गुरुवार, 24 नवंबर 2011
हजारों से बेहतर, लाखों में कमतर
गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011
स्थायित्व प्रदान करती है कर्म पूजा
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करोगे कब।।
वर्तमान में मीडिया क्षेत्र में इस दोहे को चरित्रार्थ होता देखा जा सकता है। जहां पर आज तो आज की नीति पर अमल होता है। हां, प्रलय जैसी बात तो नहीं होगी, लेकिन स्पर्धा के दौर में दूसरे के आगे निकल जाने का डर हमेशा मन में समाया रहता है। मीडिया क्षेत्र की सबसे बड़ी और अच्छी बात यह है कि यहां पर किसी भी काम को अगले दिन पर नहीं छोड़ा जा सकता है। मतलब काम कितना भी हो, आज ही खत्म होना है। कभी-कभी झुंझलाहट भी बहुत होती है। यह कैसी नौकरी है, जहां पर एक दिन की छुट्टी भी आराम से नहीं मिलती। बहुत से लोगों को यह कहते सुना जा सकता है, अरे तुम छुट्टी की बात करते हो, मुझे अपनी शादी के समय सिर्फ दो या तीन का अवकाश बामुश्किल मिला था। उस समय मन करता है अभी इस नौकरी को छोड़ कर दूसरी नौकरी के लिए बात की जाए। लेकिन जैसे ही दिन का काम खत्म होता है या अवकाश मंजूर हो जाता है, वैसे ही झुंझलाहट भी दूर हो जाती है। यह जो झुंझलाहट है, ईमानदार व कर्मठ व्यक्ति के स्वभाव में नहीं है, पर क्या किया जा सकता है, यह आती उन लापरवाह व्यक्तियों की ओर से, जिनको शौक होता है, मीडिया में जॉब करने का, लापरवाह व अयोग्य व्यक्ति जोड़-तोड व सिफारिश के बल पर मीडिया में जॉब हासिल कर लेते है। लेकिन काम न करने की आदत के चलते न तो खुद ही काम करते है और न ही दूसरों को करने देते है। इन लोगों के पास इतना समय होता है कि देखकर ताज्जुब होता है। रही बात काम करने की, तो काम तो आता ही नहीं करे भी कैसे। बॉस परिक्रमा करने की आदत के चलते उनको कुछ कहा भी नहीं जा सकता। उनकी यह आदत जब रूटीन काम में दखल डालती है, तो सारा काम ही रूका जाता है, तब झुंझलाहट स्वयं आती है दिमाग खराब करने। लगभग हर ऑफिस में दिखने वाले इन लापरवाह सहयोगियों के कारण काम पर कितना असर पडे़गा, कोई भी आसानी से समझ सकता। बॉस भी ऐसे की, आवाज मार कर बुला लेते है उनको अपने पास और जमा लेते है महफिल। इसकी वजह भी साफ समझ में आती है कि राजाओं को चंगू-मंगू रखने का शौक होता है, जो उनकी हर बात में हां मिलाते रहे। बॉस इज आलवेज राइट। पर जरूरी नहीं बॉस हमेशा सही हो, बॉस गलत भी हो सकते है, वह कोई भगवान तो है नहीं, आखिर वह भी इंसान ही है, गलती हो सकती है, उनको समझाया जा सकता है। अब क्योंकि मीडिया में समय कम होता है, काम ज्यादा। तब ऐसे में काम करने वाले काम में ही उलझे रहते है। बॉस को समझाने का समय तक भी नहीं मिल पाता, जब समय मिलता है, तब तक चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए क्या होत वाली कहावत हकीकत में बदल जाती है। फिर शुरू होता है आरोप-प्रत्यारोप का दौर, जो आजकल कम्प्यूटर टू कम्प्यूटर वाया इंटरनेट पर चलता है। साथ ही सबसे ज्यादा नफरत उन सहयोगियों से होती है, जो खुद तो कभी कुछ करते नहीं, उल्टे काम करने वालों के साथ कंपनी और बॉस की बुराई करते-फिरते रहते है। अरे भाई हमारी तो कोई कद्र ही