बुधवार, 1 मई 2019

हृषीकेश नारायण की परिक्रमा से बद्रीनाथ के दर्शन का पुण्य


उत्तराखंड के चार धामों में से एक बदरीधाम की हिमालयी यात्रा का विशेष महात्म्य है. देश ही नहीं विदेशी श्रद्धालु भी यहां पुण्य अर्जित करने पहुंचते हैैं. लेकिन, ऋषिकेश में एक ऐसा मंदिर भी है, जहां अक्षय तृतीया पर 108 परिक्रमा करने से ही बदरीनाथ के हिमालयी धाम के दर्शन का पुण्य मिल जाता है. जो श्रद्धालु बदरीनाथ की यात्रा करने में अक्षम होते हैैं, उनके लिए ये मंदिर बदरी दर्शन का पुण्य देता है. ऋषिकेश नारायण भरत मंदिर में हर वर्ष अक्षय तृतीया के दिन सुबह से ही श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगने लगता है. देश के कोने-कोने से यहां श्रद्धालु परिक्रमा के लिए पहुंचते हैैं. अक्षय तृतीया को ही गंगोत्री और यमुनोत्री धाम के कपाट ग्रीष्मकाल के लिए खोले जाते हैैं और इसी दिन से चार धाम यात्रा का आगाज होता है. श्रद्धालु भरत मंदिर के दर्शन कर चार धाम यात्रा की शुरुआत करते हैैं. विक्रमी संवत् 846 के लगभग आदि गुरु शंकराचार्य ने वसंत पंचमी के दिन हृषीकेश नारायण भरत भगवान की मूर्ति को मंदिर में स्थापित करवाया था. बैसाख माह में शुक्ल पक्ष की  तृतीया यानी अक्षय तृतीया का धर्म ग्रंथों में विशेष महत्व बताया गया है. पुराणों के अनुसार आज ही के दिन सतयुग का प्रारंभ हुआ था. वैष्णव परंपरा से जुड़े पौराणिक मंदिरों में इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा होती है. 7वीं शताŽदी में  शंकराचार्य द्वारा पुन:स्थपित ऋषिकेश नारायण भरत मंदिर से जुड़ी एक प्राचीन मान्यता  के कारण अक्षय  तृतीया  को यहां की 108 परिक्रमा करके भगवान बदरीनाथ के दर्शन के समान पुण्य मिलता है. ऋषिकेश शहर हिमालय के मणिकूट पर्वत की तलहटी में गंगा तट पर बसा पौराणिक नगर है. इसे पहले हृषीकेश के नाम से जाना जाता था जो बाद में ऋषिकेश हो गया. हृषीकेश दो शŽदों के योग हृषीक (इंद्रिय) और ईश (इंद्रियों के अधिपति विष्णु) से मिलकर बना है. स्कंद पुराण के अनुसार यहां रैभ्य मुनि ने इंद्रियों को जीत विष्णु को प्राप्त किया था. रैभ्य ऋषि की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने दर्शन दिए और वरदान दिया कि आपने इंद्रियों (हृषीक्) को वश में करके मेरी आराधना की है, इसलिए यह स्थान हृषीकेश कहलाएगा और मैं कलयुग में भरत नाम से यहां पर विराजूंगा. जनुश्रति है कि स्वार्गारोहण के समय पांचों पांडव द्रोपदी सहित यहां आए, कुछ समय तक विश्राम करके हृषीकेश नारायण का पूजन कर उत्तराखंड की यात्रा पर चल पड़े. पांडवों के पथ-निर्देशक ऋषि लोमश ने यहीं पर पांडवों को महत्वपूर्ण निर्देश दिए थे. अशोक महान (लगभग 273-232 ई.पू.) के शासनकाल में भगवान बुद्ध भी यहां पधारे थे. इस क्षेत्र के सभी मंदिर बौद्ध मठों के रूप में परिवर्तित कर दिए गए. जिससे यह मंदिर भी अछूता नहीं रहा. मंदिर के समीप ही उत्खनन में प्राप्त पाषाण प्रतिमा बुद्ध की बताई जाती है. मंदिर के पास यह मूर्ति अब भी वट वृक्ष के नीचे देखी जा सकती है.