे माझी ले चल मुझे गंगा पार।

सोमवार, 9 मई 2022

मुझे कुछ कहना है तुमसे

 मुझे कुछ कहना है, तुमसे। यूं तो मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। बस मन के कोने में सिमटी कुछ यादें है, जो कभी-कभी दिल को बेचैन कर देती है। एक लंबा अरसा हो गया, तुमसे बात किए हुए। इस बीच कई पल आए, जब मुझे लगा कि अब जरूरी हो गया है तुमसे बात करना। मगर जिंदगी के झंझावतों मैं इतना फंसता चला जा रहा हूं कि फुर्सत के दो पल भी मिलना दुश्वार हो गया है। बचपन से सोचता रहा कि बहुत सुकून के साथ जिंदगी गुजर जाएगी। मेरा सोचना गलत था। बचपन के सुनहरे पल और हसीन सपने न जाने कब रिश्ते-नाते और सामाजिक बंधन में कैद हो गए मालूम ही न चला। आए दिन कोई न कोई बात ऐसी हो जाती है, जो मन को विचलित कर देती है। फकीरी में जीना, किसको अच्छा नहीं लगता। न घर की चिंता, न अपना होश। लेकिन अपने साथ तो ऐसा बिलकुल नहीं है। यहां तो अपने से ज्यादा अपनों की चिंता ही खाए जाती है। यूं तो बहुत सोच-समझा और जाना है कि मंजिल पर कैसे पहुंचना है। जिंदगी एक दरिया समान है, जिनके बाजुओं में ताकत और हौसले बुलंद होते है वो इस दरिया को तैर कर पार करते है। जिनमें ताकत और हौसले की कमी होती है, वह तो इसी उम्मीद में बहते रहते है कि कहीं तो किनारा मिल ही जाएगा। जिंदगी के इस दरिया को तैर कर पार करने की मेरी उम्मीदें तो कब की मेरा साथ छोड़ गई, पर अपनों का विश्वास और आशा अभी भी जवां है। उनको तो आज भी लगता है कि मैं बहुत काबिल हूं। मैं भी अपने छुटपुट प्रयासों से इतना ही भ्रमजाल फैला पाया हूं कि उनका भरोसा न टूटे। बस यूं ही कुछ बातों को कहने का प्रयास किया था, लेकिन जिंदगी की उलझन को सुलझाने की कोशिश में एक बार फिर उलझ गया हूं और भूल गया कि मुझे तुमसे क्या कहना था। अब फिर कभी समय मिला तो जरूर कहूंगा। पर मेरा इतना विश्वास तो जरूर करना कि मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। बस यूं ही तुमसे कुछ कहना था, तो कह दिया बाकी फिर कभी।

शनिवार, 7 मई 2022

बादशाह

 दो-तीन दिन पहले की बात है जब यूं ही धम्मू भाई से मुलाकात हुई। उनसे मैंने पूछ लिया कि बादशाह के क्या हाल है। उन्होंने हंसते हुए कहा वही बादशाह, जिसका लड़का बैंक में जमा करा दिया था आपने। उस दिन तो बादशाह ने मेरे ऊपर आरोप लगा दिया था कि मैंने उसके लड़के को गायब किया है। अच्छा हुआ आपने मिलवा दिया था।

मैंने पूछा आजकल बादशाह क्या कर रहा है। तो उन्होंने कहा कि आजकल अपने घर पर ही है। उसका लड़का यहीं पर एक दुकान में काम करता है। उसका नाम सोनू है।