नहीं, काम करते, रहो, तनख्वाह का नाम न लो। मेरी समझ में नहीं आता । जब काम की योग्यता नहीं होती, तो क्यों मीडिया में घुसे चले आते है। क्यों अपना समय खराब करते है, कहीं पर भी पान की दुकान खोली जा सकती है, जिसके दो फायदे होगे, एक तो पैसा आता रहेगा, दूसरे लोग आपके चक्कर लगाने लगेंगे। सोचिए कितना अच्छा होगा, जहां अभी तक आप बॉस परिक्रमा करते थे, वही लोग आपकी परिक्रमा करने लगेंगे। फिर किसी डाक्टर ने तो कहा नहीं कि बगैर तनख्वाह के मीडिया में जबरदस्ती घुसे रहो। एक बात अच्छी तरह समझ आ गई कि काम की हमेशा कद्र होती है। जब तक जिस कंपनी में रहो, ईमानदारी से काम करो। भले ही व्यक्ति पूजा आपको काम दिलवाने में मददगार साबित हो जाए, लेकिन कर्म-पूजा आपको स्थायित्व प्रदान करती है। साथ ही कंपनी को हमेशा काम करने वालों की जरूरत रहती है। क्योंकि जब करने वाले ही नहीं होगे तो कंपनी कैसे चलेगी। भले ही देर से सही ईमानदार व कर्मठ कर्मचारियों की कद्र होती है। अब मीडिया क्षेत्र में जितना समय है उतने समय में एक ही काम को महत्व दिया जा सकता है व्यक्ति पूजा या कर्म पूजा। अब यह हमारे पर निर्भर करता है आखिर किसको महत्व देना है। व्यक्ति पूजा के चलते प्रलय तो नहीं आती है, दिमाग जरूर हिल जाता है, जब अगले दिन रिजल्ट खराब आता है। इन लापरवाह लोगों की वजह से कबीर दास जी का यह दोहा पूरी तरह बदल गया है-
अब करे सो आज, आज करे सो काल। पल में प्रलय होएगी, मौज करेगा कब।।
गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011
प्लीज अन्ना, भ्रमित न करें
बिल लाने की दिशा में अन्ना ने जिस आंदोलन की शुरूआत की थी. वह आज
सार्वजनिक हितों से दूर व्यक्तिगत हितों की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है.
अन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उभर कर सामने आ रही है. यह ठीक बात है
कि देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है. हो भी क्यों
न आजादी के बाद से आज तक अधिकतर समय सत्ता कांग्रेस के हाथ में ही थी.
इसलिए सभी अच्छीबुरी बातों के लिए कांग्रेस की ही जिम्मेदारी बनती है.
अगर कांग्रेस ने देश के विकास में अग्रणी भूमिका निभाई तो देश पर क्या
अहसान किया, देशवासियों ने कांग्रेस पर भरोसा किया तभी वह लगभग अधिकतर
समय तक सत्ता में रहे. यहां पर भाजपा व अन्य दलों की जिम्मेदारी थोड़ी कम
बनती है. क्योंकि वह बहुत कम समय तक सत्ता में रहे. इसलिए कांग्रेस की
अपेक्षा भाजपा व अन्य पार्टियां भ्रष्टाचार बढ़ाने के लिए कम दोषी मानी
जा सकती हैं. लेकिन इस बात से भाजपा व अन्य पार्टियों को निर्दोष नहीं
ठहराया जा सकता. गैर कांग्रेसी पार्टियां अगर सत्ता में नहीं थी, तो क्या
वह मुख्य विपक्षी पार्टी तो थी. उन्होंने कांग्रेस के गलत कामों को रोकने
का प्रयास ईमानदारी से क्यों नहीं किया? क्यों आज तक देशवासियों का भरोसा
नहीं जीत सकी? राजनीति के दांवपेंच से अजीज आ चुके देशवासियों ने अन्ना
की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में खुद को शामिल कर लिया. लेकिन आज देशवासी
खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. इसकी वजह साफ नजर आती है कि अन्ना व
