बेतरतीब शहरों में बेढंगी सडकों पर मानकों की खिल्ली उडाते व्यापरियों की ग्राहकों को लुभाने वाली सोच ही हादसों की आशंका को प्रबल करती है. दीपावली पर सडक के दोनों साइडों के दुकानदारों का अपनी हद को पार करते हुए सामान सजाना स्टेटस सिंबल बन गया है. लंबी-चौडी दुकानों से बाहर निकल कर सडकों पर रेहडी व फड वालों का हक मारते व्यापारी आखिर क्या जताना चाहते है. यूं तो हादसे की आशंका हर वक्त बनी रहती है, लेकिन दीपावली के मौके पर इन हादसों की आशंका सौ फीसदी होती है, इन संकरी गलियों में आग या अन्य घटना होते ही हाहाकार मच जाता है, कायदे कानून को ताक पर रखकर यही व्यापारी सीधे प्रशासन को दोषी करार देते हुए अपना पल्ला झाड लेते है. खुद ही सोचिए अतिक्रमण के चलते अच्छी खासी चौडाई वाली सडक संकरी गली बन जाएगी तो हादसा होने पर फायर ब्रिगेड की गाडिया क्या आसमान से पानी बरसाएगी. हर वक्त शासन प्रशासन को ही दोषी ठहराना भी अच्छी बात नहीं है. खुद के गिरेबां में झांक कर देखिए ही हम खुद कितने ईमानदार है. ठेली या फेरी वाले गरीब का सडक पर चादर बिछाकर सामान बेचना तो समझ आता है, लेकिन बडी बडी दुकानों के मालिकों द्वारा सडकों पर सामाना फैलाना गले नहीं उतरता. ऊपर से भीड़ भरे बाजार में फोर व्हीलर वालों आवाजाही अलग. सुव्यवस्थित त्योहार पर अव्यवस्थित बाजार व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह तो है ही?
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