इतना सुनने के बाद लगभग 15 साल पुरानी बात याद आ गई। जब एक दिन शाम के लगभग 5:00 बजे मैं अपने घर निकलकर पड़ोस में एक बैंक के पास जहां पर सभी दोस्त लोग इकट्ठा हुआ करते थे, पहुंचा ही था कि वहां पर एक छोटा बच्चा बहुत तेज रो रहा था। उस बच्चे की उम्र यही कोई 3-4 साल की रही होगी। मैंने उस बच्चे का हाथ पकड़ा और पूछा कि क्या हुआ। लेकिन वह बच्चा कुछ बताने की स्थिति में नहीं था। बस लगातार रोते जा रहा था। उस बच्चे को मैंने अपने पास बैठा लिया। क्योंकि शहर का व्यस्ततम मुख्य मार्ग होने की वजह से दोबारा उस बच्चे के खो जाने का डर था। तभी बैंक ड्यूटी में तैनात पुलिस के एक जवान जो दोस्त भी थे वहां पर आए और बोले क्या हुआ। मैंने कहा शायद यह बच्चा खो गया है अब परिजनों को तलाशना है। बैंक के बाहर चाय की ठेली लगाने वाले पैन्यूली ने बच्चे को चाय बिस्कुट खिलाया। उसके बाद मैंने बच्चे को पूछा बेटा कहां से आए हो तो उसने कहा जहां से सवारी आई है। क्योंकि उसी समय रास्ते से जैन समाज की सवारी निकली थी। बच्चे से पूछा कि बेटा तुम्हारे पापा का क्या नाम है तो उसने कहा बादशाह। अब हमारे पास ढूंढने के लिए सिर्फ दो ही पॉइंट है जहां से सवारी की शुरुआत हुई थी वहां पर जाना और बादशाह को तलाशना। बस फिर क्या था पैन्यूली से स्कूटर लिया। मैं और मेरे सिपाही दोस्त बच्चे को लेकर निकल पड़े बादशाह की तलाश में। जैन मंदिर पहुंचकर हमने आसपास पूछा बादशाह नाम का कोई व्यक्ति वहां नहीं था। कोई बच्चे को पहचान नहीं रहा था। बच्चा इतना ही कह रहा था कि और आगे और आगे। चलते चलते हैं हम शहर से बाहर जंगल में पहुंच गए। यकीन हो गया कि बच्चा कुछ नहीं बता सकता और हम वापस फिर शहर में आ जाए। धीरे-धीरे शाम ढलने लगी थी और हम शहर के गली मोहल्लों में उस बच्चे को लेकर घूमते रहे कोई भी बच्चे को नहीं पहचान पा रहा था। आखिर में 9:00 बजे के आसपास हमने आकर बच्चे को दूध बिस्किट खिलाया। इधर पैन्यूली जी अपनी रंगत में आ चुके थे। कहने लगे इस बच्चे को मैं अपने साथ ले जाऊंगा क्योंकि मुझे पुलिस वालों पर कोई भरोसा नहीं है कि वह बच्चे को कैसे रखेंगे। इधर पुलिस वालों का कहना था कि बच्चे को हम अपने पास ही सुला लेंगे सुबह फिर तलाश करेंगे। पैन्यूली अभी अपने होश में नहीं है। फिर यही तय हुआ कि पुलिस वाले ही अपने साथ बच्चे को बैंक में सुला लेंगे। और उन्होंने बच्चे को अपने बिस्तर पर सुला दिया। इतना करने के बाद मैं त्रिवेणी घाट पर स्थित पुलिस चौकी की तरफ चला गया जहां पुलिस वाले मेरे दोस्त कहने लगे आज इतनी देर कहां लग गई। उनको बच्चे के खोने का वाकया बताया। उन्होंने कहा हमारे पास अभी तक ऐसी कोई सूचना नहीं आई है जैसे ही कोई आता है हम आपके पास भेज देंगे। उसके बाद रात को लगभग 11:00 बजे के आसपास मेरे घर पर मेरे बहुत प्रिय शिवकुमार भाई साहब एक व्यक्ति को लेकर मेरे घर आए और बोले हरीश तेरे पास कोई बच्चा है। मैंने कहा हां, तो उन्होंने कहा वह बच्चा तो इसका है। मैंने पूछा इनका क्या नाम है। तो उन्होंने कहा बादशाह। इलना सुनना था और मेरे कान खड़े हो गए मैंने कहा चलो आपको दिलाता हूं। फिर हम बैंक में पहुंचे। लेकिन उस समय वहां पर दूसरे सिपाही की ड्यूटी लगी हुई थी। उसने कहा कि अभी मुझे मालूम नहीं है लगभग 2 घंटे बाद वह भाई साहब आएंगे तो कुछ बता सकता हूं क्योंकि उनकी ड्यूटी 2 घंटे बाद शुरू होगी। फिर सभी वापस वहां गए जहां बादशाह रहता था। बादशाह का घर लगभग पड़ोस में ही था लेकिन हम उस गली की तरफ नहीं गए। पता चला कि शाम से ही उस बच्चे की खोज की जा रही थी। बच्चा मिलने की खबर सुनकर सभी खुश हो गए और कहने लगे कि बच्चा बाद मिलेगा अभी बैंक में जमा है। रात को लगभग 1:00 बजे के आसपास जब अपनी ड्यूटी पर वही सिपाही आए तो उन्होंने बच्चे को उठा उसके पिता बादशाह को दे दिया। उन्होंने कहा कि भाई तुम सुबह के वक्त आना तब बात करेंगे। इसके बाद जब सभी लोग चले गए। कहने लगे कि सुबह को बादशाह आएगा तो पैन्यूली को कुछ खर्चा पानी दिलवा देंगे वह बहुत हल्ला मचा रहा था कि मेरा स्कूटर ले गए पेट्रोल खर्च कर दिया।