उनकी टीम आखिर चाहती क्या हैं? जनलोकपाल बिल पास न करने के लिए अगर
कांग्रेस को दोषी ठहराया जा रहा है तो भाजपा व अन्य पार्टियों को भी तो
दोषी ठहराया जाना चाहिए. देशवासियों के समर्थन से गदगद अन्ना व उनकी टीम
चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है. उनका कहना है कि
जनलोकपाल बिल की बात न करने वालों को चुनाव में हराना है. सबसे बड़ा सवाल
यहां पर यह उठता है कि अगर सभी को चुनाव में हराना है तो जिताना किसको
है. (अन्ना व उनकी टीम को, जो चुनाव ही नहीं लड़ रही है.) अन्ना अगर
राजनीतिक पार्टियों को हराने की बात कह रहे हैं तो इसका विकल्प क्यों
नहीं बताते, फलां पार्टी के व्यक्ति को चुनाव जिताना है. वैसे भी अपना
देश इतना बड़ा है कि एक कोने के विचार दूसरे कोने विचारों से मेल नहीं
खाते. तब ऐसे में निर्दलीय प्रत्याशियों के जीत कर आने की संभावना बढ़
जाएगी. फिर सरकार का क्या होगा, कौन बनेगा प्रधानमंत्री और कौन करेगा बिल
पास. हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि संसद में बहुमत वाली पार्टी ही
सरकार बनाएगी. आखिर अन्ना अपना रूख साफ क्यों नहीं करते कि वह किंग बनना
चाहते हैं या किंगमेकर. अगर किंगमेकर बनने की तमन्ना है तो उनका किंग कौन
होगा. अगर वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों देशवासियों को भ्रमित कर
रहे हैं. यह हमारी मजबूरी है कि हर पांच साल में हमको अपनी सरकार के लिए
नेताओं का चुनाव करना होता है. हम मतदान में भाग लें या न लें, इस बात से
कोई फर्क नहीं पड़ता है. क्योंकि हम अपना मत नहीं देंगे तब भी हमारा नेता
चुना जाना तय है. उसके बाद सरकार भी बनेगी. यह कटु सत्य है. इसलिए यह
बहुत जरूरी हो जाता है कि अन्ना व उनकी टीम इस मुद्दे पर अपना रूख साफ
करे.
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
पढ़कर कोई कलेक्टर तो बनना नहीं
मंगलवार, 30 अगस्त 2011
संघर्ष हम करेंगे, अन्ना तुम आराम करो,
शुक्रवार, 26 अगस्त 2011
आखिर किस बात का इंतजार है?
गुरुवार, 25 अगस्त 2011
गांधी के देश में अन्ना की आंधी
शुक्रवार, 12 अगस्त 2011
आप सुधरे तो जग सुधरे
मंगलवार, 2 अगस्त 2011
जिसकी लाठी उसकी भैंस
सोमवार, 18 जुलाई 2011
खामोश निगाहें
सिले हुए होंठ,
न जाने
क्या ढूंढ़ते है
इस जमीं पर
हर रात को
चांद को देख
मन में जागती
एक आस
अपना भी हो
कोई चांद जैसा
शांत-चंचल चित्तचोर
जो चुरा ले मेरे सीने से
मेरा क्रोध, मेरी नफरत
जिसने छीन ली
मुझसे मेरी इंसानियत
अब तो बस
चांद से करते है गुहार
कोई मिल जाए
और मुझे भी बना दे
चांद जैसा
शांत- शीतल
और ले आए
इस तपती
झुलसती जिंदगी में
प्यार की शीतल बहार
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
अगर मैं एडिटर होता तो'
ऐसे ही खाली बैठे-बैठे बचपन में पढ़ाई के दौरान एक निबंध का शीर्षक याद गया ‘अगर मैं भारत का प्रधानमंत्री होता तो'. जैसे ही यह शीर्षक याद आया, तुरंत दिमाग ने सचेत किया, अरे भाई आज ब्लॉग लिखने का विषय मिल गया ‘अगर मैं एडिटर होता तो'. अब यही शीर्षक मेरे दिमाग में क्यों आया, इसकी वजह साफ है कि मैं मीडिया से जुड़ा हुआ हूं.
