गुरुवार, 24 नवंबर 2011

हजारों से बेहतर, लाखों में कमतर

कभी आप सब्जी मंडी में टमाटर खरीदने गए है. अगर नहीं गए तो मंडी जाकर टमाटर खरीद लेना बस. बात बहुत छोटी सी है, पर यही छोटी सी बात हमारी बहुत बड़ी सोच को संतुष्ट कर सकती है. अब क्योंकि हम नौकरीपेशा लोग है. हमको अपने संस्थान या मालिक वर्ग से हमेशा सिर्फ एक ही शिकायत रहती है, काम की कोई कद्र नहीं, सैलरी का कोई हिसाब नहीं. यही सोच हमारी तरक्की में सबसे बड़ी बाधक है. इस सोच को खत्म करने के लिए एक बार सब्जी मंडी में जाकर टमाटर खरीदने की जहमत उठानी पड़ेगी. सोचिए जब हम पिलपिले और पके हुए टमाटर नहीं खरीदते है, जो बहुत ही सस्ते दामों पर हमको मिल जाएगे. अब क्योंकि हम अपने खानापान से समझौता नहीं कर सकते, आगबबूले होकर अगली ठेली की ओर अपना रूख कर लेते है. तब आज के बेहद कठिन प्रतिस्पर्धी माहौल में हम कैसे दावा कर सकते है कि हम सबसे बेहतर है. और हमारे नियोक्ता हमको मुंहमांगा वेतन उपलब्ध कराए. कभी हम हजारों में बेहतर थे, आज लाखों हमसे बेहतर है. हर पल हर दिन नई टेक्नोलॉजी और कार्य की संस्कृति बदल रही है, ऐसे में स्वयं को परिवर्तन के अनुरूप ढालना जरूरी हो जाता है. मैंने कभी पढ़ा था कि सबसे बड़ा देशभक्त वह है, जो किसी को रोजगार उपलब्ध कराए. ऐसे में अपने नियोक्ता की नियत पर शक करने का सवाल ही पैदा नहीं होता. क्योंकि उसने ही हमको रोजगार उपलब्ध कराया है. यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपना बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपने संस्थान को तरक्की के रास्ते पर ले जाए. अगर हम ऐसा कर पाने में सफल हो जाते है, तो हमको अपने साथ रखना और मुंहमांगा वेतन उपलब्ध कराना संस्थान या मालिक वर्ग की मजबूरी बन जाएगा, ठीक वैसे ही जैसे बहुत अच्छे टमाटर देख हमारे मुंह में पानी आ जाता है और हम महंगे दामों पर भी उनको खरीदने को तैयार रहते है.