सुबह को जब पैन्यूली चाय की ठेली पर आया तो उसको बताया कि बच्चा मिल चुका है तो उसने कहा कि मुझे मेरा खर्चा चाहिए तो उसे आश्वस्त कर दिया कि अभी बच्चे के पिता आ रहे हैं तभी कुछ होगा वरना कुछ नहीं। थोड़ी देर बाद बादशाह हाथ जोड़ते हुए चला आया और कहने लगा बाबू जी मेरे पास तो कुछ भी नहीं है मैं तो लेबर का काम करता हूं। उधर पैन्यूली अड़ गया कि मुझे तो कम से कम ₹500 दिलवा दो। बादशाह की हालत देखकर पैन्यूली को समझाया गया कि जिस दिन बादशाह कहीं पर मिठाई बनाएगा तो उस दिन वह एक मिठाई का डिब्बा लाकर तुमको दे देगा। इससे ज्यादा कुछ नहीं मिलने वाला।

धम्मू भाई ऋषिकेश की प्राचीन और प्रसिद्ध पंडित पूरी वालों की दुकान पर काम करते हैं और बादशाह उनका हेल्पर पर हुआ करता था। अब सोनू भी लगभग 19 साल का है और वहीं पर एक दुकान पर काम करता है और बादशाह टेंट वालों के यहां अपनी रोजी रोटी कमा रहे है। अब पैन्यूली भी कहीं गढ़वाल में ढाबा चला रहा है, जैसा मुझे पता चला। पुलिस वाले अब पता नहीं कहां पर होंगे। यह पूरा वाकया 15 साल बाद इस कदर याद है कि जैसे कल की ही बात हो। अभी भी मेरी सोनू से कोई मुलाकात नहीं हुई जैसा कि धम्मू भाई ने कहा है कि मैं सोनू को आपसे मिलवा दूंगा जरूर।

इंसानियत

 इंसान ने चांद पर पहुंचने का दावा तो कर दिया, पर धरती पर गरीबी खत्म करना सूरज पर पहुंचने जैसा ही रह गया। अब हम कैसे बच्चों को समझाएंगे कि बेटा दूर गगन में देखो में चंदा मामा देख रहे हैं क्योंकि जब हमारे बच्चे बड़े होकर हकीकत से रूबरू होंगे तो वह हमको धोखेबाज समझेंगे, तब हम उनको कैसे संतुष्ट करेंगे। वैसे भी हमने बच्चों का बचपन कब का छीन लिया था, और अब उनसे उनका प्यारा चंदामामा भी छीन लिया। रही बात गरीबी तो, हमने जिन पर विश्वास किया कि वह हमारी गरीबी दूर करने का हर संभव प्रयास करेंगे, उल्टा उन्होंने गरीब से वह भी छीन लिया, जो उसका अपने बच्चों का मन बहलाने का एकमात्र सहारा था। अमीरों का क्या वह तो चांद पर जाकर अपना जीवन गुजारने की कोशिश में है, जब पृथ्वी पर इंसान नहीं बन सके तो क्या भरोसा वह चांद पर जाकर इंसान बने रहेंगे? चांद पर पहुंचकर नई दुनिया बसाने से क्या फायदा, सूरज चांद ही तो दिन रात का अहसास कराते है। फिर कमजोर पर तो हर कोई अधिकार जमा ही लेता है, जैसे अमीरों ने गरीब को अपना गुलाम समझा है, ठीक वैसे ही शांत, शीतल चंदा मामा पर अपना भी अधिकार जमा लिया। दूसरी ओर गर्म और हमेशा क्रोध से लाल रहने वाले सूरज को अपने कब्जे में लेकर कोई दिखाए तो बात हो। इंसान की फितरत है कि कमजोर को हमेशा दबाकर रखो। चाहे बेजुबान जानवर हो, पेड़ पौधे, कल कल करती नदियां सभी का दोहन इंसान ने अपनी सुविधानुसार कर लिया। इसी सबके चलते जब पर्यावरण का स्वरूप बिगड़ गया, तो इंसान को यह धरती ही बोझिल लगने लगी। इंसान इंसान की तरह क्यों नहीं अपना जीवन बिताता। यह अलग बात है कि इंसान की चाहत की कोई सीमा नहीं है, पर हर कोई अपनी सीमाओं को लांघने में लगा हुआ है। इंसान क्यों भूलता जा रहा है कि जिस प्रकार पेड़ पौधे, जानवर ईश्वर की देन है, ठीक उसकी प्रकार इंसान भी तो ईश्वर की देन ही है। फिर ईश्वर की नजर में सभी तो समान माना गया है, सभी स्वतंत्रता से जीने का अधिकार है। फिर चाहे इंसान हो जानवर। एक पुरानी फिल्म का गीत ‘जब जानवर कोई इंसान को मारे, तो वहशी कहते है उसे दुनिया वाले। तो जब इंसान जानवरों का मारता है, पेड़ पौधों को काटता है तो उसको वहशी क्यों नहीं माना जाता। समझ नहीं आता इंसान इंसानियत को क्यों भूलता जा रहा है? क्यों वह ईश्वर प्रदत्त चीजों से खिलवाड़ करता है, और वह भी जब ईश्वर की खोज में सदियों से मारा फिर रहा है। हां कभी कभी जब प्रकृति इंसानी फितरत का विरोध करती है तब इंसान बेबस हो बोल ही देता है हे भगवान बस करो, अब नहीं। फिर ऐसा क्यों?