वर्तमान में मेरी जिंदगी का अधिकांश समय मीडिया के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है, फिर मुझे राजनीति के बदलते स्वरूप से परहेज है, साथ ही आज समस्याओं के भंवर में फंसे हुए राष्ट्र को बाहर निकालने के लिए राजनीतिज्ञों की नहीं, बल्कि मीडिया की सकारात्मक भूमिका की आवश्यकता है, क्योंकि सिर्फ मीडिया ही समस्याओं के विरूद्घ आम आदमी को मजबूती से खड़ा करने में सक्षम है. अब आम आदमी को खड़ा करने की जरूरत यहां पर इसलिए हो जाती है कि हमारा देश लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत चलता है और वहां पर सरकार का चुनाव आम आदमी करता है, इसलिए आम आदमी को जगाना जरूरी हो गया है.
यह क्या, मैं विषय से ही भटक गया, मैं लिख रहा था कि ‘अगर मैं एडिटर होता तो... किसी भी मीडिया हाउस में एडिटर बनते ही मेरा सबसे पहला काम होता, अपने सहकर्मियों को सुबह की मीटिंग से मुक्त करना. ताकि वह हर सुबह तरोताजा होकर जब घर से निकले तो उनके दिलो-दिमाग में मीटिंग का भय न हो. मीडिया क्षेत्र में काम करने और जनसमस्याओं को सोचने और समझने का सबसे बेहतरीन समय दोपहर तक ही होता है, जब उस बेहतरीन समय का दुरूपयोग हम निरर्थक की बातों में ही कर देंगे तो जनसमस्याओं को समझना तो दूर उनके बारे में सोच भी नहीं सकते.
मैं अपनी टीम में सिर्फ जोश-जज्बे और कर्मठ और योग्य व्यक्ति को ही जगह देता. इसके लिए उनको 20-25 दिन का समय जरूर देता, उसके बाद उनके साथ किसी भी प्रकार की रियायत नहीं करता. क्योंकि हम जिस फील्ड में है, उसी फील्ड की कार्यशैली से समाज की दशा व दिशा तय होती है. यह कोई हंसी-मजाक का खेल नहीं है. इस फील्ड में आज तो आज पर अमल होता है, कल कुछ नहीं. दूसरी सबसे बड़ी बात काम के समय में सिर्फ काम की नीति पर अमल करना और करवाना. जो इस नीति पर असहमत होते, उनके लिए और भी दूसरे काम है करने के लिए, उनकी मेरी टीम में कोई जगह नहीं होती. साथ ही दूसरा हर बड़ी समस्या का मुकाबला खुद सामने खड़े होकर करता न कि दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना लगाता.
बड़ी अजीब सी बात है कि मीडिया ही नेता बनाता है और बाद में नेता ही मीडिया को चलाता है. राजनेताओं को मीडिया की अहमियत का अहसास कराने के लिए, उनके उन खबरों पर पूर्ण रूप से रोक लगाना, जिन्हें राजनेताओं द्वारा अपने फायदे के लिए प्रकाशित किया जाता है या मीडिया को माध्यम बनाकर आम आदमी को बेवकूफ बनाया जाता है. वरना एक इंसान की इतनी हैसियत नहीं है कि बगैर मीडिया के सहयोग वह लाखों-करोड़ों में चर्चित हो जाए. एक साधारण व्यक्ति को जब मीडिया घर-घर के आम आदमी तक पहुंचाने की औकात रखता है तो उसको धूल चटाने का जज्बा भी मीडिया के पास ही सुरक्षित है. और वर्तमान में इस जज्बे का इस्तेमाल जरूर करता और करवाता. आज समस्याओं के भंवर में फंसे हुए समाज को बाहर निकालने के लिए इसी जज्बे की जरूरत है.