बुधवार, 17 मार्च 2010
जिंदगी की भागम-भाग
जिंदगी भी क्या है, बचपन से लेकर बुढ़ापे तक भाग-भागम, पहले अपने पैरों पर चलने की जल्दी में घुटने छिलवाए. किसी तरह चलना शुरू किया तो घर की चौखट लांघने की जल्दी. थोड़ा आगे बढ़े तो स्कूल में एडमिशन की भाग-दौड शुरू. ले देकर मम्मी डैडी ने एडमिशन करा दिया तो क्लास में आगे निकलने की होड़. हाय जिंदगी की मारमारी छुटपन से ही शुरू. आगे निकलो, आगे निकलो, कहां से आगे निकलो, हर तरफ तो जाम ही जाम है. क्लास में जाम. घर पर जाम, सड़क पर जाम. खेल के मैदान में जाम. कोई आगे ही नहीं बढ़ रहा है तो हम कैसे आगे बढ़े. बस भाग रहे चक्कर घिन्नी बने. जिनसे आगे निकलना है, उनका तो पता ही नहीं वह कहां तक पहुंच चुके है. किसी तरह घिसटते हुए स्कूल से बाहर निकले तो पता चला, अभी तो वही पर है, जहां से चले थे. एक बार फिर दौड़ शुरू हुई कॉलेज, इंस्टीट्यूट में एडमिशन कराने की, शायद यहां पर जिंदगी में ठहराव आ जाए, शायद यहां से सबसे आगे निकलने का रास्ता मिल जाए. पर किस्मत यहां भी दगा दे गई. मां-बाप के पैसों की पॉवर से चार-पांच साल और मिल गए, अपनी जिंदगी की फिनिशिंग के लिए. लगा अब तो ऐश के दिन ही आ गए समझो. कुछ समय बाद पता चला कि बेटा अभी आराम कहां है. असली भाग-दौड़ के दिन शुरू भी नहीं हुए. जब एक अदद नौकरी के लिए एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस, एक शहर से दूसरे शहर, इस स्टेट से उस स्टेट. इतनी भाग दौड़ में अपने कब कहां छूट गए, पता ही नहीं चला. नौकरी की लाइन में खड़े होने की जगह भी नहीं मिल पाई. अपने तो कब के पराए हो गए पता ही नहीं चला. फिर बेहताशा, कभी इधर, कभी उधर बस भागे चले जा रहे है. जाना कहां है, यह तो अभी तक तय नहीं हो पाया है. किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हुआ तो वह भी सुकून से नहीं खा पाते. सुबह घर से निकल कर काम पर जाने की जल्दी, शाम को घर पहुंचने की जल्दी के बीच पता ही नहीं चलता, हम किससे पीछे है और किससे आगे. ऐसे में अपडेट क्या खाक होगे. वक्त मिले तो कुछ करें भी, आजकल की बात ही है जिस देखो, वह कह रहा है हॉकी में तो नाक ही कट गई. वहां भी क्या कम भाग-दौड़ थी, इंडियन प्लेयर्स को भगा-भगा कर ऐसा पीटा कि वह भी जल्दी से हॉकी का नाम नहीं लेगे, हमें तो क्या याद रहेगा, थोड़ा बहुत याद आता तो उधर आईपीएल आ धमका. उसमें भी वही भाग-दौड़ पहले पांच दिन से 100 ओवर तक और अब सिर्फ 40 ओवर में ही पूरा मैच. पैसा कमाने की होड़ में जेंटलमैन गेम्स का नाश. क्या क्या याद करें, ठीक से याद भी रहा. सब कुछ भूल सा गए है. अपना बचपन, अपना घर, अपना मौहल्ला, अपना शहर, चाय की दुकान, अपनी रोज शाम की दोस्तों के साथ महफिले (भले ही लोकल लेबल की थी). मेहनत करके अपने शरीर को क्यों खराब करें. पहले कम से कम पढ़ तो लेते ही थे, पर तो हमारी सरकार ने पढ़वाने के नाम पर ही कह दिया किसी को फेल ही नहीं किया जाएगा. अब पास-फेल से क्या डरना, जब फेल ही नहीं होना. अब आने वाले कुछ समय में हमे भागदौड़ से मुक्ति मिल जाएगी, क्योंकि जिस स्पीड से दुनिया आगे बढ़ रही है और हर काम टच करते ही हो जाता है. तो भला फिर क्यों भागना. चलो अब लिखना खत्म करता हूं, अभी बहुत काम बचा है और फिर मुझे भी घर भागना है.
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blog padhne ke dauran man ka panchhi kahan kahan udd kr aaya shabdon me bayan karna mushkil hai.... shubhkamnao sahit
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