सोमवार, 18 अप्रैल 2022

आज जरूरी है संयुक्त परिवार की खुशबू

जितनी तेजी से हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं बदल रही है, उतनी ही तेजी से संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवार में बदल रहे है. जब किसी भी चीज के टूटने का क्रम शुरू होता है, वह अपने अंतिम समय तक टूटती रहती है, फिर उसको कितना भी बचाओ, उसकी दरारे गहराती ही जाती है. क्योंकि जिस प्रकार कांच के टुकड़ों को कितना भी जोड़ा, दरारे साफ नजर आती है. परिवार इंसानों से ही बनते है और आज इंसान अपनी रोजी-रोटी के लिए यहां-वहां भटक रहा है. ऐसे में अगर एक बार अपने घर-परिवार से कदम बाहर निकले तो समझो, यह कदम शायद ही अगले 30 – 40 साल तक वापस अपने घर में लौटेंगे. फिर इतने समय में बच्चे दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ या नाना-नानी, मौसी या मामा के प्यार को बेगाने माहौल में परायों के बीच ढूंढते हुए इतने बदल जाते है कि वह अपने संस्कारों को अपनाने से भी डरते है. आज सबसे बड़ा ज्वलंत सवाल सामने आ रहा है शादी के कुछ महीनों या सालों बाद तलाक का. इसकी वजह साफ नजर आती है, दो इंसानों की सोच एक नहीं हो सकती है. इस सोच को एक करने के लिए जिस माध्यम की सबसे बड़ी भूमिका होती है वह है संयुक्त परिवार. पति रूठे तो भाभी ने मनाया, पत्नी रूठी तो ननद ने प्यार से समझा दिया. ज्यादा हुआ तो सभी ने मिल बैठ कर बीच का रास्ता निकाल दिया और बच गया वह छोटा सा घरौंदा जिसको अभी जीवन के अनगिनत पहलुओं से रूबरू होना है. अब इसे संयुक्त परिवार का डर कहो या प्यार, कि नए-नवेले रिश्ते टूटने की बजाए और मजबूत हो जाते है. बस यही बात आज के एकल परिवारों में नहीं हो सकती है, जहां पति-पत्नी में जरा सी बात पर मनमुटाव क्या हुआ, वही इस जरा सी बात को पहाड़ बनाने के लिए इतने हमदर्द मिल जाते है कि दोनों को पति-पत्नी के रूप में जीवन बिताना नरक जैसा लगने लगता है, फिर इसकी परिणति तलाक के रूप में ही सामने आती है. रोजगार की तलाश में दूसरी जगह पर एक छोटा सा घर या बड़ा सा मकान तो बनाया जा सकता है और उसको पैसे की ताकत के बल पर बाह्य सुखसुविधा की हर वस्तु से सुसज्जित भी किया जा सकता है. लेकिन उसको अपने परिवार की खुशबू से नहीं महकाया जा सकता. साथ ही उसमे बचपन के खट्टे-मीठे यादगार लम्हों को महक भी नहीं होती. अगर संयुक्त परिवारों में नहीं रहना हमारी मजबूरी है, तो हम अपने एकल परिवारों में अपने बच्चों के लिए छोटा सा परिवार तो बनाकर रख ही सकते है, जहां वह दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार की छांव में खेलते-कूदते और संस्कारों को सीखते हुए बड़े हो, (भले ही कुछ समय के लिए) वैसे भी बच्चों का गांव वह होता है, जहां पर उनके दादादानी या नानानानी का घर. संयुक्त परिवार तो टूटने के कगार पर है ही पर हम अपनी कोशिशो से एकल परिवारों में संयुक्त परिवारों की खुशबू तो महका ही सकते है. अब यह हमारी सोच पर निर्भर करता है कि आखिर हम चाहते क्या है?

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

गुरु जब सर हो जाए...


प्राचीन काल में भारत में स्थित शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ केंद्रों को विदेशी आक्रमाणकारियों ने नष्ट किया होगा या नहीं, यह बात इतिहास के पन्नों तक ही सीमित है लेकिन वर्तमान में भारत में शिक्षा व्यवस्था की बदहाली के लिए सरकारें ही जिम्मेदार है। शिक्षा के संबंध कोई ठोस नीति नहीं है। साल दर साल बदलने वाले पाठ्यक्रमों के चलते हमेशा दुविधा में रहने वाले बच्चे व अभिभावकों के साथ ही शिक्षकों को भी पता नहीं चलता कि आखिर करना क्या है? राज नेताओं ने अपने तात्कालिक फायदे के लिए इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हुए न जाने कितने पन्नों को किताबों से गायब करवा दिया और न जाने कितने पन्नों को जुड़वा दिया. सरकारों की शिक्षा के प्रति उदासीन रवैये को बताने के लिए यहां-वहां खंडहर हुए प्राथमिक विद्यालय और राजनीति के अखाड़े बने विश्वविद्यालय कैंपस बयां करने के लिए काफी है. ऐसा भी तब है कि जब एक शिक्षक डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के साथ-साथ बचपन में अखबार बेचकर कर पढ़ाई करने वाले मिसाइल मैन डा. एपीजे अब्दुल कलाम देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर चुके हो. यह बात समझ नहीं आती है कि आखिर जो देश शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रह चुका हो, जहां के नागरिकों ने बदहाली में जीवन-यापन करते हुए महत्वपूर्ण पदों को संभाला हो, वहां आज भी शिक्षा व्यवस्था बदहाल सी ही दिखती हो. इच्छा शक्ति का अभाव और राजनीतिक हीलाहवाली के चलते हमारा भविष्य क्या होगा, यह बात तो आने वाला भविष्य ही बताएगा, लेकिन फिलहाल तो हालात चिंता का विषय है ही.

जब विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक सत्र तक नियमित न कर पाते हो. सरकारे विश्वविद्यालयों को सामान्य स्तरीय सुविधाए तक देने में आनाकानी करती हो. तब ऐसे में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है वो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएगे. न फैकल्टी न स्टूडेंट्स के बैठने के लिए क्लास रूम और न ही पर्याप्त सुविधाए. बस धकापेल एडमिशन और फीस का घालमेल. भारत रहा होगा कभी विश्व मे शिक्षा का केन्द्र, लेकिन अब तो विश्वविद्यालय कैंपस राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर तब्दील होते जा रहे है. जिस दौर में गुरुओं की जगह सर ने ले ली हो, उस दौर में सिर ही उठेंगे, उन सिरों में क्या होगा, यह गुजरे समय की बात हो चुकी है. वह दौर और था जब गुरु को सर्वोपरि माना जाता था, लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण के चलते गुरु -शिष्य की परंपरा खत्म सी हो गई है. अब पैसे के दम पर हासिल की गई शिक्षा में गुरु-शिष्य वाली जैसी कोई बात नहीं हो सकती है.

शुक्रवार, 25 मार्च 2022

याद ना जाए बीते दिनों की


आजादी के बाद से अधिकांश समय तक कांग्रेस ने ही देश की सत्ता संभाली है। सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी के नुमाइंदे आज अपनी जिम्मेदारियों से भागते नजर आ रहे है। आज भले ही अन्य राजनीतिक दल अस्तित्व में आ गए है, यह अलग बात है। उनका गठन हुए अभी समय ही कितना हुआ है, कांग्रेस की तुलना में तो उनके अभी दूध के दांत भी नहीं टूटे है। देश के किसी भी हिस्से में किसी भी स्तर का मामला हो, वहां पर कांग्रेस मुख्य पार्टी के रूप में मौजूद रहती है। आज भी लगभग हर घर का मुखिया या सबसे बड़ा सदस्य कांग्रेस के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करता है, इसकी वजह साफ है उसने कांग्रेस के स्वर्णिम दिनों को देखा है, उसने देखा है कांग्रेस का जोश, कांग्रेस की ताकत और देखी है कांग्रेसजनों की वह आंधी, जिसमें उड़ गए वह अंग्र्रेज, जो सालों से राज कर रहे थे, हिन्दुस्तान पर। तब ऐसे में आज कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह बुजुर्ग कांग्रेस से अलग होकर किसी अन्य के बारे में सोचे। वह बुजुर्ग जिसने अपना संपूर्ण जीवन कांग्रेस को समर्पित कर दिया, वह अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर कैसे कांग्रेस का साथ छोड़ सकता है। समय के साथ-साथ बदलते हालात में अवसरवादिता हावी होती जा रही है। आज व्यक्तिगत हित देश हित से बड़े हो गए है। तब ऐसे में आश्चर्य तो होगा ही कि देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने के उद्देश्य से गठित कांग्रेस अपनी हर गलती की जिम्मेदारी उन दलों पर डाल कर अपने दामन को बेदाग साबित करने में जुटी है। वह ऐसा क्यों कर रही है, थोड़ा बहुत समझ में आता है, राजनीतिक पार्टी राज हासिल करने के लिए जोड़-तोड़ तो करेंगी ही, क्योंकि उसको सत्ता हासिल करनी है। यह बात बिलकुल समझ नहीं आती है कि जब कांग्रेस पूरी ईमानदारी से अपने को बेदाग साबित करते हुए हर बार सत्ता हासिल करने का प्रयास करती है तो आम जनता क्यों ईमानदारी से अपने मत का प्रयोग नहीं करती। कुछ साल पहले कांग्रेस के विकल्प के तौर पर अन्य दल नहीं थे, लेकिन अब समय बदल चुका है, राष्ट्रीय राजनीति में अन्य दल भी मौजूद है। जब हमारे सामने विकल्प मौजूद हो तब एक ही दल के प्रति निष्ठावान होना समझ से बाहर हो जाता है, वह भी उस दल के प्रति जो देशवासियों की निष्ठा के साथ खिलवाड़ कर रहा हो।

गुरुवार, 24 मार्च 2022

उत्तराखंड में रंगमंच की एक आधार शिला नाट्य गुरु श्रीश डोभाल


( विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष)

कंधे पर बैग ,बैग में २ कपडे और नाटक और रंगमंच की जीती जागती मिसाल न पैसे और न खाने की चिंता रगो में बहता रणमंच एक परिचय है श्रीश डोभाल का. कहते है अगर जीवन में समाज की बेहतरी के लिए कोई उदेश्य न हो तो वो जिंदगी निर्थक और बेजान सी हो जाती है लेकिन उदेश्य को लेकर आगे बढ़ते रहना क्या होता है और उस उदेश्य की पूर्ति के जीवन - घरबार , दो टाइम की रोटी और चमचमाता कॅरियर सब दाँव पर लगा कर कंधे पर बैग ,बैग में २ कपडे और एक शहर से दूसरे शहर की डगर भरते जीते जागते आदमी की मिसाल है नाट्य गुरु श्रीश डोभाल जिनका हाथ लगते ही या यु कहे जिनकी कार्यशाला में जाते ही देश भर के कई युवा -छात्र -पत्रकार और अध्यापक तप कर सोना बन जाते है और अपने अपने छेत्र में एक नयी पहचान बनाते है ऐसे है साहित्य की आधार शिला पर अनेक कलाओ की संविंत विधा रंगमंच के लिए समर्पित रंगकर्मी श्रीश डोभाल जिनका का जन्म ऋषिकेश में हुआ ,आरंभिक शिक्षा चम्बा [टिहरी गढ़वाल ]के बाद देहरादून से बी. एस.सी. करके सरकारी नौकरी छोड़ कर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय [ एन.एस डी ] से नाट्य व रंगमंच में तीन वर्षीय गहन स्नातकोत्तर प्रशिक्षण अभिनय विशेज्ञता के साथ 1984 में पूरा किया। ये उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा दिन था ,हर कोई NSD से निकल कर मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में अपना भाग्य आजमाने और बेहतर कैरियर के लिए जा रहा था ,ऐसे में श्रीश डोभाल ने रंगमंच के प्रति अपनी प्रतिब्धता को घ्यान में रख कर उत्तराखंड में नए रंगमंच को जन्म दिया ,उसी वर्ष [1984 ] उत्तराखंड उस समय अविभाजित उत्तरप्रदेश का अंग था यहाँ के उन प्रमुख स्थानों पर प्रशिक्षण शिविर स्थानीय कला व साहित्य प्रेमियो के सहयोग से संचालित किये और उत्तराखंड में रंगमंच को आधुनिक शैली व तकनीक से विकसित किया और क्रमश:उत्तरकाशी ,कोटद्वार ,टिहरी, गोपेश्वर और श्रीनगर में उत्साही युवाओ ,प्राथमिक से लेकर महाविद्यालयों तक के अध्यापको, छात्र-छात्राओं को सार्थक रंगमंच की ओर रुझान बढ़ाते हुए नब्बे के दशक में अनेक प्रबुद्ध व्यक्तियों को रंग आंदोलन से जोड़ कर उत्तराखंड में एक नयी विधा को जन्म दिया आज श्रीश डोभाल के जिंदगी भर के प्रयास की बदौलत उत्तराखंड के सभी जिलों में शैलनट की स्वतंत्र इकाई स्थापित की और उत्तराखंड में कला के छेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई ,शैलनट के इस नाट्य गुरु की पाठशाला से निकले और सहयोगी रहे उत्तराखंड के कुछ प्रबुद्ध नागरिक मंत्री प्रसाद नैथानी , सुरेंद्र सिंह रावत , कमला राम नौटियाल, प्रो प्रभात उप्रेती, डॉ महावीर प्रसाद गैरोला, डा सुधा आत्रे, प्रो चन्द्रप्रकाश बड़थ्वाल [पूर्व कुलपति ],सत्यप्रकाश हिंदवाण, डॉ नन्द किशोर हटवाल, प्रो डी आर पुरोहित, एसपी ममगाई, डा राकेश भट्ट, डा डीएन भट्ट, दिनेश उनियाल, अनुराग वर्मा जैसे उत्तराखंड के कई नाम है जो हर छेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे है श्रीश डोभाल ने उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को कई डाक्यूमेंट्री के जरिये सजोये रखा है साथ ही 15 भाषाओ में नाटकों का निदेशन 11 नाटकों का अनुवाद 8 विदेशी एक कन्नड़ ,हिंदी और गढ़वाली से अंग्रेजी महाभारत पर आधारित गरुड़ व्यूह का लेख न साथ ही 35 अधिक राट्रीय -अंतरास्ट्रीय निर्देशकों के साथ अभिनय ,6 निदेशित नाटकों की अंतरास्ट्रीय समारोह में सफल मंचन इसके साथ ही श्रीश डोभाल ने प्रख्यात निर्देशकों के साथ तीन राट्रीय पुरूस्कार प्राप्त फिल्मो में अभिनय किया 20 टीवी धारावाहिक कई टेली फिल्मो में अभिनय किया ,आज श्रीश डोभाल उत्तराखंड सहित कई राज्यों में नाट्य विधा के प्रसार के चलते कई पुरुस्कारो से सम्मानित है इस नाट्य गुरु का पूरा जीवन रगमंच को समर्पित है इनकी पाठशाला से निकले कई शिष्य देश भर में इस विधा को आगे ले जाने में लगे है

शनिवार, 19 मार्च 2022

वक्त और हम

वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज

क़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज । 

कहते है वक्त जब मुंह मोड ले तो सब कुछ खत्म हो जाता है और जब वक्त साथ दे तो सब कुछ अपना हो जाता है. पर हम यही पर गलत हो जाते है. जो वक्त को ठीक से पहचान नहीं पाते. क्योंकि वक्त अपनी एक सी स्पीड से लगातार चलता रहता है. बस हम ही उसे पकड़ नहीं पाते. हम निराश और हताश होकर चलना बंद कर देते है और वक्त आगे निकल जाता है. अनगिनत उदाहरण है, जिन्होंने वक्त की स्पीड से आगे निकल कर उन बुलंदियों को छूकर अपने लिए वो मुकाम हासिल किया है, जो आने वाली पीढिय़ों के लिए आदर्श बन गए. हम ही अपने जीवन से हार मानकर उदास हो जाते है और कहते है कि वक्त ने हमारा साथ नहीं दिया. वक्त आएगा कहां से. उसको तो हमने ही छोड़ा है. और जिसको हमने ही छोड़ दिया, वह हमें मिलेगा कहां से. वक्त के साथ चलने के लिए हमको ही कोशिश करनी होगी. हमको ही बदलना होगा. वक्त को पकडऩे के लिए हाई स्पीड ट्रेने बनाई गई. जब उनसे भी बात नहीं बनी, तो हवा में सफर के लिए जहाजों को लाया गया. वक्त से आगे निकलना है, तो उदासी का आलम छोडऩा पड़ेगा. लगातार अपडेट रहने के साथ ही अपने लिए एक मुकाम निश्चित करके तेजी के साथ उसके लिए प्रयास करना होगा. क्योंकि वक्त ने कभी भी किसी एक का साथ नहीं दिया, वह तो सबके लिए एक सा ही होता है. बस हम ही उससे दूर और पास होते रहते है. दुनिया में कई देशों ने वक्त की नजाकत को समझते हुए विकास के वह मुकाम हासिल कर लिए है, जिनके बारे में हम ही सिर्फ सोच ही सकते है. और हम इतना पीछे छूट गए है कि वहां तक पहुंचना अभी भी नामुमकिन सा लगता है. हमारा कमजोर पहलू है कि अति उत्साह. और इसी अति उत्साह के कारण हम वक्त पर कोई भी काम करने की आदत नहीं है, और अपने पिछड़ेपन का सारा दोष वक्त पर डाल कर अपना दामन बेदाग कर लेते है.

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

चुनिए उसे, जो हो साथ आपके

आर्थिक मदद और विकास की बात छोड़िए आप चुनिए उसको जिससे आप अपने जीवन संघर्ष में उम्मीडद कर सकते हैं कि वह आपके साथ होगा. यूं भी जब लड़ना खुद ही है तो फिर उसका साथ क्यों देना जो सहानुभूति तो दूर तमीज से आंख भी ना दिखा सके. चुनिए उसे जो आपके गली-मोहल्ले से होकर गुजरता हो. चुनिए उसे जिसको देखा हो आपने कंधे पर स्कूल का बैग लटकाए. देखा हो जिसको शहर की सड़कों पर आपके लिए संघर्ष करते हुए. वह जितना मजबूत होगा उतनी ही दृढ़ता के साथ आप कह सकेंगे यह तो वही है जिसका बचपन हमने देखा है. सोचिए सिर्फ आपकी एक सहमति उस नन्हे बच्चे को एक परिपक्व युवा बनाते हुए लोकतंत्र के मंदिर में आपके लिए ही कुछ कर गुजरने के लिए भेज सकती है. यह सच मानिए कि गाहे-बगाहे आप ही कहेंगे कि अरे यह तो वही है जिसको हम बचपन से जानते हैं. सोचिए जो दुख की घड़ी में आपके साथ खड़ा होता हो तो वही युवा बेघर होने के कगार पर पहुंची जनता की आवाज भी बनता हो. चुनिए उसको जो जीते या हारे रहेगा आपके आसपास ही. उसको नहीं जिससे मिलना तो दूर, दर्शन भी आसमान से तारे तोड़ने जैसा असंभव हो. दूसरों के कंधे पर चढ़कर जीत का जश्न मनाने से अच्छा है खुद के पैरों पर फुदकना. क्योंकि दूसरे के घुटनों पर आते ही आपका गिरना तय है. फैसले का वक्त आ चुका है आप अपने संघर्ष को 5 साल का एक्सटेंशन देना चाहते हैं, तो कोई दिक्कत नहीं. नहीं तो कीजिए उस युवा का समर्थन जिसकी उम्मीद केवल आपके एक फैसले पर टिकी है. याद कीजिए पिछले कई सालों में आपने क्या-क्या नहीं सहा होगा. वक्त गुजरने के साथ-साथ तो सब मैनेज हो जाता है. बात तो सिर्फ उस दुख भरे वक्त की होती है और उस पर भी जब कोई आपके जख्म पर नमक छिड़क दें. अगर परिवर्तन सृष्टि का नियम है तो फौलादी इरादों के सामने चट्टान भी धराशाई हो जाती है. फिर यह तो एक बटन दबाने की बात है. यह बटन ही तय करेगा कि आखिर आप चाहते क्या हैं? लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार तो बनेगी, लेकिन आप का विधायक आपके साथ होगा या आप से अलग. यह आपको निर्णय लेना है.